भारत में सदियों से धार्मिक उदारता की परम्परा रही है। भारतवासी सदा ही एक दूसरे की आस्थाओं तथा धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते रहे हैं। भारत के हिन्दुओं और मुस्लिमों में परस्पर इतनी धार्मिक उदारता रही है कि वे आपस में दूध और पानी की तरह से मिल गए थे। मुहम्मद पैगम्बर साहब ने सातवीं शताब्दी के आरम्भ में इस्लाम की शिक्षा देना आरम्भ किया था किन्तु उसके पहले ही दक्षिण भारत में अरबों की अनेक बस्तियाँ बस चुकी थीं। ये समस्त अरब व्यापारी थे और भारतीयों से उनके अच्छे सम्बन्ध थे। पैगम्बर साहब की शिक्षा का प्रभाव भारत में बसे इन अरबों पर भी पड़ा था और वे मुसलमान बन गए थे। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में मुस्लिमों के आक्रमण होने के बहुत पहले ही से इस्लाम भारत में आ चुका था। उन दिनों भी इस्लाम, जो कि भारत के लिए एक नया धर्म था, के विपरीत किसी प्रकार की घृणा की भावना नहीं थी। तत्कालीन भारत के वैष्णव, शाक्त, तान्त्रिक, वाममार्गी, कापालिक, शैव और पाशुपत आदि अनेक धर्मों के जैसे ही इस्लाम को भी भारत का एक धर्म मान लिया गया था। यहाँ तक कि नवीं शताब्दी के आरम्भ ही में मलाबार के राजा ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था और भारत में इस्लाम की प्रतिष्ठा बढ़ी।
उन दिनों भारत में जो भी मुसलमान फकीर और विद्वान अरब तथा ईरान से आकर भारत में बसते जाते थे, उनका आदर-सत्कार किया जाता था, सैकड़ों हिन्दू उनके चेले भी बन जाया करते थे। बहुत सारे फकीर इतने प्रसिद्ध हो गए थे कि हिन्दू और मुसलमान सभी उनके भक्त बन गए थे। धीरे-धीरे करके इस्लाम कोंकण, काठियावाड़ और मध्य भारत में भी जा पहुँचा। उस समय के ये इस्लाम के प्रचारक अपनी सच्चरित्रता और त्याग के कारण लोगों में अपना प्रभाव जमा चुके थे।
तेरहवीं शताब्दी के अन्त से सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक, जब तक कि मुसलमान भारत में अपने साम्राज्य-स्थापना के प्रयत्न करते रहे, कभी भी हिन्दू-मुस्लिम के बीच वैमनस्य कभी देखने में नहीं आया। इस काल में अरब के इस नये मत का प्रभाव न केवल उन लाखों भारतीयों पर ही नहीं पड़ा, जिन्होंने इस्लाम ग्रहण कर लिया था, अपितु भारतीयों के आम विचार, धर्म, साहित्य, कला और विज्ञान पर भी पड़ा था; कहना चाहिए कि समूची भारतीय सभ्यता ही भारत में मुग़ल-साम्राज्य की स्थापना से पहले ही इस्लाम के प्रभावित हो चुकी थी।
अकबर ने मुगल साम्राज्य की स्थापना धार्मिक उदारता की आधार शिला पर ही की थी। अकबर, जहांगीर और शाहजहां के काल में मुग़ल सम्राटों के दरबार में हिन्दू और मुसलमान दोनों के मुख्य त्यौहार समान उत्साह और वैभव से मनाए जाते थे। शाही दरबार के अलावा सामान्य जन भी एक दूसरे के त्यौहारों में प्रसन्नता के साथ शरीक हुआ करते थे। यहाँ तक कि मुस्लिम लोग तो अपने त्यौहारों में आने वाले हिन्दू अतिथियों की भावना का सम्मान करते हुए उनके भोजन के लिए अलग से भोजन पकाने वाले ब्राह्मणों की व्यवस्था किया करते थे तथा होली, दिवाली जैसे हिन्दुओं के त्यौहारों को स्वयं भी बड़े धूम-धाम के साथ मनाया करते थे। सभी भारतीय, चाहे वह हिन्दू हो चाहे मुसलमान, हर बात को एक ही दृष्टिकोण से देखते और घटनाओं को एक ही ढंग से अपनाते थे जिसके परिणामस्वरूप कभी भी किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिक झगड़े कभी होते ही नहीं थे।
भारत में अंग्रेजों ने अपने कदम जमाने के उद्देश्य से ही उन दिनों के राजा-महाराजाओं तथा नवाबों के बीच फूट डालने के साथ ही साथ हिन्दू और मुसलमानों के बीच वैमनस्यता के बीच बोना आरम्भ किया। उनका बोया हुआ वह बीज जड़ पकड़ता गया और भारत के हिन्दू-मुसलमानों के बीच खाई बनने लगी। आज जरूरत है अंग्रेजों के लगाए इस वैमनस्यता के पेड़ को जड़ से उखाड़ फेंकने की और भारत में सदियों से चली आ रही धार्मिक उदारता को बनाए रखने की!
3 comments:
हा हा हा हा हा हा
अवधिया जी अब आप भी?
सौहार्द की कामना के साथ एक सुर हमारा भी !
सौहार्द बना रहे।
Post a Comment