Tuesday, September 28, 2010

सातवीं से अठारहवीं शताब्दी तक का भारत (1)

सातवीं शताब्दी के आरम्भ ही में इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद ने अरब में इस्लाम की शिक्षा दी और उनके जीवन-काल में ही समूचा अरब मुसलमान हो गया था। इसके बाद उनकी मृत्यु के बाद सौ वर्षों के भीतर ही मेसोपोटामिया, सीरिया, जेरूसलम, ईरान, तातार, तुर्किस्तान और चीन का कुछ भाग, मिस्र, कारबेज तथा सम्पूर्ण उत्तरी अफ्रीका मुसलमानों ने जीतकर अपना महान साम्राज्य स्थापित कर लिया। विशाल रोमन साम्राज्य भी इनके हमलों से न बच पाया और इसके बाद स्पेन भी उसके अधीन हो गया। यह इस्लाम की शानदार पहली शताब्दी थी। इसके बाद तो रूस, यूनान, बलकान, पोलैंड, दक्षिण इटली, सिसली को लेकर आधे यूरोप पर इस्लाम की हुकूमत कायम हो गई, जो शताब्दियों तक रही।

भारत में मुहम्मद की मृत्यु के चार वर्ष बाद ही खलीफा उमर के जमाने में बंबई के निकट के थाना नामक स्थान में मुसलमानों की जल-सेना ने प्रवेश किया था, परन्तु खलीफा की आज्ञा से उसे वापस बुला लिया गया था। इसके बाद आठवीं शताब्दी के प्रथम चरण में मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने सिंध जय किया और मुलतान पर अधिकार कर लिया। इसके तीन सौ वर्ष बाद महमूद गज़नवी के आक्रमण हुए और इसके दो सौ वर्ष बाद तेरहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद भारत में इस्लामी राज्य स्थापित हो गया।

मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के कोई सौ वर्ष पूर्व ही सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु हो चुकी थी और उसके बाद ही राजपूतों की नजई जाति का उदय हुआ था। उन्होंने पश्चिम से चलकर उत्तर-पूर्वीय भारत तथा मध्य-भारत में अनेक छोटी-छोटी रियासतें स्थापित कर ली थीं। मुसलमानों के आने के ठीक पहले पंजाब से दक्षिण तक और बंगाल से अरब सागर तक लगभग समस्त देश राजपूतों के शासन में आ गया था। परन्तु कोई बड़ी शक्ति इन छोटी-छोटी रियासतों पर अंकुश रखने वाली न थी। इससे ये रियासतें निरन्तर परस्पर लड़ती थीं। प्राचीन महाराज्यों के अब केवल ध्वंस ही दिखाई देते थै।

इस समय धर्म-क्षेत्र में जभी वैसी ही अव्यवस्था हो गई थी। भारत में सम्प्रदायवाद का जोर था। वैष्णव, शाक्त, तान्त्रिक, वाममार्गी, कापालिक, शैव और पाशुपत धर्म वाले बड़ी कट्टरता से परस्पर संघर्ष करते रहते थे। कुछ लोग बड़े-बड़े विवादों, दार्शनिक विचारों में फँसे थे, पर सर्वसाधारण घोर अंधकार में था। जाति-भेद पूरे जोरों पर था। स्त्रियों और शूद्रों की दशा दयनीय थी। ब्राह्मणों और पुरोहितों के विशेषाधिकार स्थापित हो चुके थे। अधिकांश जनता जाति-पाँति, देवी-देवा, भूत-प्रेत, जप-तप, यज्ञ-हवन, पूजा-पाठ तथा ब्राह्मणौं को दान देने में, तीर्थयात्रा करने में, जंतर-मंतर और जादू-टोनों से अंधविश्वास में फँसी थी। संक्षेप में उस काल का भारत अनगिनत छोटी-छोटी अनियन्त्रित रियासतों, सैकड़ों मत-मतांतरों और अनगिनत कुरीतियों और अंधविश्वासों का केन्द्र बना हुआ था।

इसी समय भारत में इस्लाम ने प्रवेश किया। इस्लाम के जन्म से पूर्व ही दक्षिण भारत में अरबों की अनेक बस्तियाँ बस चुकी थीं। वे सब व्यापारी थे तथा भारतीयों से उनके अच्छे सम्बन्ध थे। इसलिए आक्रमण से पूर्व ही इस्लाम इन व्यापारियों के साथ भारत में सातवीं शताब्दी ही में आ चुका था तथा बहुत से भारतीय मुसलमान हो चुके थे। उस समय इस्लाम के विपरीत कोई घृणा का भाव न था। भारत के तत्कालीन असंख्य समप्रदायों में एक यह भी समझ लिया गया था। नवीं शताब्दी के आरम्भ ही में मलाबार के राजा ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था। इससे इस राज्य की वृद्धि हुई तथा इस राज्य  की सहायता से इस्लाम की भी भारत में प्रतिष्ठा हुई। इस बीच बहुत-से मुसलमान फकीर और विद्वान अरब तथा ईरान से आ-आकर भारत में बसते गए। उनका खूब आदर-सत्कार होता था और सैकड़ों हिन्दू उनके चेले बनते थे। इनमें कुछ फकीर बहुत प्रसिद्ध हो गए। अब इस्लाम के प्रभाव कोंकण, काठियावाड़ और मध्य भरत में भी फैल चुका था। उस समय के ये इस्लाम के प्रचारक अपनी सच्चरित्रता और त्याग के कारण लोगों में अपना प्रभाव जमा चुके थे। इसके अतिरिक्त इस्लाम के सिद्धांत, तत्कालीन जटिल हिन्दू समप्रदायों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली और आकर्षक थे। इसी से खासकर, छोटी जाति के बहुत-से लोग, जो हिन्दू वर्ण-व्यवस्थअ के शिकार थे, स्वेच्छा से मुसलमान होना पसन्द करते जाते थे।

तेरहवीं शताब्दी के अन्त से सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक, जब तक कि मुसलमान भारत में अपने साम्राज्य-स्थापन के प्रयत्न करते रहे, यही दशा रही। इस काल में अरब के इस नये मत का प्रभाव केवल उन लाखों भारतीयों पर ही नहीं पड़ा, जिन्होंने इस्लाम ग्रहण कर लिया था, अपितु भारतीयों के आम विचार, धर्म, साहित्य, कला और विज्ञान पर भी पड़ा था; कहना चाहिए कि समूची भारतीय सभ्यता ही भारत में मुग़ल-साम्राज्य की स्थापना से पहले ही इस्लाम के प्रभावित हो चुकी थी।

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चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। उस समय दिल्ली के तख्त पर मुहम्मद तुगलक था। तैमूर केवल पन्द्रह दिन भारत में रहा और लूट-खसोट और कत्ले-आम करके लौट गया। इसके कोई सवा सौ वर्ष बाद बाबर ने आक्रमण किया। इस समय तक मुकलों की प्रकृति में अन्तर पड़ चुका था। वे अपनी जन्मभूमि मंगोलिया से कहीं अधिक सभ्य देश ईरान में वर्षों रह चुके थे। इससे वे चंगेज़खां और तैमूर की अपेक्षा सभ्यता-प्रेमी बन चुके थे। पानीपत के मैदान में बाबर ने इब्राहीम लोधी को शिकस्त दी और मुग़ल-तखत की स्थापना की। उसने भारत को ही अपना घर बना लिया और हुमायूं के अतिरिक्त उसके शेष वंशज भारत ही में पैदा हुए। इधर सम्राट हर्षवर्धन के बाद अर्थात् ईसा की सातवीं शताब्दी के मध्य से लोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक लगभग नौ सौ वर्ष के समय में कोई सशक्त राजनीतिक शक्ति ऐसी न उत्पन्न हो पाई थे, जो समस्त भारत को एक सूत्र में बाँध सके। इन नौ सौ सालों में भारत छोटी-बड़ी, एक-दूसरे  से प्रतिस्पर्धा करने वाली रियासतों के युद्ध का अखाड़ा बना रहा। ड़ाजनीति निर्बलता, अनैक्य और अव्यवस्था इस काल के भारत की सच्ची तस्वीर थी। इस अवस्था में एक ऐसी केन्द्रीय शक्ति की भारत में बड़ी आवश्यकता थी, जो सारे देश के ऊपर एक समान शासन कायम कर सके और देश की बिखरी हुई शक्तियों को एक सूत्र में गांठ सके।

यह काम सोलहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक दिल्ली के मुग़ल-साम्राज्य ने किया। उसने राजनीति, सामाजिक व्यवस्था, उद्योग, कला-कौशल, समृद्धि, शिक्षा और सुशासन की दृष्टि से भारत में एक नये युग का सूत्रपात किया। मुग़लों से पहले अशोक और चन्द्रगुप्त के साम्राज्य भारत में थे, पर मुग़ल-साम्राज्य उस सबसे बड़ा था। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी थी कि अशोक और चन्द्रगुप्त के सम्राज्य का अन्तःगठन ऐा न था जैसा मुग़ल-साम्राज्य का था। उस काल में विविध प्रान्तों की विविध भाषाएँ और अलग-अलग शासन-पद्धतियाँ थीं तथा अलग-अलग प्रान्तीय जीवन थे। परन्तु मुग़ल-साम्राज्य के सौ वर्षों में, अकबर के सिंहासारूढ़ होने के बद से मुहम्मद शाह की मृत्यु तक, समस्त उत्तरी भारत और अधिकांश दक्षिण भारत की एक सरकारी भाषा, एक शासन-पद्धति, एक समान सिक्का और हिन्दू पुरोहितों तथा ग्रामीणों को छोड़कर सब श्रेणी के नागरिकों की एक सार्वजनिक भाषा थी। जिन प्रान्तों पर सम्राट का सीधा शासन न था, वहाँ के हिन्दू राजा भी लगभग मुग़ल-प्रणाली को ही काम में लाते थे।

प्राचीनकाल में बौद्ध-युग में भारत का सांस्कृतिक सम्बन्ध भारत से बाहर के देशों से स्थापित हुआ था, जो मुग़ल अमलदारी में नये सिरे से फिर स्थापित हुआ। मुग़ल-साम्राज्य की समाप्ति तक अफ़गानिस्तान दिल्ली के बादशाह के अधिन था तथा अफ़गानिस्तान के जरिये बुखारा, समरकंद, बलख, खुरासान, खाजिम और ईरान से हजारों यात्री तथा व्यापारी भारत में आते रहते थे। बादशाह जहांगीर के राज्यकाल में तिजारती माल से लदे चौदह हजार ऊँट प्रतिवर्ष बोलान दर्रे से भारत आते थे। इसी प्रकार पश्चिम में भड़ोंच, सूरत, चाल, राजापुर, गोआ और करबार तथा पूर्व में मछलीपट्टनम तथा अन्य बन्दरगाहों से सहस्रों जहाज प्रतिवर्ष अरब, ईरान, टर्की, मिस्र, अफ्रीका, लंका, सुमात्रा, जावा, स्या और चीन आते-जाते थे।

अकबर ने धार्मिक उदारता की आधार शिला पर ही मुग़ल-साम्राज्य की स्थापना की थी। अकबर, जहांगीर और शाहजहां तक इस उदारता का व्यवहार रहा। मुग़ल सम्राटों के दरबार में हिन्दू और मुसलमान दोनों के मुख्य त्यौहार समान उत्साह और वैभव से मनाए जाते थे। इसी से मुग़ल-साम्राज्य का वैभव बढ़ा। शाहजहां का समय भारतीय इतिहास में सबसे अधिक समृद्ध था। उसे हम उस काल का स्वर्णयुग कह सकते हैं। औरंगजेब ने धार्मिक संकीर्णता को अपनी राजनीतिक आवश्यकता बताया और तभी से मुग़ल-प्रताप अस्त होना आरम्भ हुआ। राजपूत, मराठे, सिख और हिन्दू राजा उससे असन्तुष्ट हो गए। भारत की राजनीतिक सत्ता निर्बल हो गई और इसके साथ ही देश के उद्योग-धंधे, व्यापार, साहित्य और सुख-समृद्धि के नाश के बीज उगने लगे।

औरंगजेब के निर्बल उत्तराधिकारियों ने एक बार फिर समन्वय की नीति अपनाने की चेष्टा की। परन्तु अभी औरंगजेब की गलती के परिणाम ताजा ही थे कि एक ऐसी तीसरी शक्ति ने भारत के राजनीतिक मंच पर प्रवेश किया जिसका हित हर प्रका भारतवासियों के हित के विरुद्ध था। वह भारतीय हित का विरोधिनी शक्ति ब्रिटेन थी।

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोना और खून" से लिया गया अंश)

10 comments:

ओशो रजनीश said...

अति सुन्दर और ज्ञानवर्धक जानकारी ........ आभार

जाने काशी के बारे में और अपने विचार दे :-
काशी - हिन्दू तीर्थ या गहरी आस्था....

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

अइसने करके जम्मो उपन्यास ला पढवा डारबे।
अड़बड़ मेहनत करथस गा,टाईप घलो करे ला लागथे।

जोहार ले।

डॉ टी एस दराल said...

इतिहास के पन्ने पढ़कर अच्छा लगा । आगे का भी इंतजार रहेगा ।

प्रवीण पाण्डेय said...

ज्ञानवर्धक इतिहास के अध्याय।

शरद कोकास said...

यह एक अच्छा उपन्यास है इसे हम उपन्यास की तरह ही पढ़ते है ।

Unknown said...

बढ़िया पोस्ट !

उत्तम उपन्यास के प्रकाशन का उत्तम प्रयास,................

धन्यवाद

www.albelakhatri.com पर पंजीकरण चालू है,

आपको अनुरोध सहित सादर आमन्त्रण है

-अलबेला खत्री

राज भाटिय़ा said...

आज आप ने बहुत सुंदर रुप से इतिहास को पेश किया धन्यवाद

उम्मतें said...

शरद कोकास जी से सहमत !

SANJEEV RANA said...

avadhiya ji is jaankari ke liye aapka aabhar

shikha varshney said...

is upannyaas ke panne padhane ka aabhaar .