अच्छा इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कहा अपने। और देखिये फिर भी आप टॉप पर पहुच गए। कथन जिसका भी है एकदम सत्य है। पर फिर भी मुझे तो अपनी बात कहने के लिए खूब बोलना, खूब लिखना अच्छा लगता है। वही यहाँ पर भी करूँगा। मैं नहीं सुधरूंगा । बोलता ही रहूँगा..........बोलता ही रहूँगा....... बोलता ही रहूंगा.......बोलता ही रहूँगा......
पिछले कई दशक से हमारे समाज में महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा देने के सम्बन्ध में एक निर्थक सी बहस चल रही है. जिसे कभी महिला वर्ष मना कर तो कभी विभिन्न संगठनो द्वारा नारी मुक्ति मंच बनाकर पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाता रहा है. समय समय पर बिभिन्न राजनैतिक, सामाजिक और यहाँ तक की धार्मिक संगठन भी अपने विवादास्पद बयानों के द्वारा खुद को लाइम लाएट में बनाए रखने के लोभ से कुछ को नहीं बचा पाते. पर इस आन्दोलन के खोखलेपन से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है शायद तभी यह हर साल किसी न किसी विवादास्पद बयान के बाद कुछ दिन के लिए ये मुद्दा गरमा जाता है. और फिर एक आध हफ्ते सुर्खिओं से रह कर अपनी शीत निद्रा ने चला जाता है. हद तो तब हुई जब स्वतंत्र भारत की सब से कमज़ोर सरकार ने बहुत ही पिलपिले ढंग से सदां में महिला विधेयक पेश करने की तथा कथित मर्दानगी दिखाई. नतीजा फिर वही १५ दिन तक तो भूनते हुए मक्का के दानो की तरह सभी राजनैतिक दल खूब उछले पर अब १५ दिन से इस वारे ने कोई भी वयान बाजी सामने नहीं आयी.
क्या यह अपने आप में यह सन्नाटा इस मुद्दे के खोख्लेपर का परिचायक नहीं है?
मैंने भी इस संभंध में काफी विचार किया पर एक दुसरे की टांग खींचते पक्ष और विपक्ष ने मुझे अपने ध्यान को एक स्थान पर केन्द्रित नहीं करने दिया. अतः मैंने अपने समाज में इस मुद्दे को ले कर एक छोटा सा सर्वेक्षण किया जिस में विभिन्न आर्थिक, समाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक वर्ग के लोगो को शामिल करने का पुरी इमानदारी से प्रयास किया जिस में बहुत की चोकाने वाले तथ्य सामने आये. २-४०० लोगों से बातचीत पर आधारित यह तथ्य सम्पूर्ण समाज का पतिनिधित्व नहीं करसकते फिर भी सोचने के लिए एक नई दिशा तो दे ही सकते हैं. यही सोच कर में अपने संकलित तथ्य आप की अदालत में रखने की अनुमती चाहता हूँ. और आशा करता हूँ की आप सम्बंधित विषय पर अपनी बहुमूल्य राय दे कर मुझे और समाज को सोचने के लिए नई दिशा देने में अपना योगदान देंगे.
14 comments:
सही कहा अवधिया जी न बोले तो कौयें कोयलों कि बीच खप सकता है।
आपने पहले नही बताया. हमारी इसी आदत के कारण हमारा मुर्ख होना पकडा गया.
रामराम.
बहुत खूब। आपने सच्ची बात कही।
:।
मैं तो अवधिया साहब, चुप रह ही नहीं सकता .... हा...हा...हा !
बहुत अच्छा
अभी "विचारों" का सिलसिला जारी है
इस कुहराम में चुप रहना ही अच्छा है
बिन बोले जो कहा जायेगा वह गहराई से सुना जायेगा.
शायद इसीलिए यहाँ कुछ लोग मुद्दों पर जुबान नहीं खोलते। चुप्पी साध जाते हैं :-)
यह पोस्ट आप प्रवचन देने बाले पोस्ट और ब्लॉग पर डाल देन...
सौरी अब मौन हो जाता हूँ,,,,
.संवेदनशील प्रस्तुति......
http://laddoospeaks.blogspot.com/
मौन !
अच्छा इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कहा अपने।
और देखिये फिर भी आप टॉप पर पहुच गए।
कथन जिसका भी है एकदम सत्य है।
पर फिर भी मुझे तो अपनी बात कहने के लिए
खूब बोलना, खूब लिखना अच्छा लगता है।
वही यहाँ पर भी करूँगा।
मैं नहीं सुधरूंगा । बोलता ही रहूँगा..........बोलता ही रहूँगा....... बोलता ही रहूंगा.......बोलता ही रहूँगा......
अंग्रेजी और हिन्दी के अनुवाद में साम्यता दिखायी नहीं दे रही है कृपया भाव स्पष्ट करें।
अंग्रेजी और हिन्दी के अनुवाद में साम्यता दिखायी नहीं दे रही है कृपया भाव स्पष्ट करें।
महोदय,
पिछले कई दशक से हमारे समाज में महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा देने के सम्बन्ध में एक निर्थक सी बहस चल रही है. जिसे कभी महिला वर्ष मना कर तो कभी विभिन्न संगठनो द्वारा नारी मुक्ति मंच बनाकर पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाता रहा है. समय समय पर बिभिन्न राजनैतिक, सामाजिक और यहाँ तक की धार्मिक संगठन भी अपने विवादास्पद बयानों के द्वारा खुद को लाइम लाएट में बनाए रखने के लोभ से कुछ को नहीं बचा पाते. पर इस आन्दोलन के खोखलेपन से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है शायद तभी यह हर साल किसी न किसी विवादास्पद बयान के बाद कुछ दिन के लिए ये मुद्दा गरमा जाता है. और फिर एक आध हफ्ते सुर्खिओं से रह कर अपनी शीत निद्रा ने चला जाता है. हद तो तब हुई जब स्वतंत्र भारत की सब से कमज़ोर सरकार ने बहुत ही पिलपिले ढंग से सदां में महिला विधेयक पेश करने की तथा कथित मर्दानगी दिखाई. नतीजा फिर वही १५ दिन तक तो भूनते हुए मक्का के दानो की तरह सभी राजनैतिक दल खूब उछले पर अब १५ दिन से इस वारे ने कोई भी वयान बाजी सामने नहीं आयी.
क्या यह अपने आप में यह सन्नाटा इस मुद्दे के खोख्लेपर का परिचायक नहीं है?
मैंने भी इस संभंध में काफी विचार किया पर एक दुसरे की टांग खींचते पक्ष और विपक्ष ने मुझे अपने ध्यान को एक स्थान पर केन्द्रित नहीं करने दिया. अतः मैंने अपने समाज में इस मुद्दे को ले कर एक छोटा सा सर्वेक्षण किया जिस में विभिन्न आर्थिक, समाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक वर्ग के लोगो को शामिल करने का पुरी इमानदारी से प्रयास किया जिस में बहुत की चोकाने वाले तथ्य सामने आये. २-४०० लोगों से बातचीत पर आधारित यह तथ्य सम्पूर्ण समाज का पतिनिधित्व नहीं करसकते फिर भी सोचने के लिए एक नई दिशा तो दे ही सकते हैं. यही सोच कर में अपने संकलित तथ्य आप की अदालत में रखने की अनुमती चाहता हूँ. और आशा करता हूँ की आप सम्बंधित विषय पर अपनी बहुमूल्य राय दे कर मुझे और समाज को सोचने के लिए नई दिशा देने में अपना योगदान देंगे.
http://dixitajayk.blogspot.com/search?updated-min=2010-01-01T00%3A00%3A00-08%3A00&updated-max=2011-01-01T00%3A00%3A00-08%3A00&max-results=6
Regards
Dikshit Ajay K
Post a Comment