खल ...
अर्थात् दुष्ट ...
दुष्टता के मूल में व्यक्ति की हीन भावना ही होती है। हीन भावना से ग्रसित व्यक्ति जानता है कि उसमें बहुत सारी कमियाँ हैं और इसी कारण से वह भीतर ही भीतर क्षुब्ध रहता है। अपनी क्षुब्धता से प्रेरित हो वह अपनी कमियों को छिपाने के लिये विवश हो अन्य लोगों को यह दर्शाता है कि वह महान है। उसकी यह झूठी महानता उसमें अहंकार उत्पन्न करती है। और अहंकार से उत्पन्न होती है दुष्टता। दुष्ट व्यक्ति का कार्य होता है दूसरों को दुःख पहुँचाना। इसके लिये वह सदैव दूसरों को उकसाने, जलाने, भड़काने और कुण्ठाग्रस्त करने का प्रयास करते रहता है।
किन्तु हमारी संस्कृति में खल कि भी वन्दना करने की परम्परा रही है इसीलिये "रामचरितमानस" की रचना करते समय गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी खल-वन्दना की है। दुष्टों की वन्दना करते हुए वे कहते हैं किः
अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों की वन्दना करता हूँ जो बिना किसी प्रयोजन के दायें-बायें होते रहते हैं। दूसरों की हानि करना ही इनके लिये लाभ होता है तथा दूसरों के उजड़ने में इन्हें हर्ष होता है और दूसरों के बसने में विषाद। ये हरि (विष्णु) और हर (शिव) के यश के लिये राहु के समान हैं (अर्थात् जहाँ कही भी भगवान विष्णु या शिव के यश का वर्ण होता है वहाँ बाधा पहुँचाने वे पहुँच जाते हैं)। दूसरों की बुराई करने में ये सहस्त्रबाहु के समान हैं। दूसरों के दोषों को ये हजार आँखों से देखते हैं। दूसरों के हितरूपी घी को खराब करने के लिये इनका मन मक्खी के समान है (जैसे मक्खी घी में पड़कर घी को बर्बाद कर देती है और स्वयं भी मर जाती है वैसे ही ये दूसरों के हित को बर्बाद कर देते हैं भले ही इसके लिये उन्हें स्वयं ही क्यों न बर्बाद होना पड़े)। ये तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं और पाप और अवगुणरूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं। इनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के समान केतु (पुच्छल तारा) के समान है। ये कुम्भकर्ण के समान सोये रहें, इसी में सभी की भलाई है। जिस प्रकार से ओला खेती का नाश करके खुद भी गल जाता है उसी प्रकार से ये दूसरों का काम बिगाड़ने के लिये खुद का नाश कर देते हैं। ये दूसरों के दोषों का बड़े रोष के साथ हजार मुखों से वर्णन करते हैं इसलिये मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेष जी के समान समझकर उनकी वन्दना करता हूँ। ये दस हजार कानों से दूसरों की निन्दा सुनते हैं इसलिये मैं इन्हें राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिये दस हजार कान पाने का वरदान माँगा था) समझकर उन्हें प्रणाम करता हूँ। सुरा जिन्हें नीक (प्रिय) है ऐसे दुष्टों को मैं इन्द्र (जिन्हे सुरानीक अर्थात देवताओं की सेना प्रिय है) के समान समझकर उनका विनय करता हूँ। इन्हें वज्र के समान कठोर वचन सदैव प्यारा है और ये हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं। दुष्टों की यह रीत है कि वे उदासीन रहते हैं ( अर्थात् दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिये यह नहीं देखते कि वह मित्र है अथवा शत्रु)। मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक दुष्टों की वन्दना करता हूँ।
मैंने अपनी ओर से वन्दना तो की है किन्तु अपनी ओर से वे चूकेंगे नहीं। कौओं को बड़े प्रेम के साथ पालिये , किन्तु क्या वे मांस के त्यागी हो सकते हैं?
यह तो हुआ तुलसीदास जी के कथन का भावार्थ, अब मूल पाठ भी पढ़ लीजियेः
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥
दो0-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
5 comments:
बढ़िया विवेचन अवधिया साहब, ये दुष्ट खल-राक्षस मानवता से युग-युगांतर से चिपके रहे है ! छद्म भेष धर के दूसरों को डराना भर्मित करना, नुकशान पहुचाना बस यही इनकी कृत्य शैली है !
जय हो! गुरुदेव आज तो
आपने खल वंदना भी कर डाली,
12 मास कुकुर के पुंछी
पोंगरी मा धर डाली
अगर सीधी होती तो
तुलसी दास जी ही कर डारते
फ़िर क्यों खल वंदना करते कराते।
bahut achhi baat likhaa hai aapne avadhiyaa sahab.khal- vandana.aapke is poat ki ek-ek baat damadhar our gyaanvardhak hai. dhanyabaad, badhaai,....
बहुत सटीक अवधिया जी.
रामराम.
बहुत खूब, लाजबाब !
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