(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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उषा बम्बई नहीं गई। महेन्द्र के अनुरोध पर वह सबके साथ खुड़मुड़ी चली आई। वहाँ का नैसर्गिक दृश्य उसे बहुत ही पसन्द आया। उषा के कारण श्यामवती को भी खुड़मुड़ी में ही रुक जाना पड़ा। उषा ने उन लोगों को और भी बताया कि वह घरेलू जीवन से ऊब कर बम्बई जा रही थी। वहाँ से वह किसी क्रान्तिकारी दल में शामिल होने वाली थी। ऐसा करने से उसे देश-सेवा का अवसर मिलेगा और पकड़ी गई तो फाँसी के तख्ते पर लटका दी जावेगी या पिस्तौल से उड़ा दी जावेगी। इससे उसके जीवन का अन्त तो हो सकेगा जिससे वह ऊब चुकी थी। और जीवन का वह अन्त भव्य और गौरवपूर्ण भी तो होगा। किन्तु रायपुर में अचानक ही महेन्द्र के मिल जाने और बम्बई न जाकर वहीं रह जाने का श्यामवती के द्वारा आग्रह करने पर उषा को एक बहुत बड़ा सहारा मिल गया था। उसके हृदय में एक लालसा और भी प्रबल हो रही थी कि वह श्यामवती को किसी प्रकार से महेन्द्र का साथ ब्याह करने के लिये राजी कर ले जिससे महेन्द्र का जीवन तो सुखी हो जावे।
सुबह का समय था। श्यामवती और उषा खुड़मुड़ी के तालाब में नहा रही थीं। वहाँ से रास्ते का बहुत दूर तक का भाग स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उस पर इक्की-दुक्की बैलगाड़ियाँ चल रही थीं जिससे कुछ देर के लिये धूल उड़ कर शान्त हो जाती थी। रास्ते के दोनों ओर धान के इस देश में धान के पौधे लहरा रहे थे। तालाब के किनारे के पेड़ों पर पक्षी कलरव कर रहे थे। आकाश एकदम स्वच्छ और नीला था। सूर्य चमचमा रहा था। स्नान कर किनारे खड़ी श्यामवती सड़क की ओर दूर तक आँखें लगाये देख रही थी। उसने दूर पर किसी को सायकल से आते देखा। सायकल कुछ नजदीक आने पर यह देख कर वह अचरज में डूब गई कि कोई स्त्री सायकल चलाती आ रही है। उसने उषा को भी दिखाया। जब सायकल इतनी दूर रह गई कि सायकल चलाने वाली पहचानी जा सके तब उन दोनों ने देखा कि वह जानकी थी। तालाब के पास आ कर और उषा तथा श्यामा को देख कर जानकी सायकल से उतर गई।
श्यामवती ने पूछा, "भाभी, क्या बात है? अकेली आई हो। भैया नहीं आये?"
"कोई विशेष बात नहीं है। चन्दखुरी में सब कुशल है। मैं सिकोला जा रही हूँ तुम भी तो जल्दी ही आवोगी न?" जानकी ने कहा।
"आउँगी क्या - मैं तुम्हारे साथ ही चल रही हूँ लेकिन यह तो बताओ कि तुमने सायकल चलाना कब सीख लिया?" श्यामा बोली।
जानकी हँस दी और बोली, "यह तो मैंने आसाम में छुटपन में ही सीख लिया था।"
"मैं भी तुम लोगों के साथ चलूँगी।" उषा ने कहा
"नहीं, अभी तुम्हें यहीं रहना होगा। तुम उनकी मेहमान पहले हो, फिर हमारी।" श्यामवती ने उषा को रोकने की नीयत से कहा।
"लेकिन महेन्द्र बाबू को अपने जाने की सूचना तो दे दो।"
"उन्हें तुम बता देना।" कह कर श्यामा जानकी के साथ सिकोला रवाना हो गई। बात यह थी कि श्यामवती स्वयं ही खुड़मुड़ी से जाना चाहती थी पर उषा ने उसे रोक रखा था। इसलिये इस सुनहरे अवसर का लाभ उसने उठा लिया। सिकोला में पहुँच कर भोजन कर लेने के बाद जानकी ने श्यामवती के हाथ में एक अखबार देकर कहा, "मेरे यहाँ आने का कारण यह है।" श्यामवती ने उसे पढ़ा। एक स्थान पर छपा था कि 'टाटानगर में एक मजदूर को भट्ठी में झोंक कर उसकी हत्या कर देने वाला भोला नामक व्यक्ति मुगलसराय में उस समय पकड़ा गया जब वह एक स्त्री के गहने चुरा कर भाग रहा था। उसे हत्या के आरोप में काले पानी की सजा हो गई। वह अण्डमान भेज दिया गया।' श्यामवती कुछ देर तक हाथ में अखबार लिये बैठी रही। उसके हृदय में न उथल-पुथल ही मची और न उद्विग्नता ही हुई। भोला के साथ बीती हुई घड़ियाँ अवश्य ही एक बार याद आ गईं। यह सूचना दुर्गाप्रसाद को तुरन्त दे दी गई। उसे मार्मिक आघात पहुँचा - आखिर वह भोला का पिता था और भोला उसके हृदय का टुकड़ा। राजो को लगा कि जिस बन्धन से उसने श्यामवती को बाँध कर उसने उसके जीवन में घोर अन्धकार भर दिया था वह बन्धन टूटा तो नहीं पर उसकी कड़ियाँ एकदम खोखली पड़ गई हैं।
इधर उषा ने जब महेन्द्र को बताया कि श्यामा सिकोला चली गई तब वह झुँझला उठा और बोला, "जाने दो। उस पर मेरा क्या वश है। लेकिन मुझे बता कर तो जाना था। पर वह ऐसा करती ही क्यों। उसे तो बड़ा अभिमान हो गया है।"
नहीं महेन्द्र, ऐसी बात नहीं है।" उषा बोली।
"तो फिर कैसी बात है?" महेन्द्र ने व्यंग से कहा।
"आप श्यामवती को नहीं समझ सके हैं।" उषा के स्वर में गम्भीरता थी।
"हो सकता है। पर तुम स्त्रियों को तो तुम्हें बनाने वाला भगवान भी नहीं समझ सका है।" महेन्द्र के इस वाक्-बाण से उषा तिलमिला उठी पर हँसती हुई बोली, "यही तो हम स्त्रियों की सबसे बड़ी विजय है।"
उषा महेन्द्र के निजी पुस्तकालय में अध्ययन करती और कुछ समय नित्यप्रति सुमित्रा के साथ भी अवश्य ही बिताती थी। उषा का साथ पाकर सुमित्रा का मन बहल जाता था पर उसे चिन्ता थी कि महेन्द्र का ब्याह हो जावे और उषा चाहती थी कि महेन्द्र किसी प्रकार से सुखी रह सके।
(क्रमशः)
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