आज ठगी का अर्थ किसी को बहला-फुसला कर या धोखा देकर लूट लेने से लगाया जाता है याने कि ठग का अर्थ वही समझा जाता है जो कि अंग्रेजी के शब्द 'चीट' (cheat) का होता है। किन्तु अठारहवीं शताब्दी में भारत में ठगों के गिरोह हुआ करते थे जो कि अपनी साहसिक, रोमांचकारी किन्तु हत्या के घृणित कृत्य किया करते थे। उन दिनों इन ठगो के गिरोहों का व्यापक जाल सम्पूर्ण भारत में कन्याकुमारी से कश्मीर तक फैला हुआ था। इन गिरोहों में पाँच-दस व्यक्तियों से लेकर सैकड़ों व्यक्ति तक हुआ करते थे जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शामिल रहते थे। स्त्रियाँ भी इन गिरोहों का सदस्य होती थीं। उस काल में आज की तरह रेल-मोटर जैसी सुविधाएँ न होने के कारण लोग काफिला बना कर रथों, बैलगाड़ियों, घोड़ों, ऊँटों आदि जानवरों पर सवार होकर तथा पैदल चल कर यात्रा किया करते थे। साथ के सामान को ढोने के लिए गधों और खच्चरों का इस्तेमाल किया जाता था। काफिले के लोगों की संख्या के अनुसार एक से अधिक ठगों के गिरोह मिलकर ठगी का धन्धा किया करते थे।
यद्यपि इन ठगों के गिरोहों में मुसलमान भी हुआ करते थे किन्तु इन ठगों की इष्ट काली देवी हुआ करती थी। सम्भवतः ठगी का आरम्भ तान्त्रिकों से हुआ था और इसीलिए उनका धर्म-विश्वास तान्त्रिक ढंग पर था। ठगों के पूजा-स्थल गोपनीय हुआ करते थे। ये ठग प्रायः बगैर रक्तपात किए हत्या किया करते थे। इनका हत्या करने का ढंग भी अपनी तरह का अनूठा था। इनका मुख्य अस्त्र एक रेशमी रूमाल हुआ करता था, जिसमें एक मंसूरी पैसा बंधा रहता था। अपने रेशमी रूमाल को वे इस सफाई के साथ अपने शिकार के गले में डालते थे कि वह पैसा शिकार के टेंटुए से कस जाता था और क्षण भर में ही बलवान से बलवान आदमी की ऐसी मृत्यु हो जाया करती थी कि वह 'चीं' तक न कर पाता था। शिकारों की संख्या चाहे सौ-दो सौ ही क्यों ना हो, संकेत होने पर एक ही क्षण में सभी के गले में फाँसी लग जाती थी।
ठगों के ये गिरोह सैनिक पद्धति पर संगठित हुआ करते थे तथा उनमें भिन्न-भिन्न पदाधिकारी भी होते थे। पदाधिकारियों के आधीन अलग-अलग दल होते थे जिनके विभिन्न प्रकार के काम नियत होते थे। 'सोथा' नामक दल के सदस्यों का कार्य होता था भद्रवेश में सम्पन्न लोगों की तरह यात्रा करना तथा मुसाफिरों को अपनी वाक्पटुता के जाल में फँसा कर उनसे हेल-मेल करके उनके काफिलों में शामिल हो जाना। 'सोथा' दल के किसी काफिले में शामिल हो जाने के बाद 'भटोट' नामक दल भी 'सोथा' की सहायता से उस काफिले में शामिल हो जाया करता था। 'भटोट' दल के सदस्यों का कार्य शिकार के गले में पैसे बंधे रेशमी रूमाल से फाँसी डालना। गिरोह के नए रंगरूटों के दल को 'कबूला' कहा जाता था और इनका काम मुर्दों को रफा-दफा करना हुआ करता था। शिकार को फाँसी लगाते समय उनकी सहायता के लिए तत्पर रहने वालों के दल को 'समासिया' कहा जाता था। 'लगाई' नाम के दल के लोगों का काम होता था फाँसी के लिए नियत स्थान के पास पहले से ही कब्रें खोद कर तैयार रखना। कहाँ पर कौन आकर काफिले में शामिल होगा और किस स्थान पर शिकारों को फाँसी दी जाएगी ये सारी बातें पूर्व से ही योजनाबद्ध हुआ करती थीं। फाँसी देने के लिए संकेत नियत रहता था, दल के सरदार के द्वारा संकेत देने को 'झिलूम देना' कहा जाता था। जहाँ पर शिकारों को फाँसी देना होता था उस स्थान पर डेरा डलवा दिया जाता था। फाँसी देने का समय नियत होता था और उस समय काफिले के प्रत्येक व्यक्ति के साथ एक-एक ठग हो जाया करते थे। ज्योंही सरदार "पान लाओ" जैसी कोई पूर्व-नियत बात कहकर झिलूम देता था, शिकारों के गले फाँसी से कस जाया करते थे।
इन ठगों के अनेक प्रकार के समुदाय हुआ करते थे। "मेघपूना" नामक ठगों का एक समुदाय केवल बच्चों के अपहरण का कार्य किया करता था। अवसर आने पर विभिन्न समुदाय एक साथ मिलकर काम किया करते थे। अपढ़ तथा गँवार लोगों के साथ पढ़े-लिखे व्यक्ति भी ठगों के इन गिरोहों में हुआ करते थे।
देखा जाए तो अठारहवीं शताब्दी का वह काल भारत के लिए सर्वत्र अराजकता का काल था। बादशाह का पतन हो चुका था और राजे और नवाब अपने राज्य को बढ़ाने के लिए एक दूसरे से युद्ध किया करते थे। पिण्डारी और रुहेले के दल सरे आम गाँवों और कस्बों को लूट लिया करते थे और ठग सैकड़ों तथा हजारों की तादाद में लोगों की हत्या कर दिया करते थे। राजाओ-नवाबों के आपसी युद्ध का फायदा अंग्रेजों ने खूब उठाया और भारत के अधिपति बन बैठे थे। ठगों के इन गिरोहों ने ये अंग्रेज शासकों के नाक में दम कर रखा था इसलिए अंग्रेजी शासन ने ठगों के गिरोहों के उन्मूलन को अपना प्रथम लक्ष्य बना लिया था और कर्नल स्लीमेन (colonel slimane) की अध्यक्षता में बने ठग उन्मूलन कमीशन ने चुन-चुन कर ठगों का सफाया कर डाला।
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यात्रा एवं पर्यटन से सम्बन्धित जानकारी देने के उद्देश्य से मैंने "यात्रा एवं पर्यटन" नामक एक नया ब्लोग बनाया है और आशा करता हूँ वह आप सभी को पसंद आयेगा।
देखें "यात्रा एवं पर्यटन" का पहला पोस्ट - मांडू (माण्डवगढ़)
9 comments:
kuchh isi tarah ka kam BANARAS KE THAG bhi karte the.
yatriyon ko loot lete the.
johar le gurudev
शोधपरक आलेख. इन्हीं ठगों को संभवतः पिडारी कहा जाता था.
सच बात है। अच्छे राज्य में ही प्रजा खुश रह सकती है।
इतिहासिक जानकारी मुहैया करवाई.
आभार.........
आज के नेता भी तो यही कर रहे है... यह भुख का फ़ंदा हमारे गले मै डाल रहे है.
कई साल पहले "मनोहर कहानियां" नामक एक बेहतरीन मासिक पत्रिका आती थी। (बाद में इस पर बैन लग गया था)
इसमें एक लम्बी सीरिज चली थी किसी अंग्रेज शोधार्थी की भारत के ठगों पर विस्तृत रिपोर्ट थी। उसमें पढा था इस बारे में।
दक्षिण और महाराष्ट्र के ठग ज्यादा खतरनाक होते थे।
पोस्ट बढिया लगी, इस बारे और लिखियेगा।
प्रणाम
पुराने ज़माने की महत्वपूर्ण जानकारी दी है आपने. इस बहाने पता चला की उस ज़माने के ठग कितने खतरनाक थे. वैसे आज भी सफ़ेद पोशाकों में घूम रहे ठग कम खतरनाक नहीं हैं...... यह भी बहुत सुनियोजित तरीके से काम करते हैं.
शोधपरक आलेख.
यह बिलकुल सही है । अब इन लोगो ने तरीक बदल लिया है ..।
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