Wednesday, October 13, 2010

चोरों का अद्भुत मेला

लेखक – आचार्य चतुरसेन

मेरठ, मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर, बिजनौर के जिले और उसके आसपास का इलाका उन दिनों गूजरवाड़ा के नाम से विख्यात था। इसका दूसरा नाम चोरों का इलाका भी था क्योंकि वास्तव में यह चोरो् और डाकुओं का गढ़ था। इस भू-भाग पर राजा, नवाब, जमींदार और रियाया जो भी थी, सभी का मुख्य पेशा चोरी या राहजनी था। यह चोरी विविध प्रकार की होती थी। जानवरों की चोरी, नकबज़नी, डाके, राहजनी और इसी किस्म की दूसरी वारदातें। मुज़फ्फरनगर के नवाब इकरामुल्ला खां इन चोरों और डाकुओं के सबसे बड़े मुखिया और सरदार थे। उनकी रियासत में पाँच गाँव उनके थे। ये सब मशहूर चोरों के गाँव थे। मुज़फ्फरनगर में उनकी गढ़ी थी – हवेली थी, जहाँ खुद नवाब साहब रहते थे।

मुज़फ्फरनगर आज तो एक सम्पन्न जिला है, जिले का सदर मुकाम है, अच्छा-खासा शहर है। अनाज और गुड़ की वहाँ बड़ी भारी मण्डी है, मगर उन दिनों वह महज एक गाँव था, जहाँ पक्की हवेली केवल नवाब साहब की ही थी, जो दुमंजिला थी। उसके चारों ओर बहुत-सी जमीन घेरकर कच्ची मिट्टी का एक बहुत मोटा परकोटा बना था – जो गढ़ी कहाता था। इसके भीतर नवाब के जानवर, जिसकी संख्या हजारों में होती थी और जो प्रायः दूर-दूर से चोरी करके लाए जाते थे, रखे जाते थे। इन जानवरों में एक से एक बढ़कर घोड़े, उम्दा नस्ल की घोड़ियाँ, नागौरी और हरियाने के बैल, गायें, भैसें आदि होती थीं। गढ़ी के भीतर ही नवाब साहब के शागिर्द पेशा लोग रहते थे, जो नवाब साहब के अत्यन्त विश्वस्त नामी-गिरामी चोर होते थे, और बड़े-बड़े साहसिक अभियान करते थे। उनके कच्चे-पक्के छोटे-बड़े घर बेतरतीब से नवाब साहब की हवेली के चारों ओर फैले हुए थे। नवाब साहब के पाँचों गाँवों की सब जमीन भी ये शागिर्द पेशा लोग ही जोतते-बोते थे। इन शागिर्द पेशा लोगों में नामोगिरामी चोर तो होते ही थे – खोजी भी ऐसे  मार्के के थे – कि चोरी का पता लगाने में यकता थे। चोर का जरा सा सुराग मिल जाए, कहीं उसके पैर का निशान, हाथ की छाप, उसके कपड़े का टुकड़ा या ऐसी ही कोई चीज, तो उसी के सहारे वे पचास-पचास मील में चोर का पता लगा लेते थे। कोई अजीब विद्या थी इन लोगों की, और वे आसपास में दूर-दूर तक मशहूर थे, तथा दूर-दूर के रईस जमींदार – जब उनके घर चोरी होती थी – नवाब साहब के खोजियों का सहारा लेते थे। नवाब साहब में एक करामात दाद देने के काबिल यह थी कि उनके यहाँ चाहे जितना भी कीमती माल चोरी का आ गया हो, यदि माल का स्वामी नवाब की ड्यौड़ी पर आ गया तो उसे वापस कर देते थे। वापस करने का ढंग शानदार होता था। असल बात यह थी कि नवाब मुज़फ्फरनगर के सभी ठाठ, सभी ढंग निराले होते थे। उन बातों को यद्यपि अभी सौ ही वर्ष बीते हैं, पर वे सब बातें ऐसी गायब हो गई हैं कि उनपर आज मुश्किल से विश्वास किया जा सकता है। हाँ इतना जरूर है कि गूजरवाड़े का यह इलाका आज भी नामी-गिरामी चोरों का इलाका है।

मुज़फ्फरनगर में हर दीवाली को चोरों का मेला लगता था। मेला बड़ी धूम-धाम का होता था। मेले में गूजरवाड़े के छोटे-बड़े चोर इकट्ठे होते थे। यह मेला एक सप्ताह तक लगता था। जैसे होली के बाद मेरठ की नौचन्दी की धूम थी वैसी ही मुज़फ्फरनगर के इन चोरों के मेले की थी जो दीवाली का मेला कहाता था। इस मेले में हजारों चोर इकट्ठे होते थे। इनमें से बहुत से तो बड़े भारी नामी-गिरामी चोर होते थे। इन सब चोरों को आठ दिन तक नवाब के लंगर में खाना मिलता था। नवाब की गढ़ी ही नहीं, हवेली तक उनके स्वागत में आठ दिन तक खुली रहती थी। हकीकत तो यह थी, कि ये गूजरवाड़े के चोर नवाब साहब को केवल अपना सरदार  ही नहीं मानते थे, वे उन्हें पीर-औलिया-गुरु, जो कहिए, मानते थे। मेले में जब ये चोर आते तो हर एक छोटा-बड़ा चोर अपनी औकात के अनुसार भेंट-सौगात नवाब की नज़र करता था। खासकर नये-नौसिखिए चोर तो अधिक श्रद्धा से नज़र गुजार कर नवाब के मुरीद बनते, और यहाँ से लौटकर अपने चोरी के पेशे का श्रीगणेश करते थे। इन चोरों की एक पारिभाषिक भाषा होती थी, कुछ गूढ़ संकेत होते थे नकबज़नी के, गला काटने के, चुराए हुए पशु का रूप-रंग बदलने के बड़े-बड़े विचित्र गुप्त तरीके होते थे जो नये शागिर्दों को तभी बताए जाते थे, जब वे बाकायदा नज़र-भेंट देकर नवाब साहब के मुरीद बन जाते थे। फिर इनसे किसी बात का दुराव-छिपाव नहीं होता था।

बड़े-बड़े चोर अपने नये-नये हथकण्डे, नई-नई आविष्कृत नीतियाँ – चोरी और नकबज़नी  की – दूसरों को बताते थे। मेले में परस्पर ऐसी बातें आम चर्चा का विषय होती थीं। इन आगन्तुक चोरों में भी जो नामी-गिरामी होते थे, वे बहुधा जत्थाबन्द होते थे, इसका मतलब यह था कि उनके शागिर्द पेशा लोगों की भी एक जमात होती थी, और वे अपनी जमात के साथ धूमधाम से मेले में आते थे। परन्तु ये सब जीवट के चोरों के सरदार भी नवाब साहब को अपना उस्ताद मानते थे और उन्हें नज़र-भेंट करते थे। वे चोरी करने के नये-नये गुर नवाब साहब को बताते और जो चोरी की नई-नई विधियाँ, नकबज़नी की रीतियाँ वे आविष्कृत करते, वे नवाब साहब से कहते। मेले के अन्त में नवाब साहब ऐसे लोगों को भारी-भारी इनाम-इकराम देते थे।

मेले में बहुत से भांड, बाजीगर, सपेरे, जनखे, रंडियाँ और कलावन्त आते। वे अपने करतब चोरों को दिखाकर इनाम-इकराम लेते, गाने-बजाने, मुज़रे-जल्सों की धूम रहती। गरज, आठ दिन मुज़फ्फरनगर में मेले की वह धूमधाम होती कि जिसका नाम! आखिरी दिन नवाब साहब का दरबार होता, जिसमें सब रंडियाँ, कलावन्त आते, रात भर गाना-बजाना, मुज़रा होता और दिनभर भाँति-भाँति के तमाशे होते। तब नवाब साहब सबको इनाम-इकराम देकर विदा करते। मगर चोरों के इस अद्भुत मेले में, जो एक सबसे ज्यादा अद्भुत बात होती थी वह यह कि किसी की एक सुई भी चोरी नहीं होती थी।

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास “सोना और खून” का अंश)

9 comments:

M VERMA said...

सुन्दर अंश ..

anshumala said...

अच्छा हुआ की आप ने साफ लिखा दिया है की ये

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास “सोना और खून” का अंश)

है नहीं तो यहाँ के रहने वाले आप पर नाराज हो जाते वैसे वो नाराज तो अब भी हो रहे होंगे |

क्या कहू अच्छी या मजेदार जानकारी |

समयचक्र said...

बहुत ही रोचक लेख लगा ... आभार

Unknown said...

ek tarah se gujarwada chor bishw bidyalay tha jahan se choro ko traning dekar kushal chor bnaya jata tha .
arganik bhagyoday ,blogspot.com

Unknown said...

anshumala

आचार्य चतुरसेन जी का मन्तव्य सिर्फ शोध कर के आज से डेढ़-दो सौ साल पहले के काल में रहन-सहन, आचार-विचार, रीति-रिवाज, बोल-चाल आदि के विषय में जानकारी देना ही है न कि किसी क्षेत्र विशेष के लोगों की अच्छाई या बुराई करना। अभी यह कथा जारी है और आगे पढ़ने से आपको पता लगेगा कि उन्हीं पात्रों का आचार्य जी ने इतना सुन्दर चरित्र-चित्रण किया है कि वे अच्छाइयों की सीमा को छूने लगते हैं।

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर अंश प्रस्तुत किया।

Rahul Singh said...

'बंटी चोर' को आपने आमंत्रित किया या नहीं.

Udan Tashtari said...

आभार इस प्रस्तुति का.

Gyan Darpan said...

बढ़िया प्रस्तुती |
हमारे यहाँ भी एक बावरी जाति होती है जिनका पेशा भी चोरी व चोकिदारी था | दरअसल इस जाति के लोग भी चोरी में प्रवीण थे इसलिए गांव वाले इस जाति के लोगों को ही गांव की सुरक्षा का जिम्मा दे दिया करते थे ताकि वे न खुद चोरी कर पायें व न अपने किसी रिश्तेदार को चोरी करने दें |
मजे की बात है कि ये भी बहुत अच्छे खोजी होते थे , पैरों के निशान से चोर तक पहुँच जाते थे | बचपन में गांव में हुई चोरियों के चोरों को गांव के मोहन बावरी द्वारा पकडवाते कई बार देखा था | गांव में पशु खोने पर भी ये बावरी लोग ही उस पशु के पैरों के निशान से पीछा कर पशु तलाश लाते थे |