Monday, March 28, 2011

क्या मेलॉडी मर चुकी है?

आज जिसे भी देखो 'बीट्स', 'रीदम' आदि का दीवाना है। गाने वाला क्या गा रहा है यह समझ में आए या न आए, गीत के बोल का कुछ अर्थ निकले या न निकले पर पाँव और पूरा शरीर थिरकना ही चाहिए। आवाज में मधुरता हो या न हो, भले ही कान ऊँची आवाज से बहरे हो रहे हों, सर शोर से फटा जा रहा हो पर ध्वनि का तीव्र होना आवश्यक है। शोर ही संगीत का पर्याय बन गया है।

पर इस बात को अभी बहुत दिन नहीं बीते हैं कि बीट्स के साथ शरीर थिरकने के स्थान पर मेलॉडी के साथ आत्मा थिरकती थी। सामान्य भारतीय वाद्ययंत्रो की मधुर धुनों के साथ "चली कौन से देश गुजरिया तू सजधज के, जाऊँ पिया के देश ओ रसिया मैं सजधज के..." जैसे बोल सुनकर मन-मस्तिष्क आह्लादित हो उठते थे। "के मर के भी किसी को याद आएँगे, किसी की आँसुओं में मुस्कुराएँगे" सुनकर आँखें नम हो जाती थीं। "चल उड़ जा रे पंछी के अब ये देश हुआ बेगाना" सुनकर लगने लगता था कि आत्मा ही वह पंछी है जिसके लिए यह संसाररूपी देश पराया हो चुका है और आत्मा को संसार छोड़ कर जाना पड़ रहा है। जहाँ "साँस तेरी मदिर-मदिर जैसे रजनीगंधा, प्यार तेरा मधुर मधुर चाँदनी की गंगा" सुनकर हृदय संयोग श्रृंगार रस के सागर में डूब जाता था तो "तुम बिन जीवन कैसा जीवन" सुनते ही वही हृदय वियोग श्रृंगार रस के दरिया में गोते लगाने लगता था।

तब फिल्मी गानों में बोल हुआ करते थे, मेलॉडी हुआ करती थी, मेजर कार्ड्स और माइनर कार्ड्स की हॉरमोनी उस मेलॉडी को और भी मधुर रूप दे दिया करती थी। आज कहाँ गई वो मेलॉडी? क्या मर चुकी है मेलॉडी?

ऐसा माना जाता है कि मेलॉडी भारतीय संगीत की आत्मा है। और ज्ञानियों ने हमें बताया है कि आत्मा अमर है, कभी मरती नहीं है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं:

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥


(इस आत्माको शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सोख नहीं सकता।)

तो फिर भारतीय संगीत की आत्मा मेलॉडी मर कैसे सकती है?

पर लगता है कि ज्ञान भी अब शाश्वत नहीं रह गया है। समय के साथ हर चीज बदल चुकी है और आत्मा अमर होने के स्थान पर नश्वर हो चुकी है।

नेता हैं पर जनता का ही रक्त चूस रहे हैं और राष्ट्र तक को बेच खा रहे हैं। कहाँ गई उनकी आत्मा?

व्यापारी है किन्तु व्यापार के नाम से ग्राहकों को लूट रहे हैं; उचित मुनाफा लेकर जीवनयापन करने के बदले ग्राहकों को लूट-लूट कर तिजोरी भरना ही उनका उद्देश्य बन गया है? कहाँ गई उनकी आत्मा?

चिकित्सक हैं किन्तु सिर्फ उन्हीं की चिकित्सा करते हैं जो बदले में मोटी रकम दे सके; गरीब चिकित्सा के बिना मर रहे हैं। कहाँ गई उनकी आत्मा?

शिक्षा संस्थान हैं किन्तु विद्या का दान नहीं व्यापार कर रहे हैं। कहाँ गई उनकी आत्मा?

कविताएँ हैं किन्तु काव्यात्मक विकलता नहीं है; क्रौञ्च वध से उत्पन्न करुणा नहीं है। कहाँ गई कविता की आत्मा?

संगीत है किन्तु मेलॉडी नहीं है; शोर-शराबा संगीत ही का पर्याय बन गया है। कहाँ गई संगीत की आत्मा?

इस पोस्ट को पढ़कर आप भी सोच रहे होंगे कि क्या बकवास कर रहा हूँ मैं भी पर क्या करूँ पुराने लोगों को सदैव ही अतीत अच्छा और वर्तमान बहुत बुरा प्रतीत होते रहा है और नये लोगों को पुराने लोग पुराने लोग दकियानूस। यही तो मानव प्रकृति है।

8 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

अवधिया साहब, लोग कहते है हम प्रगति कर रहे है !

Unknown said...

अच्छा लिखा है. बधाई
समय हो तो मेरा ब्लॉग भी देखें
महिलाओं के बारे में कुछ और ‘महान’ कथन

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

समय चक्र चलता रहता है ..बहुत कुछ बदलता है ...फिर आएगा वो दौर जिनमे आतमा का निवास होगा ..

प्रवीण पाण्डेय said...

जब आत्मा निकल जायेगी तब शरीर का आचार डालेंगे ये सब।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

आप भी गंजों के शहर में कंघी बेच रहे हैं. काहे की आत्मा...

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

जैसे fad व फ़ैशन में अंतर होता है वैसे ही मैलोडी व बीट में भी होता है....

Khushdeep Sehgal said...

अवधिया जी,
काहे दिल पे लेते हैं...मेरी तरह नए संगीतकारों के लिए आप भी गाइए न...

तौबा तेरा जलवा,
तौबा तेरा प्यार,
तेरा इमोसनल अत्याचार...

जय हिंद...

anshumala said...

समय के साथ चीजे बदलती रहती है आज के युवा को यही पसंद है | एक समय जब आर डी बर्मन अपना पश्चिमी संगीत ले कर फिल्मो में आये होंगे तब भी उनका विरोध किया गया होगा पर वो लोगो द्वारा पसंद किये गए और आज भी लोगो द्वारा पसंद किया जाते है |