Tuesday, June 1, 2010

अब रोज-रोज तो कुछ सूझता नहीं इसलिये आज अगड़म-बगड़म लिख रहा हूँ ... जो पढ़ें उसका भी भला, जो ना पढ़ें उसका भी भला

अजब रोग है ये ब्लोगिंग भी। रोज ही एक पोस्ट लिखने का नशा लगा दिया है इसने हमें। पर आदमी अगर रोज-रोज लिखे भी तो क्या लिखे? कभी-कभी कुछ सूझता ही नहीं तो अगड़म-बगड़म कुछ भी लिख कर पोस्ट प्रकाशित कर देता है। तो आज हम भी ऐसे ही कुछ अगड़म-बगड़म लिख रहे हैं, जिसे पढ़ना हो पढ़े ना पढ़ना हो ना पढ़े। अपना क्या जाता है।

तो पेश है अगड़म-बगड़मः

विचित्र प्राणी है मनुष्य। संसार के समस्त प्राणियों से बिल्कुल अलग-थलग। यह एक ऐसा प्राणी जो जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक खर्च करवाता है। ईश्वर ने इस पर विशेष अनुकम्पा कर के इसे बुद्धि प्रदान की है ताकि यह इस बुद्धि का सदुपयोग करे किन्तु यह प्रायः बुद्धि का सदुपयोग करने के स्थान पर दुरुपयोग ही करता है। सत्ता, महत्ता और प्रभुता प्राप्त करने के लिये यह कुछ भी कर सकता है।

मनुष्य यदि ऊपर उठना चाहे तो देवताओं से भी ऊपर जा सकता है और नीचे गिरना चाहे तो पशुओं से भी निकृष्ट बन सकता है इसीलिये मैथिलीशरण गुप्त जी ने पंचवटी में कहा हैः

मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ
किन्तु मनुष्य को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूँ

18 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

लीजिये संभालिये हमारी अगड़म-बगड़म टिपण्णी, मैथली शरण गुप्त जी ने बिलकुल सही कहा था !

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

ये अगडम बगडम भी विचारणीय है

मनोज कुमार said...

हमारी अगड़म-बगड़म टिपण्णी ...
अरथ अमित अति आखर थोरे
(थोड़े शब्दों में अपार अर्थ)

अन्तर सोहिल said...

आप कभी-कभी ऐसी ही अगडम-बगडम लिखते रहिये।
बहुत प्रेरक लगती हैं मुझे

प्रणाम

M VERMA said...

मनुष्य यदि ऊपर उठना चाहे तो देवताओं से भी ऊपर जा सकता है और नीचे गिरना चाहे तो पशुओं से भी निकृष्ट बन सकता है'
देवताओं से ऊपर तो जो जाते होंगे तो जाते होंगे पर पशुओं से भी निम्न गमन तो रोज ही देखते हैं.

Cancerian said...

आपके गूगल बुक देखी क्या? उसमे आपके पिताजी की पुस्तकें दिखती हैं और साथ में उनके द्वारा निकाले गए अखबार के पंजीयन की खबर भी| आप से अनुरोध है कि उनके अमूल्य योगदान को ई बुक के रूप में प्रकाशित करें| सार ब्लॉग पर देवे| मुझे विशवास है कि आप जैसे नामी-गिरामी ब्लॉगर केपिता श्री की रचनाए हर कोइ पढ़ना चाहेगा| इससे आपको कुछ आमदनी भी हो जायेगी|

राजकुमार सोनी said...

अवधिया जी ये दादाजी कौन है जरा इसका पता लगाकर बताएं.. इसने मेरे ब्लाग पर दो तीन टिप्पणी मारी है। जब मैं इसका ब्लाग खोलता हूं तो वहां पृथ्वीराज कपूर की फोटो दिखाई देती है।
हां.. आपकी पोस्ट हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक है... लेकिन पहले जरा दादाजी को पकड़ने का काम करें।

Unknown said...

@ व्योम

आपकी टिप्पणी के बहुत बहुत धन्यवाद! मैंने गूगल बुक्स नहीं देखी है। मेरे पिताजी का नाम श्री हरिप्रसाद अवधिया है और यदि उनकी कोई पुस्तक गूगल बुक्स में है तो यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। उनकी बहुत सारी रचनाओं को बहुत पहले मैं अपने इसी ब्लोग में प्रकाशित कर चुका हूँ।

आचार्य उदय said...

आईये, मन की शांति का उपाय धारण करें!
आचार्य जी

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

अगड़म बगड़म लिखे मा चल जाथे बूता
अब बता कहां जा्बे तैं माना या तूता

जय हो बने लिखत हस गुरुदेव

Cancerian said...

जी अवधिया जी, आपके बाबू जी को अच्छी तरह से जानता रहा हूँ|
आप लम्बे समय तक बैंक में रहे| छुरा जैसे क्षेत्रों में आज भी आपको लोग आपके व्यवहार से याद करते हैं| उन दिनों के अनुभवों को आप लिखे तो हम सब को अच्छा लगेगा|

"धान के देश" को आप आगे बढ़ा सकते हैं| आपके पिताजी ने अपने समय की बातें उसमे डाली, आप इस समय की बातें कह सकते हैं|

वो अंगरेजी का ड्यूक शब्द छत्तीसगढ़ी के डउका शब्द से बना है, इस पर भी आप ही प्रकाश डाल सकते हैं| मुझे मालूम है कि आपके पास जानकारियों का अम्बार है पर हनुमान जी की तरह आपको भी आपकी शक्ति का अहसास कराने की जरूरत है| वही मैं कर रहा हूँ|

राज भाटिय़ा said...

यह एक ऐसा प्राणी जो जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक खर्च करवाता है... अजी कमाता भी तो यही है अगड़म बगड़म कर के... तो खर्च होने दो

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

कमाल है अवधिया जी! इतनी बढिया ज्ञानवर्धक पोस्ट को आप अगडम बगडम बता रहे हैँ... आप भी घणा बढिया मजाक कर लेते हैं :-)

Udan Tashtari said...

इतने घोर लेखन को भला कौन अगड़म बगड़म मानेगा...अगर अगड़म बगड़म लिखना है तो फिर से ट्राई करिये/

बहुत बढ़िया पोस्ट रही.

honesty project democracy said...

विचित्र प्राणी है मनुष्य। संसार के समस्त प्राणियों से बिल्कुल अलग-थलग। यह एक ऐसा प्राणी जो जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक खर्च करवाता है। ईश्वर ने इस पर विशेष अनुकम्पा कर के इसे बुद्धि प्रदान की है ताकि यह इस बुद्धि का सदुपयोग करे किन्तु यह प्रायः बुद्धि का सदुपयोग करने के स्थान पर दुरुपयोग ही करता है। सत्ता, महत्ता और प्रभुता प्राप्त करने के लिये यह कुछ भी कर सकता है।

ये तो प्रकृति के काम करने का अपना ढंग है वह हर किसी को उसके कर्मों और कुकर्मों का फल किसी व्यक्ति के द्वारा बुद्धि के सदुपयोग या दुरूपयोग के आधार के माध्यम से ही देता है ,इसलिए अगर प्रकृति के प्रकोप से बचना है तो बुद्धि का सदुपयोग ही सर्वोत्तम मार्ग है |

अमिताभ मीत said...

भाई ये अगड़म बगड़म है तो रोज़ किया करें ...... अगड़म बगड़म !

Ra said...

अच्छी अगड़म बगड़म ...ऐसी ,,,रोज़ लिखे ....पढने को आतुर है

संजय @ मो सम कौन... said...

अच्छा जी, अगड़म बगड़म इसे कहते हैं? इसीलिये अच्छी लगी आपकी पोस्ट।