Wednesday, May 12, 2010

विनाश से सृजन की ओर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

विनाश से सृजन की ओर-
मुख मोड़ और चल,
धूर्त-पथ त्याग कर,
मानव मन बन निश्छल।

विनाशिनी संहारिणी शक्ति-
तेरी ही कृति का प्रतिफल,
मोड़ दे अपनी दिशा,
उत्फुल्ल कर शतदल कमल,
कृत्रिम से प्रकृति उत्तम
शान्त सुन्दर धवल,
तो फिर ओ अशान्त मन,
चल वापस, प्रकृति ओर वापस चल।

(रचना तिथिः शनिवार 24-12-1983)

8 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

माननीय स्व:श्री हरिप्रसाद जी कविता आज भी प्रासंगिक है, पढवाने के लिए आभार

girish pankaj said...

aap hariprasad avadhiya ji ke putr hai jaan kar khushi hui. unse meri anek mulakaten hui hai. jab mai ''navbharat'' ka sahity sampadak tha, us vakt maine unki kuchh rachanaaye prakashit kee thee. unke ghar bhi ek-do baar gayaa hoo. unki kavitaa dekh kar unki yaad aa gai. abhar aapka.

honesty project democracy said...

अवधिया जी आपकी पूरी की पूरी मानवीय नस्ल ही उत्तम है यह जानकर अपार हर्ष हुआ / कविता बहुत ही यथार्थ पे आधारित है /

शिवम् मिश्रा said...

बहुत खूब !! आभार !!

राज भाटिय़ा said...

अति सुंदर कविता के लिये धन्यवाद

शरद कोकास said...

इस कविता में जो ध्वनि का चमत्कार दिखाई देता है वह अद्भुत है ।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

श्रेष्ठ और सुमधुर रचना... नमन रचयिता को..

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

विनाश से सृजन की ओर-
मुख मोड़ और चल,
धूर्त-पथ त्याग कर,
मानव मन बन निश्छल।

वाह्! बेहद शानदार रचना.....आज के हालातों को देखते हुए इसकी प्रासंगिकता ओर भी बढ गई है...