कल रात घर पहुँचा तो पता चला कि पड़ोस के सेवानिवृत वृद्ध डॉक्टर साहब की श्रीमती जी का देहान्त हो गया था। उस समय तक वे लोग अग्नि संस्कार करके भी आ चुके थे। शोक के इस अवसर पर सारा कुनबा इकट्ठा हो गया था याने कि दोनों बेटे और बहुएँ तथा तीनों बेटियाँ और दामाद अपने अपने बच्चों के साथ वहाँ पर थे।
अब आजकल इस प्रकार से पूरा का पूरा कुनबा एक साथ सिर्फ किसी के मौत होने पर ही तो इकट्ठा होता है। दोनों बेटों और तीनों बेटियों के बच्चों को आपस में मिलने का अवसर ही कहाँ मिल पाता है। अब सभी मिले थे तो खूब हँस-खेल रहे थे। लग रहा था कि त्यौहार जैसा माहौल बन गया है। उन बच्चों को अपनी दादी या नानी की मृत्यु का शोक हो भी तो कैसे? दादी या नानी के साथ रहना कभी हुआ ही नहीं। संयुक्त परिवार टूटने और छोटे परिवार बनने का परिणाम साफ दिखाई पड़ रहा था।
मुझे तो ऐसा लगा मानों वे बच्चे सोच रहे हों कि आज नानी मरी है तो कितना मजा आ रहा है! अब जब दादी मरेगी तो मजा आयेगा!!
16 comments:
संयुक्त परिवार टूटने और छोटे परिवार बनने का परिणाम साफ दिखाई पड़ रहा है......।
दुख तो इस का बात का है कि इनके पेरेंट्स ने कभी इन्हें अपनी नानी-दादी से नहीं मिलाया। हेल फार न्यूक्लियर फैमिली
बने केहे हस अवधिया जी, लईका मन काय जानही दुनिया के माया ला, ओ मन जानत हे डोकरा मरे चाहे डोकरी, बरा खाए से मतलब।:)
दोष हमारा है बच्चों का नहीं. अपने माता-पिता के प्रति उदासीनता एवं उपेक्षा पूर्ण व्यवहार ही इस सब के मूल में है . पूँजीवाद, उपभोक्तावाद , व्यक्तिवाद -- इन सभी वादों का यह दुष्परिणाम है .अभी भी संभलने का समय है. जब जागो तभी सवेरा .
अवधिया साहब, बच्चो ने ठीक किया, उदास होकर भी उन्हें क्या मिलता और उदास तब होते जब माँ-बाप ने कभी उनके प्रति भी उनमे लगाव पैदा किया होता ! दुनिया का दिखावा है , जो आया है उसे जाना है यही अंतिम सच है, इसलिए यही कहूंगा कि बच्चे समझदार है !
दुखद बात पर क्या जवाब दें. मगर यह सही है, मृत्यु पर इक्कठे हुए लोग पिकनिक सा माहौल बनाते है. बच्चों के मौज हो जाती है. कड़वी सच्चाई.
यही आज की ज़िन्दगी का सच है जी ..आपसी मिलना अब ख़ुशी या गमी तक सीमित होता जा रहा है
वृद्धों की कुछ तो सार्थकता है अब तक, बच्चों को एक साथ करने के रूप में। कुछ समय बाद शायद मृत्यु पर भी इकठ्ठा न हों लोग!
अजी आप दादी नानी की बात करते है, आज कल तो मां वाप भी मर जाये तो घर मै बच्चे खुशी महसुस करते है कि अब ज्यादाद बेच कर मोजां ही मोजां
बचपन कितना सुहाना होता है। सभी चिंताओं से मुक्त।
बच्चे जन्म मरण को भला क्या जाने।
कड़वी सच्चाई लिखी है गुरुदेव आपने.
एक तो टूटते परिवार और दूसरा हमारी संस्कारहीनता ही इसमें दोषी है.....
antim pankti pehli bar padne par hasi zaroor ati ha par....ye ek kadva sach ban chuka ha..
bohot accha laga padke ye lekh...
shukriya...
एक कड़वी सच्चाई है....
mujhe padh kar vastav mein bahut hansi aayi..
hansi ruki hi nahi..
kitna dukhad hai sabkuch lekin bacchon ko kya matlab.. agar bacchon ko aise door rakha jaayega to yahi hoga...kisi ke marni mein hi tyohaar manega..
नानी जाने के बाद भी बच्चों को हंसने का मौका दे गई...यही तो होता है बड़ों का प्रताप...काश रोबोट बनते जा रहे हम कथित आधुनिक लोग इस सत्य को समझ सकें...
नया साल आप और आपके परिवार के लिए असीम खुशियां लाए...
जय हिंद...
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