मोबाइल सेवा के अन्तर्गत् आपके मनोरंजन के लिये एक सुविधा होती है SMS से Jokes याने लतीफे प्राप्त करना। इस सेवा को प्राप्त करने के लिये आपको प्रति माह एक निश्चित राशि का भुगतान करना पड़ता है। क्या कभी आपने कभी पढ़ा है इन लतीफों को? अभद्र भाषा में ऐसे अश्लील लतीफे होते हैं कि तौबा तौबा! पर धड़ल्ले के साथ यह सेवा चल रही है। और क्यों न चले भाई? इन्सान मूलतः आखिरकार एक जानवर ही तो है जिसे हिंसा और अश्लीलता हमेशा लुभाती है। तो लोगों के इस लोभ का फायदा क्यों नहीं उठाया जा सकता?
और सबसे मजे की बात तो यह है कि ये अश्लील लतीफे जहाँ आपके मोबाइल सेट में आते हैं वहीं आपके बेटे-बेटियों के भी मोबाइल सेट में आते हैं क्योंकि इन लतीफों के जितने शौकीन आप हैं उतने ही शौकीन आपके बेटे-बेटियाँ भी हैं। इन्हें आप अपने मित्रों को सुना-सुना कर आनन्द लेते हैं और आपके बेटे-बेटियाँ अपने दोस्त-यारों को! वाह! कितनी सुन्दर बनते जा रही है हमारी भारतीय संस्कृति!
मोबाइल सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों का यह काम किसी को भी अवैधानिक नहीं लगता। क्या सरकार को इस प्रकार से गैरकानूनी रूप से अभद्रता और अश्लीलता फैलाने के बारे में जानकारी नहीं है? या मोबाइल सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों को इससे होने वाले मोटे मुनाफे की रकम सरकार चलाने वालों को भी मिलती है? क्या देश की युवा सोच को इस प्रकार से वासना में डुबो देना उचित है?
17 comments:
दादा हों, पिता हों, पुत्र हों या पौत्र सभी के अपने अपने कूड़ाघर हैं।
आम जनता को भोग विलास में डुबोकर ही राज किया जा सकता है और पैसा कमाया जा सकता है।
गोदियाल जी, आज के ज़माने में तो "बाप बड़ा न भैया, भैया सबसे बड़ा रुपैया" वाली कहावत ही चरितार्थ होती है. लोग ऐसे चुटकुले चटखारे लेकर देखते/पढते है और इसलिए ये कंपनियां इस चीज़ को भुनती है. आज अगर टेलेफोन कंपनियां नैतिकता का ख्याल रखने बैठ गई तो इस गला काट प्रतिस्पर्धा में ये कमाएंगी कैसे. गलती टेलेफोन कंपनियों के साथ साथ सब्सक्राइबर की भी बराबरी की है.
भावेश की बात से सहमति कि
गलती टेलेफोन कंपनियों के साथ साथ सब्सक्राइबर की भी बराबरी की है
प्रणाम
बात तो सही है आपकी अवधिया जी
लेकिन ताली दोनों हाथों से बजती है
जब तक उपयोगकर्ता की सहमति नहीं होगी
तब तक मोबाईल प्रदाता ऐसे-वैसे संदेश कैसे-क्यों भेजेगा?
बी एस पाबला
लगता है इस सबके जरिये जनता का ध्यान मुख्य समस्या से हटाने मे किया जाता है. मस्त चुटकले पढकर जनता हंसती रहे और सरकार से महंगाई और बेरोजगारी के बारे मे कोई उलटी सीधी मांग ना करे. और कार्पोरेट सैकटर भी सरकार को चांदी काट कमाई मे हिस्सा देता रहे.
रामराम.
अवधिया साहब लगता है मार्केट में मेरी टी आर पी काफी बढ़ गई है इसी लिए तो भावेश जी ने आपकी जगह मुझे संबोधित कर दिया , इसके लिए कठमुल्लों का shukriyaa हा-हा-हा
कुंए में ही भांग पड़ी है।
अब क्या कहा जाए?
नैतिकता को व्यावसायिकता ने
ठिकाने बैठा दिया है।
जोहार ले-बबा
नैतिकता, सभ्यता, संस्कृ्ति इत्यादि तो जैसे बीते युग की बातें हो चुकी हैं...
अन्धेर नगरी, चौपट राजा वाला हाल है......
ज़माना बदल गया है अवधिया जी ।
लगता है अब तो हमें भी बदलना ही पड़ेगा।
जमाना बदला नही बिगड गया है डॉ टी एस दराल जी, आवधिया जी आप ने सही लिखा है, धन्यवाद
और फिर लोग सगर्व उन्हें फॉरवर्ड भी करते हैं और पूछते है कि कैसा लगा!!
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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
अवधिया जी, क्षमा चाहूँगा कि आपको गोदियाल जी समझ कर संबोधित कर बैठा. गलती से mistake हो गया :-)
दरअसल आपके ब्लॉग "धान के देश में" और गोदियाल जी के ब्लॉग "अंधड" का नियमित पाठक हूँ. मैंने ये पाया है कि आप दोनों के कुछ विचार काफी हद तक मिलते जुलते है और शायद इसी वजह से ये गलती हो गई.
सही कह रहो है अवधिया जी।सहमत हूं आपसे।
बिलकुल सही मुद्दा,
नैतिक रूप से समाज पतन की राह पर चल पड़ा है...और सबसे बड़ी बात यह है कि इसे बुरा भी नहीं माना जा रहा है...
जैसे कि 'कमीना' शब्द....उसी तरह और भी कुछ शब्द हैं जिनको बोलने में हमलोगों को आज भी झिझक है....ये sms का माहौल भी कुछ ऐसा ही है....लोगों को न पढने से परहेज है न भेजने से न ही सुनने से....
आपकी पोस्ट पर द्विवेदी जी की टीप के बाद कुछ भी कहने सुनने की गुंजाईश नहीं है ....बहुत सटीक मुद्दा उठाया आपने
अजय कुमार झा
बाज़ार अपना सामान मुफ्त मे तो नही देता । और वह कचरे से भी पैसा कमाता है हमे सोचना है कचरा क्या है और क्या नही।
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