Tuesday, July 27, 2010

बस मुझमें ईमान नहीं है!

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

हट्टा-कट्टा मेरा तन है,
तन के भीतर चंचल मन है,
बहुत बड़ा परिवार है मेरा
घर में भी काफी ज्यादा धन है।

शिक्षा की कमी नहीं मुझमें,
डिग्री बहुत बढ़ा ली है,
हर शिक्षा संस्था में मैंने,
अपनी टांग अड़ा दी है।

राजनीति में भी अपनी ही,
तूती बोला करती है,
भोले-भाले लोगों का मन,
बुद्धि हमारी हरती है।

पंचों में मैं सरपंच बड़ा,
न्यायालय का कानूनी कीड़ा,
जनता की सेवा करने का,
उठा लिया है मैंने बीड़ा।

लोगों की नजरों में मैं हूँ,
बड़ा आदमी इस युग का,
सारे लोग कहा करते हैं,
धर्मवीर मुझे कलियुग का।

सभी दृष्टि से पूरा हूँ मैं,
पर मेरा सम्मान नहीं है, क्योंकि-
केवल एक कमी है मुझमें,
बस मुझमें ईमान नहीं है!

(रचना तिथिः शनिवार 27-11-1983)

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कितनी गहरी बात है। समेमान तो ईमान का होना चाहिये।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बहुत गहरी बात...

शिवम् मिश्रा said...

आजकल तो शायद किसी में नहीं है !

honesty project democracy said...

कोशिस करनी जरूर चाहिए क्योकि इमान ही जिन्दगी है ,इमान ही बंदगी है ....