Sunday, December 6, 2009

बुड्ढों की कबड्डी

चलिये, आज हम आपको कबड्डी दिखाने ले चलते हैं, वह भी बुड्ढों की कबड्डी। आज आपको पता चल जायेगा कि हमारे देश के बुड्ढों में भी अब तक कितना दम बाकी है। भाई, आखिर असली घी पिया है इन्होंने अपने जमाने में। इतवार की छुट्टी का मजा आ जायेगा आपको इन बुड्ढों की कबड्डी देख कर!

कबड्डी तो कभी न कभी आपने खेला ही होगा, और यदि खेला नहीं होगा तो देखा होगा ही। कबड्डी खेलने वाले में जितना जोश होता है उससे कहीं अधिक देखने वाले मे होता है। हम जब स्कूल में पढ़ते थे तो प्ले ग्राउँड में कबड्डी, फुटबाल और हॉकी के खिलाड़ी ही दिखाई दिया करते थे किन्तु आज तो क्रिकेट ने इन खेलों की पूरी तरह से छुट्टी कर रखी है। अस्तु!

मित्रों! महान लेखकों की कल्पनाशक्ति भी असाधारण होती है तभी तो कथा सम्राट प्रेमचन्द जी ने वर्णन किया है इस कबड्डी का अपने उपन्यास गोदान में जिसे कि हम नीचे उद्धृत कर रहे हैं। यदि आपने प्रेमचंद जी को पहले पढ़ा है तब तो, हम जानते हैं कि, आप इस वर्णन को पूरा पढ़े बिना यहाँ से हिलेंगे भी नहीं और यदि आप प्रेमचन्द जी को इस पोस्ट के माध्यम से पहली बार पढ़ रहे हैं तो फिर तो आप दीवाने हो जायेंगे उनकी कहानियों और उपन्यासों के।

तो प्रस्तुत है "बुड्ढों की कबड्डी"
धीरे-धीरे एक-एक करके मजूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश होकर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़े और निकम्मे बच रहे थे, जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई ग़म नहीं। सहसा मिरज़ा खुर्शेद ने मज़दूरों के बीच में आकर ऊँची आवाज़ से कहा -- जिसको छः आने रोज़ पर काम करना हो, वह मेरे साथ आये। सबको छः आने मिलेंगे। पाँच बजे छुट्टी मिलेगी। दस-पाँच राजों और बढ़इयों को छोड़कर सब के सब उनके साथ चलने को तैयार हो गये। चार सौ फटे-हालों की एक विशाल सेना सज गयी। आगे मिरज़ा थे, कन्धे पर मोटा सोटा रखे हुए। पीछे भुखमरों की लम्बी क़तार थी, जैसे भेड़ें हों। एक बूढ़े ने मिरज़ा से पूछा -- कौन काम करना है मालिक? मिरज़ा साहब ने जो काम बतलाया, उस पर सब और भी चकित हो गये। केवल एक कबड्डी खेलना! यह कैसा आदमी है, जो कबड्डी खेलने के लिए छः आना रोज़ दे रहा है। सनकी तो नहीं है कोई! बहुत धन पाकर आदमी सनक ही जाता है। बहुत पढ़ लेने से भी आदमी पागल हो जाते हैं। कुछ लोगों को सन्देह होने लगा, कहीं यह कोई मखौल तो नहीं है! यहाँ से घर पर ले जाकर कह दे, कोई काम नहीं है, तो कौन इसका क्या कर लेगा! वह चाहे कबड्डी खेलाये, चाहे आँख मिचौनी, चाहे गुल्लीडंडा, मजूरी पेशगी दे दे। ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा? गोबर ने डरते-डरते कहा -- मालिक, हमारे पास कुछ खाने को नहीं है। पैसे मिल जायँ, तो कुछ लेकर खा लूँ। मिरज़ा ने झट छः आने पैसे उसके हाथ में रख दिये और ललकारकर बोले -- मजूरी सबको चलते-चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी चिन्ता मत करो। मिरज़ा साहब ने शहर के बाहर थोड़ी-सी ज़मीन ले रखी थी। मजूरों ने जाकर देखा, तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था और उसके अन्दर केवल एक छोटी-सी फूस की झोंपड़ी थी, जिसमें तीन-चार कुर्सियां थीं, एक मेज़। थोड़ी-सी किताबें मेज़ पर रखी हुई थीं। झोंपड़ी बेलों और लताओं से ढकी हुई बहुत सुन्दर लगती थी। अहाते में एक तरफ़ आम और नीबू और अमरूद के पौधे लगे हुए थे, दूसरी तरफ़ कुछ फूल। बड़ा हिस्सा परती था। मिरज़ा ने सबको क़तार में खड़ा करके ही मजूरी बाँट दी। अब किसी को उनके पागलपन में सन्देह न रहा। गोबर पैसे पहले ही पा चुका था, मिरज़ा ने उसे बुलाकर पौधे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न मिलेगी। मन में ऐंठकर रह गया। इन बुड्ढों को उठा-उठाकर पटकता; लेकिन कोई परवाह नहीं। बहुत कबड्डी खेल चुका है। पैसे तो पूरे मिल गये। आज युगों के बाद इन ज़रा-ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य मिला। अधिक-तर तो ऐसे थे, जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्डी खेली है या नहीं। दिनभर शहर में पिसते थे। पहर रात गये घर पहुँचते थे और जो कुछ रूखा-सूखा मिल जाता था, खाकर पड़े रहते थे। प्रातःकाल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था। जीवन नीरस, निरानन्द, केवल एक ढर्रा मात्र हो गया था। आज जो यह अवसर मिला, तो बूढ़े भी जवान हो गये। अधमरे बूढ़े, ठठरियाँ लिये, मुँह में दाँत न पेट में आँत, जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़ाये ताल ठोक-ठोककर उछल रहे थे, मानो उन बूढ़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी हो। चटपट पाली बन गयी, दो नायक बन गये। गोईयों का चुनाव होने लगा। और बारह बजते-बजते खेल शुरू हो गया। जाड़ों की ठंडी धूप ऐसी क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ऋतु है। इधर अहाते के फाटक पर मिरज़ा साहब तमाशाइयों को टिकट बाँट रहे थे। उन पर इस तरह की कोई-न-कोई सनक हमेशा सवार रहती थी। अमीरों से पैसा लेकर ग़रीबों को बाँट देना। इस बूढ़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाये गये थे, नोटिस बाँटे गये थे। यह खेल अपने ढंग का निराला होगा, बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़े आज भी कैसे पोढ़े हैं, जिन्हें यह देखना हो, आयें और अपनी आँखें तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछतायेगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टिकट दस रुपए से लेकर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का ताँता लगा हुआ था। दो हज़ार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुसिर्यों और बेंचों का इन्तज़ाम था। साधारण जनता के लिए साफ़ सुथरी ज़मीन।

खेल शुरू हो गया। जनता बूढ़े कुलेलों पर हँसती थी, तालियाँ बजाती थी, गालियाँ देती थी, ललकारती थी, बाज़ियाँ लगाती थी। वाह! ज़रा इन बूढ़े बाबा को देखो! किस शान से जा रहे हैं, जैसे सबको मारकर ही लौटेंगे। अच्छा, दूसरी तरफ़ से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल रहे हैं! इन हिड्डयों में अभी बहुत जान है। इन लोगों ने जितना घी खाया है, उतना अब हमें पानी भी मयस्सर नहीं। लोग कहते हैं, भारत धनी हो रहा है। होता होगा। हम तो यही देखते हैं कि इन बुड्ढों-जैसे जीवट के जवान भी आज मुश्किल से निकलेंगे। वह उधरवाले बुड्ढे ने इसे दबोच लिया। बेचारा छूट निकलने के लिए कितना ज़ोर मार रहा है; मगर अब नहीं जा सकते बच्चा! एक को तीन लिपट गये। इस तरह लोग अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर कर रहे थे; उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात, उछल-कूद, धर-पकड़ और उनके मरने-जीने में सभी तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ़ से क़हक़हे पड़ते, कभी कोई अन्याय या धाँधली देखकर लोग ' छोड़ दो, छोड़ दो ' का गुल मचाते, कुछ लोग तैश में आकर पाली की तरफ़ दौड़ते ...


तो बन्धुओं, बताइयेगा जरूर कि कैसी लगी आपको बुड्ढों की कबड्डी?

चलते-चलते

नेता जी के अनुसार खेल तीन प्रकार के होते हैं - पहला हॉकी, दूसरा फुटबाल और तीसरा टूर्नामेंट!

12 comments:

Mohammed Umar Kairanvi said...

उचित समय पर उचित पोस्‍ट, हम जवान हैं इस लिए आज 6 december वाली कबड्डी से बचने की कोशि कर रहे हैं,
chatka no. 1

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

यह कबड्डी का खेल बहुत अच्छा laga....

संजय बेंगाणी said...

कबड्डी कबड्डी कबड्डी..... :)

डॉ टी एस दराल said...

वाह जी, मज़ा आ गया, ये कहानी पढ़कर।
आभार

Anil Pusadkar said...

हू तू तू तू तू।मज़ा आ गया अवधिया जी।

Chandan Kumar Jha said...

कबडडी तो मैनें देखी भी है खेली भी पर बुड्ढो की कबड्डी……………………

Unknown said...

वाकई बहुत ही आनंद आया इसे पढ़कर।
पंकज शुक्ल
http://manjheriakalan.blogspot.com/

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बात सिर्फ कब्बड्डी के खेल को बुडढो द्वारा खेलने तक की नहीं, बल्कि यह देखने की है की वह उस जमाने की एक हकीकत थी जिसे प्रेमचंद ने बड़े ही सादगी से कलम पर उतारा था ! बहुत सुन्दर !

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

ऎसा कौन होगा जो कि प्रेमचन्द जी को एकबार पढ ले ओर फिर से दोबारा न पढना चाहे....
बढिया लगी ये बूढो की कबड्डी....

Khushdeep Sehgal said...

यही है... द ट्रेजडी ऑफ कब्बडी और शेम ऑफ द नेशन...

जय हिंद...

राज भाटिय़ा said...

बहुत अच्छी लगी आप की यह बुड्ढों की कबड्डी,
धन्यवाद

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत गजब की कब्बड्डी कहानी.

रामराम.