बड़ों के चरणस्पर्श की प्रथा तो दिनोंदिन लुप्तप्राय होती जा रही है फिर भी दिवाली, दशहरा आदि त्यौहारों में परिवार के छोटे सदस्यों द्वारा अपने बड़ों के चरणस्पर्श की परिपाटी अभी भी मरी नहीं है। किन्तु ऐसा लगता है कि कुछ समय के बाद यह परिपाटी भी खत्म हो जायेगी। कल ही की बात है कि हमारे परिवार में लक्ष्मीपूजन हुआ। अब परिवार में सबसे बड़े हम ही हैं इसलिए हर साल लक्ष्मीपूजा होते ही परिवार के सभी सदस्य हमारा चरणस्पर्श करते हैं। कल भी सभी ने ऐसा ही किया किन्तु हमारे लघुभ्राता, जो कि हमसे मात्र पाँच साल छोटे हैं, सिर्फ देखते रहे, वे हमारे पास नहीं आए। थोड़ा सा अटपटा हमें भी लगा किन्तु यह सोच कर कि अभी चारेक दिन पहले उसकी हमारी छोटी सी झड़प हो गई थी उसका रंज रह गया होगा उसे, हमने कुछ भी नहीं कहा। बच्चे फटाके चलाने में मस्त हो गए और बड़े उनकी आतिशबाजी देखने में।
पन्द्रह बीस मिनट के बाद न जाने छोटे भाई साहब को क्या लगा कि हमारे पास आये और चरणस्पर्श कर लिया और हमने भी पूर्ण स्नेह के साथ उसे अपना आशीर्वाद दे दिया। शायद बरसों से उसके भीतर बैठे संस्कार ने उसे धिक्कारा हो या फिर उन्हें लगा हो कि बड़ों के आशीर्वाद का शायद कोई प्रभाव होता हो या न होता हो पर उससे कुछ नुकसान भी तो नहीं होता।
यहाँ पर हमारा यह अभिप्राय यह बताना नहीं है कि इस घटना से हमारे अहं को कहीं चोट पहुँचा है क्योंकि हम जानते हैं कि बड़ों को अपना चरणस्पर्श कराने का कोई शौक नहीं होता। और छोटे उनका मान करें या न करें, उनके मन में छोटों के प्रति स्नेह ही रहता है। हाँ, यह दुःख जरूर होता है कि धीरे धीरे भारतीय संस्कार खत्म होते जा रहे हैं।
8 comments:
पै लगी - गोड़ लगी गा अवधिया जी देबारी म,
अईसने होथे, भाई हाँ भाईच होथे,
तिरिया जैसी नार नही गर बदकार ना हो तो,
भाई जैसा प्यार नही, गर तकरार ना हो तो,
चोरी जैसा धंधा नही, गर सरकार ना हो तो,
जुए जैसा खेल नही, गर हार ना हो तो,
देवारी के झंऊहा-झंऊहा भर के गाड़ा-गाड़ा भर के बधई आप मन ला अऊ जम्मो आप मन के परिवार, आज 36 गढ के देवारी है
बहुत सुंदर बात कही आप ने, हमारी पीढी मै फ़िर भी संस्कार बचे है आने वाली पीढी इन सब को ढकोसला ही कहती है, लेकिन हर घर मै नही, संस्कारी घरो मे अभी भी यह संस्कार बचे है, छोटो बडो की इज्जत केसे करनी है यह सब बाते है, बहुत अच्छा लगा आप की बात पढ कर.
धन्यवाद
भगवान सबमें प्रेम-भ्रातृभाव बनाये रखें। उसी में मानवता का भविष्य है!
पहले तो बाहर जाते समय और वापस आकर भी चरण छुये जातए थे अब ये परिपाटी लगता है सिमटती जा रही है धीरे-धीरे,फ़िर भी अवधिया जी ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ मे ये परंपरा बची हुई है।चरण स्पर्श करता हूं आपके,दीवाली की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ
हम तो इन संस्कारों में अब भी गुंथें है...मगर कमी दिख रही है हर तरफ.
बड़ों को अपना चरणस्पर्श कराने का कोई शौक नहीं होता।लेकिन कही न कही यह सुप्त इच्छा तो होती ही है इसलिये कि उन्होने भी अपने से बड़ों के चरणस्पर्श किये होते है । जो चरण स्पर्श नही करते हो सकता हि उन्हे बड़े होने के बाद यह इच्छा न हो ।
चरण स्पर्श करना अर्थात बडों को भगवान की तरह सम्मान देना और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करना। हम साक्षात प्रभु से आशीर्वाद तो ले नहीं पाते हैं तो बडों को ही भगवान मानकर आशीर्वाद लेते हैं। लेकिन आधुनिकता में यह सिद्धान्त मान्य नहीं है। यहाँ बडा छोटा कोई नहीं है सभी बराबर है तो फिर कैसा चरण स्पर्श और कैसा आशीर्वाद। लेकिन हम भारतीय बडे-छोटे की संस्कृति को मानने वाले लोग हैं इसलिए चरण स्पर्श को हम संस्कार मानते हैं। दो पंक्तियां आपके लिए -
मावस जब भी आए, हम सब दीप जलाएं
राम भरत से भाई, घर-घर में बस जाएं।
चरणस्पर्श की महत्ता है ... जो इस महत्ता को समझता है वो तो चरणस्पर्श करता ही है ...
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