Thursday, October 18, 2007

हाल्ट! हुकम सदर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कहानी)

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सुजान सिंह राम सिंह को अपने साथ शहर में ले आया। प्रेमा भी साथ ही वापस आई। रामसिंह की माता और भाई को जब सुजान सिंह ने सूचित किया कि वे अपनी पुत्री को उनकी बहू बनाना चाहते हैं तब उन दोनों की खुशी का ठिकाना न रहा। लेन-देन की कल्पना तक से दोनों पक्षों को हृदय से चिढ़ थी ‍- घृणा थी।

अब प्रेमा और रामसिंह को एक साथ रहने का अवसर मिला। जैसे अशान्त सागर की क्षुब्ध लहरें शान्त हो जावें और अथाह जल स्पष्ट ही झलकने लगे वैसे ही उन दोनों के प्रेम के उफान में गहरी शान्ति भीतर ही भीतर गम्भीर हो गई। और दोनों की मुद्रा और हाव-भाव में उनकी गम्भीरता स्पष्ट ही प्रकट हो रही थी। किन्तु प्रेमा और रामसिंह अधिक समय तक एक साथ एक ही घर में नहीं रह सके। रामसिंह को अलग एक क्वार्टर में रहना पड़ा क्योंकि सुजान सिंह ने उस पुलिस की नौकरी दिलाने का प्रबन्ध जो कर दिया था।

स्वाभाविक ही है कि जो जिस व्यसाय या नौकरी में होता है वह उसे ही उत्तम समझता है और उसकी हार्दिक कामना होती है कि उसकी सन्तान तथा आत्मीय रिश्तेदार भी सरलता से उसी में लग जावें। यही दशा सुजान सिंह की भी थी। उन्होंने सोचा रामसिंह भी उसी विभाग में काम कर ले तो अच्छा होगा जिसमे वे स्वयं नौकर थे। रामसिंह भी पढ़ने-लिखने के मामले में बड़ा शून्य था। सुजान सिंह के प्रयत्न से रामसिंह रंगरूटों में भर्ती कर लिया गया और उसके रहने के लिये अलग क्वार्टर का प्रबन्ध हो गया।

रामसिंह के कुछ दिन परेड की कठोरता और पुलिस कार्य के अध्ययन की बारीकी में बीते। यह समय उसके लिये कड़े से कड़े परिश्रम का था। परिश्रम की कठोरता में प्रेमा के लिये उसके हृदय में रहने वाली कोमल भावनायें प्रायः सुप्त सी रहीं। उधर प्रेमा आकुल सी मन मसोस कर रह जाती थी। जब कभी उसका युवा मन भड़क उठता था तब वह धीरज की लोरी सुना सुना कर सुलाने के प्रयत्न में अशान्त हो जाती थी। फिर भी दोनों के हृदय में सन्तोष था कि विवाह बन्धन में बँध कर वे शीघ्र ही एक हो जावेंगे। सुजान सिंह ने भी निश्चय कर लिया था कि पक्के ढंग से नौकरी मिल जाने पर ही वे रामसिंह के साथ प्रेमा का ब्याह करेंगे।

और रामसिंह की नौकरी पक्की हो गई। मुहूर्त आया और प्रेमा के साथ उसका ब्याह हो गया। दोनों ऐसे सुखी थे मानो स्वर्ग का साम्राज्य ही उन्हें मिल गया हो। विवाह के बाद के प्रथम कुछ दिन श्रृंगार विलास के होते ही हैं। प्रेमा की सभी सुषुप्त भावनायें उभार की चोटी की ओर कदम कदम बढ़ती जा रही थीं। किन्तु गार्हस्थ्य जीवन के केवल बारह दिनों के बाद ही रामसिंह का एक गाँव में तबादला हो गया। कठोर कर्तव्य से भरी हुई पुलिस की नौकरी जो ठहरी। प्रेमा ऐसे सूख गई जैसे दो दिनों की रिमझिम बरसात से लहलहाई हुई लता बाद में पड़ने वाली तीखी गर्मी से झुलस जाती है। सुजान सिंह की चिन्ता भी घबरा उठी। उसके प्रबन्ध के अनुसार रामसिंह तो गाँव के थाने चला गया पर आहों से भरी गरम श्वाँस लिये प्रेमा घर में ही रह गई क्योंकि सुजान सिंह शीघ्र ही अपने दामाद रामसिंह की बदली गाँव से अपने शहर में कराने के प्रयत्न में एड़ी-चोटी का पसीना एक करने लगे थे। उनके प्रयत्न का परिणाम सामने आया भी। सुजान सिंह को कप्तान साहब ने आश्वासन दिया कि रामसिंह फिर शहर बुला लिया जावेगा। अतः प्रश्न ही नहीं उठा कि प्रेमा गाँव जाकर रामसिंह के साथ रहे।

प्रेमा को रामसिंह का वियोग बहुत ही खलता था। उसकी सहेलियाँ अब भी उससे मिलती थी, एक-दो बार वह उनके साथ सिनेमा भी देखने गई पर इससे उसके मन की अशान्ति गई नहीं उल्टे कुछ अधिक ही हो गई।

पन्द्रह दिनों के प्रयत्न के बाद सोलहवें दिन सुजान सिंह ने प्रेमा को सबेरे बताया कि आज शाम रामसिंह वापस आ रहा है - वह शहर में ही तैनात कर दिया गया है। सुन कर प्रेमा के हृदय में आनन्द का उफान बड़े वेग से उमड़ उठा पर पिता के सामने वह शान्त सी बनी रही। सुजान सिंह बाहर चले गये।

दिन का एक एक पल प्रेमा के लिये पहाड़-सा बीत रहा था। कभी वह शिथिल होकर लेट जाती तो कभी अंगड़ाई लेकर उठती और कमरे में बड़ी बेचैनी से टहलने लगती। उसे ऐसा लग रहा था कि आज शाम होगी ही नहीं। उसका एक एक अंग टूटता हुआ-सा मालूम हो रहा था। बीसों बार वह घड़ी देख चुकी थी कि कब शाम हो।

और शाम को लगभग साढ़े छः बजे सुजान सिंह अकेले ही घर आये। आते ही प्रेमा से बोले, "बेटी, रामसिंह गाँव से वापस आ तो गया है पर खजाने में बहुत ही जरूरी काम पड़ जाने से वह रात वहीं रहेगा और सबेर ही घर आयेगा। पुलिस की नौकरी ऐसी है जिसमें घर की ममता के लिये कोई स्थान नहीं।" सुन कर प्रेमा चुप रही पर उसकी आँखों के आगे अंधेरा सा छा रहा था। मन मार कर वह घर के कामों में लग गई। भोजन कर लगभग साढ़े नौ बजे सुजान सिंह अपनी ड्यूटी पर चले गये। घर में रह गई अकेली प्रेमा।

प्रेमा पलंग पर लेटी हुई थी पर उसकी आँखों में नींद के बदले अनमना जागरण और जलन थी। उसके विचारों में बवण्डर उठ रहा था। तालाब के पास ही जल से बाहर रह कर मछली तड़पती रहे तो उसकी आकुलता का क्या ठिकाना। रात का कुछ भाग प्रेमा ने आँखों में ही काटा और तभी उसने घड़ी देखी जो रात के साढ़े ग्यारह बजा चुकी थी। उसके मन में तीव्रतम भावना आई कि क्यों न अभी ही पति से मिल कर दो बातें ही कर ली जाय। वे खजाने में ही तो हैं और खजाना घर से केवल दो-तीन सो गज की दूरी पर ही तो है। इस भावना के पैनेपन के सामने प्रेमा का विवेक जवाब दे गया। वह चुपचाप उठी और सावधानी से घर के सब दरवाजे बंद कर बाहर सड़क पर थी - खजाने की ओर। उसकी आतुरता और सहनशीलता का अभाव उसे खींचे लिये जा रहा था। एक बार उसके मन में यह विचार अवश्य ही उठा कि कहीं रामसिंह के साथ दूसरे लोग भी हुये तो। लतो क्या - क्या वह अपने पति को उनसे अलग बुलाकर बात भी करने का अधिकार नहीं रखती। दूसरा विचार यह भी आया कि कहीं इसी बीच पिता जी घर आ गये तो। उसे घर में न पाकर क्या समझेंगे। किन्तु रात ड्यूटी में आज तक तो बीच में वे घर कभी नहीं आये - आज कैसे आ जावेंगे। प्रेमा मिलन की उत्कट अभिलाषा की आंधी में उड़ती हुई कदम कदम खजाने की इमारत की ओर जा रही थी।

यद्यपि चाँदनी रात थी तो भी चौथ की तिथि होने के कारण चन्द्रमा पश्चिमी क्षितज में अस्त हो चुका था। सब ओर एक धुंधलापन छाया हुआ था जिसमें चीजें और आकृति दीख तो जाती थीं पर एकाएक पहचानी नहीं जा सकती थीं। प्रेमा कपड़े में सिमटी हुई मुँह पर घूँघट डाली हुई थी। अब वह खजाने से केवल पचास गज ही दूर थी। उसके मन में विचारों का मेला सा लगा हुआ था। 'मुझे देखकर वे कितने खुश होंगे......"

"हाल्ट! हुकम सदर"

पहरेदार की कर्कश ध्वनि करक उठी पर प्रेमा के लिये वह दूर से आती हुई गड़गड़ाहट से अधिक मतलब नहीं रखती थी। न वह उसका मतलब ही समझती थी और न उसके कदम ही रुके। पहरेदार भी नहीं जानता था कि ये शब्द अशुद्ध हैं और 'हाल्ट! हू कम्स देयर!' (रुको! कौन आ रहा है!) के स्थान पर वह कह रहा है 'हाल्ट! हुकुम सदर' - जिसका मतलब वह इस तरह से समझता था कि 'सदर का हुकुम है कि रुक जावो।' इधर प्रेमा की आँखों के सामने उसकी कल्पना के पर्दे पर रामसिंह की सौम्य मूर्ति उसे बुलाती सी दिख रही थी। 'मैं कमरे की खिड़की के बाहर से झाँक कर देखूँगी। मुझे देखे ही उनकी खुशी आसमान छूने लगेगी।' विचारों का प्रवाह और प्रेमा सुध-बुध के साथ प्रायः अपने आपको भी भूलती सी जा रही थी।

"हाल्ट! हुकुम सदर"

दूसरी बार की चेतावनी थी और अबकी बार पहरेदार का हाथ बन्दूक सम्भाल चुका था। पर प्रेमा को इसका ध्यान ही कब था। उसने फिर कदम बढ़ाये और तीसरी बार "हाल्ट! हुकुम सदर" के साथ ही 'धाँय' के साथ बन्दूक से छर्रे की गोलियाँ सनसनाती हुई आईं और प्रेमा के पैरों में लगीं। वह चीख कर गिर पड़ी और सामने पड़े हुये बड़े से पत्थर पर उसका सिर टकरा कर फट गया - खून का फव्वारा चलने लगा।

"प्रेमा.......!" चीखकर पहरेदार उससे लिपट गया। वह और कोई नहीं रामसिंह ही था। उस दिन खजाने में पहरे पर रहने वाला सिपाही ठीक उसी समय अनिवार्य काम से छुट्टी लेकर चला गया था जिस समय रामसिंह गाँव से वापस आया और दूसरे आदमी के अभाव में प्रबन्ध किया गया था कि आज रात खजाने के पहरे पर रामसिंह की ड्यूटी रहे।

प्रेमा का गला रुंध गया था। शारीरिक और मानसिक आघात सहन करना असम्भव था। उसकी आँखों की टकटकी रामसिंह के चेहरे पर लग गई। ओंठ कुछ कहने के लिये कष्ट से फड़क-फड़क कर रह गये - प्रेमा ने दम तोड़ दिया।

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वही खजाने की इमारत है। पास का वही पेड़ - पेड़ के पास वही पत्थर दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है। संसार का काम ज्यों का त्यों चल रहा है पर उस पत्थर पर एक आदमी दिन भर बैठा रहता है। उसे न किसी से मतलब है और न वह किसी कुछ बोलता ही है। रात को पास ही लेट जाता है। सिर के बाल बेहद बढ़ गये हैं। दाढ़ी-मूँछ अस्त-व्यस्त रूप से बढ़ गई है। फटे कपड़े। मैला शरीर। वीभत्स हाव-भाव। कभी खिलखिला कर हँस उठता है तो कभी आर्तनाद कर रो पड़ता है। बीच बीच में फटे स्वर से चिल्ला उठता है - 'हाल्ट! हुकुम सदर"। बड़ी कठिनाई से पहचाना जा सकता है कि वह अभागा रामसिंह ही है।

(तीन किश्तों में से अंतिम किश्त)

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