रामनवमी पर विशेष लेख
श्री राम की मर्यादा सुविख्यात है, उन्हें मर्यादा-पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है। मर्यादा-पुरुषोत्तम अर्थात् 'मर्यादा का पालन करने वाले पुरुषों में उत्तम'। किन्तु कई प्रसंग ऐसे हैं जिनसे भ्रम सा होने लगता है कि शायद कहीं कहीं पर श्री रामचन्द्र जी ने शायद मर्यादा का पालन नहीं किया है। महाराज दशरथ तथा जटायु के मृत्यु के प्रसंग इसके अन्तर्गत आते हैं।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में महाराज दशरथ की मृत्यु का वर्णन करते हुये लिखा है:-
राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
राम राम कहि राम कहि राउ गये सुरधाम॥
अर्थात् राम का नाम रटते-रटते महाराज दशरथ सुरधाम (देवलोक) सिधार गये।
यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि महाराज दशरथ देवलोक गये जिसे कि हिन्दू मान्यता के अनुसार 6वाँ लोक माना जाता है और फिर से जन्म ले कर वहाँ से पुनः पृथ्वी लोक में आने के पर्याप्त अवसर बने रहते हैं। मतलब यह कि महाराज दशरथ का मोक्ष नहीं हुआ (मान्यता है कि विष्णुलोक जिसे कि हरिधाम भी कहा जाता है और जो कि 7वाँ लोक है पहुँचने पर ही मोक्ष होता है)। सभी को विदित है कि यदि मृत्यु के समय एक बार भी राम का नाम मुख से निकले तो मोक्ष प्राप्त हो जाता है। यहाँ पर तो दशरथ की मृत्यु राम राम रटते हुये ही हुई थी। फिर भी श्री राम ने, जो कि भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, उन्हें मोक्ष प्रदान नहीं किया। यहाँ तक कि राम ने अपने पिता का अन्तिम संस्कार भी नहीं किया जबकि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते यह उनका कर्तव्य था।
दूसरी ओर तुलसीदास जी जटायु की मृत्यु का वर्णन करते हुये लिखते हैं:-
अविरल भगति मांगि वर गीध गये हरिधाम।
तेहिके क्रिया जथोचित निज कर कीन्हीं राम॥
अर्थात् जटायु विष्णुलोक गये, उनका मोक्ष हो गया और जटायु का क्रियाकर्म स्वयं अपने हाथों से किया।
इन प्रसंगों को पढ़ कर पहली दृष्टि में लगता तो यही है कि श्री राम ने शायद कहीं कहीं पर मर्यादा का पालन नहीं किया। किन्तु ऐसा नहीं है। उपरोक्त दोनों दोहों की सही व्याख्या करने से भ्रम दूर हो जाता है। वास्तव में अपनी मृत्यु के समय महाराज दशरथ मोहवश अपना पुत्र समझ कर राम का नाम जप रहे थे न कि मोक्षदाता भगवान विष्णु समझ कर। और हिन्दू दर्शन के अनुसार मृत्यु के समय जरा भी मोह रह जाने से मोक्ष कभी प्राप्त हो ही नहीं सकता। अपने पिता के वचन पालन करके सांसारिक मर्यादा निभाने के लिये ही श्री राम अपने पिता के अन्तिम संस्कार करने के लिये अयोध्या वापस नहीं आये। यदि वे वापस आ गये होते तो पिता का वचन पालन न करने का आरोप अवश्य ही उन पर लग गया होता। वे यह भी जानते थे कि हिन्दू कर्मकाण्ड के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र की अनुपस्थिति में कनिष्ठ पुत्र को अन्तिम संस्कार करने का पूर्ण अधिकार है।
जटायु की मृत्यु के प्रसंग में तुलसीदास जी लिखते हैं कि 'अविरल भगति मांगि वर' अर्थात् जटायु की भक्ति अविरल थी और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर श्री राम न उनसे वरदान मांगने के लिये कहा था। इस पर जटायु ने दो वर मांगे थे - पहला मोक्ष प्राप्ति का और दूसरा अपना क्रिया कर्म स्वयं भगवान के हाथों से कराने का जो कि 'भूतो न भविष्यति' कार्य है। श्री रामचन्द्र जी अपने द्वारा दिये गये वरदानों के कारण विवश थे और इसीलिये उन्हें जटायु को मोक्ष प्रदान करना पड़ा तथा उनका क्रिया कर्म भी करना पड़ा।
2 comments:
लेकिन दशरथ का अंतिम संस्कार तो भरत ने किया जो कनिष्क नहीं मंझले थे.
अतुल भाई,
आपने एक बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है जिसके विषय में मेरा ध्यान नहीं गया था। मैं इस विषय पर अवश्य ही खोज-बीन करूंगा।
जी.के. अवधिया
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