इक आग के दरिया में मै डूब के आया हूँ
जिल्लत है मिली मुझको पर इश्क नहीं पाया हूँ
कुचले हैं मेरे अरमां टूटी है मेरी आशा
गैरों का सताया हूँ अपनों का रुलाया हूँ
दिल में थे जितने अरमाँ आँखों में जितने सपने
अपने पे लुटाना था तुझ पे ही लुटाया हूँ
एहसास है मुझको ये भी तेरे प्यार में डूबा हूँ
अपना न रहा अब मैं तेरा भी न हो पाया हूँ
बरबाद हो गया हूँ चाहत में तेरी अब तक
पाना था तुझको लेकिन खुद को ही गवाँया हूँ
खोने के बाद तुझको मरने की तमन्ना है
मरने की आरजू में जीता ही चला आया हूँ
8 comments:
बेहतरीन भाव संयोजन----------कल के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा।
बहुत सुन्दर गज़ल...
बहुत खुब जी, धन्यवाद
बहुत खुब!
बहुत खुब आभार !
बहुत पसंद आई ये रचना......
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल, बहुत खूब!
बाहर मानसून का मौसम है,
लेकिन हरिभूमि पर
हमारा राजनैतिक मानसून
बरस रहा है।
आज का दिन वैसे भी खास है,
बंद का दिन है और हर नेता
इसी मानसून के लिए
तरस रहा है।
मानसून का मूंड है इसलिए
इसकी बरसात हमने
अपने ब्लॉग
प्रेम रस
पर भी कर दी है।
राजनैतिक गर्मी का मज़ा लेना
इसे पढ़ कर यह मत सोचना
कि आज सर्दी है!
बहार राजनैतिक मानसून की
लगता है इस बार सूरज ढूढ़ लूँगा मैं,
जमीन पे देखकर अब ढूढ़ता मैं साया हूँ ।
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