(कंचुकी का प्रवेश)
कंचुकीः प्रतिहारी! प्रतिहारी!
प्रतिहारीः (प्रवेश करके) आर्य! मैं, विजया, यहाँ का प्रतिहारी हूँ। क्या आदेश है?
कंचुकीः विजया, वत्स देश को विजित कर विशेष रूप से उदित हुए वत्सराज से निवेदन करो कि महासेन के राज्य उज्जयिनी से रैभ्य गोत्र का कंचुकी आपकी सेवा में उपस्थित होना चाहता है। उस कंचुकी के साथ आर्या वसुधारा नामक वासवदत्ता की धाय भी है जिन्हें देवी अंगारवती ने भेजा है।
प्रतिहारीः आर्य! सन्देश के लिए यह न तो उचित स्थान है और न ही उचित समय।
कंचुकीः क्यों? स्थान और समय उचित क्यों नहीं हैं?
प्रतिहारीः वत्सराज के पूर्व प्रासाद में आज कोई वीणा-वादन कर रहा था। उसे सुनकर महाराज ने कहा यहो घोषवती वीणा का स्वर प्रतीत हो रहा है।
कंचुकीः अच्छा! उसके बाद?
प्रतिहारीः वह वास्तव में घोषवती वीणा ही थी। पूछने पर वीणा-वादके बताया कि यह वीणा उसे नर्मदा के तीर एक कुंज में मिला था, यदि महाराज चाहें तो इसे ले सकते हैं। उस वीणा को महाराज के पास लाने पर महाराज उसे हृदय से लगाकर अचेत हो गए। चेत में आने पर "हा घोषवती! तू मुझे पुनः प्राप्त हो गई किन्तु वासवदत्ता नहीं मिली" कहकर और आर्या वासवदत्ता का स्मरण कर विलाप करने लगे। उनके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गए। इसीलिए स्थान और समय उपयुक्त नहीं है।
कंचुकीः देवि! तुम जाकर निवेदन कर दो क्योंकि हमारा सन्देश भी वासवदत्ता से ही सम्बन्धित है।
प्रतिहारीः जैसी आपकी आज्ञा! महाराज पूर्व प्रासाद से यहाँ ही आ रहे हैं, उनके आने पर निवेदन कर दूँगी।
कंचुकीः ऐसा ही करो देवि!
(दोनों का प्रस्थान)
(उदयन और विदूषक का प्रवेश)
उदयनः (घोषवती वीणा को देखकर) हे मधुरवादिनी! हे घोषवती! तेरा स्थान तो देवि वासवदत्ता की जंघाओं और स्तन-युगल के मध्य था। तूने इतना समय पक्षियों के रज से भरे वन में कैसे व्यतीत किया? घोषवती! तू निश्चय ही स्नेहरहित है इसीलिए तूने देवि वासवदत्ता को विस्मृत कर दिया है।
विदूषकः मित्र! दुःख प्रकाशन बहुत हो चुका। अब और विलाप न करें। शान्ति धारण करें।
उदयनः मित्र! इस घोषवती ने मेरी सुप्त कामना को जागृत कर दिया है। मित्र वसन्तक! इस घोषवती को शिल्पियों के पास ले जाकर इसका पुनरुद्धार करवाओ।
विदूषकः जैसी आज्ञा!
(वीणा को लेकर विदूषक का प्रस्थान)
प्रतिहारीः (प्रवेश करके) महाराज की जय हो! अवन्तिनरेश महासेन के यहाँ से रैभ्य गोत्र के कंचुकी और देवी अंगारवती द्वारा भेजी गईं महारानी वासवदत्ता की धाय आर्या वसुधारा द्वार पर उपस्थित हैं।
उदयनः तो तुम पहले देवि पद्मावती को यहाँ बुला लाओ।
प्रतिहारीः जैसी आज्ञा!
(प्रतिहारी का प्रस्थान)
उदयनः (स्वगत्) प्रतीत होता है कि देवि वासवदत्ता के साथ घटित दुर्घटना का समाचार महाराज महासेन को प्राप्त हो गया है।
(पद्मावती और प्रतिहारी का प्रवेश)
प्रतिहारीः देवि! पधारें।
पद्मावतीः (प्रवेश करके) आर्यपुत्र की जय हो!
उदयनः बैठो देवि! महाराज महाराज महासेन के कंचुकी और देवि अंगारवती की भेजी वासवदत्ता की धाय आर्या वसुधारा द्वार पर उपस्थित हैं।
पद्मावतीः तो क्या आर्यपुत्र मेरे समक्ष ही उनसे भेंट करेंगे?
उदयनः अवश्य! इसमें दोष ही क्या है?
पद्मावतीः सम्भव है कि आर्यपुत्र की द्वितीय भार्या को देखकर उनकी भावनाएँ आहत हों!
उदयनः तुम्हें देखने का उन्हें पूर्ण अधिकार है! उनके अधिकार से उन्हें वंचित करना उनका अनादर होगा। मैं उनका अनादर करके दोष का पात्र नहीं बनना चाहता। अतः तुम मेरे साथ ही बैठो।
पद्मावतीः जैसी आर्यपुत्र की आज्ञा! (बैठकर) आर्यपुत्र! मेरा हृदय व्याकुल हो रहा है, न जाने मेरे पिता और माता ने क्या सन्देश भेजा होगा!
उदयनः देवि! मेरा भी हृदय व्याकुल हो रहा है। मैं उनकी कन्या को हर कर ले आया था किन्तु उसकी रक्षा न कर सका। चंचल भाग्य ने उसकी रक्षा करने के मेरे गुण का नाश कर दिया। पिता अवश्य ही कुपित होंगे। मैं स्वयं को उनका अपराधी अनुभव कर रहा हूँ।
पद्मावतीः आर्यपुत्र! इसमें आपका तनिक भी दोष नहीं है। दैव प्रबल होता है। काल से भला कैसे किसी की रक्षा की जा सकती है?
प्रतिहारीः (प्रवेश करके) महाराज की जय हो! कंचुकी और धाय द्वार पर उपस्थित हैं।
उदयनः शीघ्र से शीघ्र उन्हें आदरसहित यहाँ लाओ।
प्रतिहारीः जैसी आपकी आज्ञा!
(कंचुकी का प्रस्थान)
कंचुकीः अपने सम्बन्धी के राज्य में आकर जितनी मुझे प्रसन्नता हो रही है, राजपुत्री का स्मरण करके उससे भी अधिक मुझे विषाद हो रहा है। कितना अच्छा होता यदि भले ही वत्सराज का राज्य उन्हें पुनः प्राप्त न होता किन्तु उनकी पूर्वपत्नी जीवित होतीं।
(प्रतिहारी का कंचुकी और धाय के साथ प्रवेश)
प्रतिहारीः महाराज की जय हो! कंचुकी और आर्या वसुधारा उपस्थित हैं।
कंचुकीः वत्सराज की जय हो!
धायः महाराज की जय हो!
उदयनः (आदरसहित) हे आर्य! समस्त पृथ्वी के नरेशों के उदय अथवा अस्त कर देने में समर्थ अवन्तिनरेश सकुशल तो हैं?
कंचुकीः वे सकुशल हैं और आपकी कुशलता की कामना करते हैं।
उदयनः (आसन से उठकर) अवन्तिनरेश की मेरे लिए क्या आज्ञा है?
कंचुकीः आपकी शिष्टता आपके अभिजात्य कुल के अनुकूल है, किन्तु आप आसन ग्रहण करें और महाराज महासेन का सन्देश सुनें।
उदयनः जैसी महासेन की आज्ञा! (बैठता है)
कंचुकीः प्रसन्नता की बात है कि शत्रुओं द्वारा अपहृत आपका राज्य सौभाग्यवश आपको पुनः प्राप्त हुआ! राज्यश्री का भोग शक्तिहीन राजा अधिक काल तक नहीं कर सकते। आपके शत्रु शक्तिहीन थे इसलिए आपका राज्य पुनः शक्तिशाली राजा के पास लौट आया।
उदयनः यह सब महाराज महासेन के प्रताप से ही हुआ है। मेरे पराजित हो जाने पर भी उन्होंने मुझसे पुत्रवत व्यवहार ही रखा। मैं उनकी कन्या को हर लाया किन्तु उसकी रक्षा नहीं कर सका, तथापि मेरे प्रति उनका आदरभाव बना हुआ है।
कंचुकीः हमारे महाराज ने यही सन्देश भिजवाया है कि वे आपका आदर करते हैं और उनके हृदय में आपके प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं है। अब देवि अंगारवती का सन्देश आर्या वसुधारा आपसे कहेंगीं।
उदयनः हे माता! देवि अंगारवती सकुशल तो हैं।
धायः वे स्वस्थ हैं और सर्वत्र आपकी कुशलता पूछती हैं।
उदयनः हा! धिक! मैं उनकी कन्या की रक्षा नहीं कर सका।
कंचुकीः धैर्य धारण करें वत्सराज! महाराज महासेन की कन्या मर कर भी नहीं मरी हैं क्योंकि आप उनका स्नेहपूर्वक स्मरण करते हैं। काल से कौन किसी की रक्षा कर सकता है? डोर के टूट जाने पर घड़े को कौन बचा सकता है? वनस्पतियों की भाँति ही मनुष्य भी समय आने पर पल्लवित होते हैं और समय आने पर कुम्हला जाते हैं।
उदयनः मैं महाराज महासेन की दुहिता, अपनी प्रिय शिष्या तथा प्रियतमा को कैसे विस्मृत कर सकता हूँ! मेरे लिए तो उनका विस्मरण जन्म-जन्मान्तर तक सम्भव नहीं है।
धायः महाराज! महिषी अंगारवती ने कहा है - यद्यपि वासवदत्ता हम सब को छोड़ कर चली गई तथापि तुम मुझे और महाराज महासेन को गोपालक और पालक की भाँति प्रिय हो। तुम हमारे मनोनीत जामाता हो। तुम्हें उज्जयिनी लाया ही गया था वासवदत्ता से तुम्हारे विवाह के उद्देश्य से। तुम हमारी इच्छा को न जान पाये और वासवदत्ता के साथ अग्नि के सात फेरे लिए बिना ही वासवदत्ता को साथ लेकर चले गए तो हमने तुम्हारा और वासवदत्ता का चित्र बनवाकर तुम दोनों का विवाह सम्पन्न किया। अब हम उसी चित्रफलक को तुम्हारे पास भेज रहे हैं जिससे कि तुम्हें सुख और शान्ति प्राप्त हो सके।
उदयनः माता का सन्देश उनकी महानता के अनुरूप ही है! मुझ अपराधी पर उन्होंने अपना स्नेह बनाए रखा है। मेरे लिए उनका यह सन्देश सौ राज्यों की प्राप्ति से भी बढ़कर है।
पद्मावतीः आर्यपुत्र! मैं आर्या वासवदत्ता के चित्र को को देखकर उनका अभिवादन करना चाहती हूँ।
धायः अवश्य भर्तृदारिके! आप वासवदत्ता के चित्र को अवश्य देखें।
पद्मावतीः (चित्र देखकर, स्वगत्) यह तो आर्या अवन्तिका के चित्र के सदृश प्रतीत हो रहा है। (प्रकट) आर्यपुत्र! क्या यह चित्र आर्या वासवदत्ता के सदृश है?
उदयनः सदृश ही नहीं, मुझे तो प्रतीत हो रहा है कि वे स्वयं मेरे समक्ष उपस्थित हैं।
पद्मावतीः मैं आर्यपुत्र के चित्र को भी देखकर निश्चय करना चाहती हूँ कि चित्रकार ने चित्र को आर्यपुत्र के सदृश ही बनाया है या नहीं।
धायः (चित्र देकर) देखें, देखें, भद्रिके!
पद्मावतीः (चित्र देखकर) इस प्रतिकृति का तो आर्यपुत्र से अच्छा सादृश्य है।
उदयनः देवि! चित्रों को देखकर आप उद्विग्न क्यों हैं?
पद्मावतीः आर्या वासवदत्ता के चित्र के सदृश एक व्यक्ति यहाँ भी है।
उदयनः वासवदत्ता के सदृश?
पद्मावतीः हाँ, आर्यपुत्र!
उदयनः तो शीघ्र उसे यहाँ बुलाओ।
पद्मावतीः विवाह के पूर्व किसी ब्राह्मण ने उसे अपनी भगिनी बता कर थाती के रूप में मुझे सौंपा था। विवाहित होने के कारण वे किसी परपुरुष के समक्ष नहीं आतीं।
उदयनः यदि वह किसी ब्राह्मण की भगिनी है तो उसे कोई अन्य ही होना चाहिए। सम्भवतः उसका रूप वासवदत्ता के सदृश हो।
प्रतिहारीः (प्रवेश करके) महाराज की जय हो। द्वार पर उज्जयिनी से आया एक ब्राह्मण उपस्थित है जो कह रहा है कि उसकी भगिनी महारानी के पास थाती है। वे अपनी भगिनी को लेने आए हैं।
पद्मावतीः आर्यपुत्र! सम्भवतः यह वही ब्राह्मण हो सकते हैं।
उदयनः (प्रतिहारी से) ब्राह्मण को शीघ्र यहाँ उपस्थित करो।
प्रतिहारीः जैसी महाराज की आज्ञा! (प्रस्थान करता है)
उदयनः (पद्मावती से) देवि! तुम भी आर्या को यहाँ बुला लो।
पद्मावतीः आर्यपुत्र की जैसी आज्ञा।
(पद्मावती का प्रस्थान)
(प्रतिहारी के साथ यौगन्धरायण का ब्राह्मण के वेष में प्रवेश)
यौगन्धरायणः (स्वगत्) आर्या वासवदत्ता को महाराज से कुछ काल तक अलग रखने में महाराज का कल्याण करना ही मेरा उद्देश्य था। मेरा कार्य अब सिद्ध हो चुका है। अब देखूँ, महाराज की प्रतिक्रया है।
प्रतिहारीः आर्य! इधर आएँ, महाराज यहाँ हैं।
यौगन्धरायणः महाराज की जय हो!
उदयनः (स्वगत्) यह स्वर तो परिचित-सा प्रतीत हो रहा है।
(पद्मावती और अवन्तिका के वेष वासवदत्ता का प्रवेश)
पद्मावतीः आएँ आर्ये! आएँ! आपके लिए प्रिय संवाद है!
वासवदत्ताः वह क्या?
पद्मावतीः आपके भ्राता आपको लेने आए हैं।
वासवदत्ताः यह मेरा सौभाग्य है कि उन्होंने मेरा स्मरण किया।
पद्मावतीः आर्यपुत्र, यही आर्या ही वह थाती हैं।
उदयनः देवि! थाती लौटा दो। सौभाग्य से यहाँ रैभ्य और आर्या वसुधारा थाती लौटाने के साक्षी के रूप में उपस्थित हैं।
पद्मावतीः (यौगन्धरायण से) आर्य! मैं आपकी भगिनी आपको लौटा रही हूँ।
धायः (अवन्तिका को ध्या से देखकर) यह क्या? यह तो राजकुमारी वासवदत्ता हैं।
उदयनः क्या? अवन्तिनरेश की पुत्री? तो देवि तुम पद्मावती के साथ अन्तःपुर में प्रवेश करो।
यौगन्धरायणः नहीं नहीं। आप उन्हें अन्तःपुर में प्रवेश की आज्ञा न दीजिए, वे मेरी भगिनी हैं। आप भरत के कुल में उत्पन्न ज्ञानवान राजा हैं, राजधर्म के ज्ञाता हैं, आप बलपूर्वक मेरी भगिनी का हरण क्यों कर रहे हैं।
उदयनः तब मुझे रूपसादृश्य देखना होगा। देवि! किंचित यवनिका हटा दो।
यौगन्धरायणः स्वामी की जय हो!
वासवदत्ताः आर्यपुत्र की जय हो!
उदयनः अरे! यह तो यौगन्धरायण हैं और यह देवि वासवदत्ता! यह सत्य है अथवा मैं स्वप्न देख रहा हूँ? पूर्व में भी मैंने एक बार स्वप्न में देवि वासवदत्ता को देखा था।
यौगन्धरायणः महाराज, आर्या वासवदत्ता को आपसे अलग करने का मैं अपराधी हूँ। किन्तु मैंने यह अपराध महाराज और राज्य के कल्याण के उद्देश्य से किया है अतः मेरा अपराध क्षमा करें।
उदयनः आर्य यौगन्धरायण! आपके ही यत्न से इस डूबते हुए राज्य की रक्षा हुई है। आप अपराधी कदापि नही हैं।
पद्मावतीः (वासवदत्ता के चरणों में गिरकर) आर्ये आपके साथ सखी-भाव से व्यहार करके मैंने अपराध किया है। यह अपराध मुझसे अनजाने में हुआ है अतः मुझे क्षमा करें।
वासवदत्ताः (पद्मावती को उठाते हुए) उठो सुहागन! उठो! तुमसे कोई अपराध नहीं हुआ है।
पद्मावतीः अनुग्रहीत हुई।
उदयनः आर्य यौगन्धरायण देवि वासवदत्ता को मुझसे अलग करने में तो आपका उद्देश्य राज्य का कल्याण था किन्तु उन्हें देवि पद्मावती के आश्रय में रखने से आपका क्या तात्पर्य था?
यौगन्धरायणः पुष्पकभद्र और दैवचिन्तक आदि ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि आर्या पद्मावती आपकी रानी बनेंगी, इसीलिए मैंने आर्या वासवदत्ता को उनके सानिध्य में रखा।
उदयनः क्या यह सब रुम्णवान् को भी ज्ञात था?
यौगन्धरायणः महाराज, यह तो समस्त विश्वस्त अमात्यों को ज्ञात था।
उदयनः ओह, रुम्णवान तो बहुत बड़ा शठ है।
यौगन्धरायणः स्वामी! इस शुभ समाचार को महाराज महासेन तक पहुँचाने के लिए आर्य रैभ्य और आर्या वसुधारा को आज ही लौटने की आज्ञा दें।
उदयनः नहीं, नहीं, देवी पद्मावती और देवि वासवदत्ता सहित हम सब महाराज महासेन के समक्ष उपस्थित होंगे।
यौगन्धरायणः जैसी महाराज की आज्ञा! मेरा आशीर्वाद है कि हिमालय और विन्ध्याचल की भाँति अलंकारों से अलंकृत इस ससागरा पृथ्वी का आप सिंहवत् शासन करें।
(सब का प्रस्थान)
(अंक 6 समाप्त)
3 comments:
अच्छी श्रृंखला चल रही है !
यह किस्सा भी बेशर्म भारतीय राजनीति में निर्लज्जता का ही अध्याय है
बहुत सुंदर श्रृंखला जी धन्यवाद
बहुत सुन्दर ,,,,,असंख्यो धन्यवादो
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