यही बात कथा-कहानियों, उपन्यासों आदि के बारे में भी लागू होती हैं। "चन्द्रकान्ता सन्तति" (देवकीनन्दन खत्री), "गोदान" (प्रेमचंद), "चित्रलेखा" (भगवतीचरण वर्मा) जैसी अनेक पुस्तकें हैं जिन्हें मैंने कई-कई बार पढ़ा है और हर बार नया मजा मिला है। ऐसे लेखन में इतनी अधिक रोचकता होती है कि पाठक उसे एक ही बैठक में पढ़ लेना चाहता है।
अब आप ही बताइये कि निम्न कथा रोचक है या नहीं:
बड़े नवाब मिर्जा अलीबेग अस्सी की उम्र में जब मरे तो उनके साहबज़ादे मिर्जा अख़्तरबेग की उम्र बीस बरस की थी। बड़ी मानता-मनौती मानने पर बड़े नवाब को बुढ़ौती में बेटे का मुँह देखना नसीब हुआ था। इसीलिए उनकी परवरिश भी लाड़-प्यार में हुई थी। उन दिनों जहांगीराबाद की रियासत में ऐशो-इशरत की कमी न थी। सिर्फ इतना ही नहीं कि छोटे नवाब ऐशो-इशरत की गोद में पलकर किसी कदर आवार हो गए, उनकी तालीम भी बहुत मामूली हुई। इन सब कारणों से ज्यों ही बड़े नवाब मरे और इन्हें हाथ की छूट हुई तो बेहद फिज़ूलखर्चियाँ करने लगे। बदइन्तजामी इतनी बढ़ी कि आमदनी आधी भी न रही।(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोना और खून का एक अंश)
इनकी ऐयाशी और फिज़ूलखर्ची बड़े नवाब के जमाने में आरम्भ हो गई थीं। उन्होंने यह सोचकर कि शादी कर देने से वह खानादारी में फँसकर ठीक हो जाएगा, उनकी शादी चौदह साल की उम्र में ही कर दी थी। शुरू-शुरू में तो नए मियाँ-बीबी खूब घुल-मिल कर रहे। बीबी का मिज़ाज़ जरा तेज था। वह भी एक नवाब की बेटी थी। पर मियाँ की वह बहुत लल्लो-चप्पो करती रहती थी।......... परंतु धीरे-धीरे यह प्रेम का पौधा सूखने लगा और छोटे नवाब इधर-उधर फिर दिल का सौदा करने लगे। इससे बेग तिनक गईं। और फिर आए दिन मान-मनौवल, फसाद-झगड़े उठने लगे। इसी बीच बड़े नवाब का इन्तकाल हो गया और छोटे नवाब की पगड़ी बँधी। इसके एक साल बाद ही नवाब के लड़का पैदा हुआ। लड़का सुन्दर और स्वस्थ था। पहला बच्चा था, इसलिये हवेली में बाजे बजने लगे। बधाइयाँ गाई जाने लगीं। तवायफ़ों की महफ़िल हुई। लेकिन जब दाई ने छठवीं के दिन लड़के को लाकर नवाब की गोद में डाला और उम्मीद की कि कोई भारी इनाम मिलेगा, तो नवाब ने बिगड़कर कहा, "इस लड़के की सूरत हमसे नहीं मिलती, चुनाँचे यह हमारा लड़का ही नहीं।"
नवाब साहब की इस बात से तहलका मच गया। हकीकत यह थी कि उनके आवारा दोस्तों ने कुछ ऐसी इशारेबाजियाँ पहले ही से कर रखी थीं, जिनसे नवाब का दिल वहम से भर गया था। वह अनपढ़ और बेवकूफ़ तो था ही, लड़के को देखते ही ऐसी बेहूदा बात कह बैठा।
बेगम ने सुना तो अपना सिर पीट लिया। रो-धोकर उसने सारा घर सिर पर उठा लिया। ..... इसी दौरान बेगम को पता लगा कि नवाब ने एक तवायफ़ से आशनाई कर ली है। ...... बेगम से एक दिन उसकी मुँह-दर-मुँह नोक-झोंक हो गई।
नवाब ने कहा, "बेगम, तुमने यह हक-नाहक का कैसा हंगामा खड़ा कर दिया है? बखुदा इससे बाज आओ, वरना हमसे बुरा कोई न होगा।"
"क्या कर लोगे तुम?"
"कसम कलामे-पाक की, मैं तुम्हारी खाल खिंचवाकर भूसा भरवा दूँगा।"
"तो तुफ़ है तुम पर जो करनी में कसर करो।"
"नाहक एक खूने-नाहक का अजाब मेरे सिर होगा।"
"तुम्हें क्या डर है! करनी कर गुजरो, ज्यादा से ज्यादा फाँसी हो जाएगी।"
"फाँसी क्यों हो जाएगी?"
"यह कम्पनी बहादुर की अमलदारी है। तुम्हारी खाला का राज नहीं।"
"बखुदा, बड़ी मुँहफट हो।"
"मगर अस्मतदार हूँ।"
"चे खुश। अस्मतदार हो तो कहो यह लौंडा कहाँ से पेट में डाल लाईं?"
"शरम नहीं आती यह बेहूदा कलाम जुबान पर लाते?"
"हम तो लाखों में कहेंगे। कुछ डर है!"
"नकटा जिए बुरे हवाल, डर काहे का! डर तो उसे हो जिसे अपनी इज्जत का कुछ खयाल हो।"
"हम खानदानी रईस हैं। हमारी इज्जत का तुम क्या जानो।"
"बड़े आए इज्जतवाले। तभी तो मुई उस वेसवा का थूक चाटते हो।"
"तो इससे तुम्हें क्या! यह हमने कोई नई बात नहीं की। हमारे हमकौम रईस-नवाब सभी कोई रखैल, रंडी रखते हैं। हमने रख ली तो तुम्हारा क्या नुकसान किया?"
"अच्छा, हमारा कोई नुकसान ही नहीं किया?"
"हमारा फर्ज ब्याहता के साथ रहने का है, हर्गिज फरामोश न करेंगे। और अगर ज्यादा बावेला न मचाकर घर में खामोश बैठोगी तो हम तुम्हारी खातिरदारी मिस्ल साबिक बल्कि उससे भी ज्यादा करेंगे। हालाँकि तुम इस सलूक के काबिल नहीं।"
"क्या कहने हैं! मियाँ होश की दवा करो। मेरा जो हक है मुँह पर झाड़ू मारकर लूँगी। होई हँसी-ठठ्ठा है!"
"तुमने बेहयाई पर कमर कस ली है तो लाचारी है।"
"मैं बेहया लोगों के कहने का बुरा नहीं मानती। अब्बाजान को मैंने सब हकीकत लिख दी है। वे आया ही चाहते हैं। उनसे निबटना। देखूँगी, कैसे तीसमारखां हो!"
"देखूँगा उन्हें, कितनी तोपें लेकर आते हैं!"
यह कहते और गुस्से से काँपते हुए नवाब बाहर चले गए।
............................
बेटी का खत पाकर नवाब इकरामुल्ला आगबबूला हो गए। वे फौरन हाथी पर बैठकर जहांगीराबाद पहुँचे। दामाद को बहुत लानत-मलामत दी। बेटी से सलाह की और बेटी से एक लाख रुपयों के मेहर का दावा अदालत दीवानी में ठुकवा दिया। अदालत से बेगम को डिग्री मिल गई, इसपर नवाब ने कलकत्ता के सुप्रीम कोर्ट में अपील की, पर नीचे का हुक्म वहाँ भी बहाल रहा परन्तु इस खींचतान में तीन बरस लग गए। इस बीच नवाब और बेग में खूब फुलझड़ियाँ छूटीं। बेगम को तंग करने के नवाब और उनके बेफिकरे दोस्तों ने नये-नये नुस्खे ईजाद किए। अब बेग अलहदा मकान में जहांगीराबाद में ही रहती थीं। नवाब ने उनके पीछे गुण्डे लगा दिए, जो उनकी हवेली के नीचे खड़े होकर अश्लील गज़लें गाते और दूसरे प्रकार की बेजा हरकतें करते। कभी नंगी और फाँस तस्वीरे उनके दरवाजों पर चिपका देते। कभी डाक से बैरंग लिफाफे में गालियाँ, गंदी तस्वीरें भेजते। बेगम उन्हें जरूरी अदालती कागज़ात समझकर महसूल देकर ले लेती, और खोलने पर ये सब चीजें पाती। रात को उसके मकान पर ईंट-पत्थर बरसते। आखिर तंग आकर बेगम ने थानेदार की शरण ली। तब तक कांस्टेबल पुलिस का इन्तजाम नहीं हुआ था, बरकन्दाजी पुलिस थी। सिपाही को पाँच रुपये और थानेदार को बीस रुपये तनख्वाह मिलती थी। थानेदार ने बेगम से सब हाल सुनकर उनकी हिफाजत का जिम्मा लिया और एक बरकन्दाज उसकी हवेली पर पहरे के लिए बिठा दिया। यह सिलसिला कई महीने तक चलता रहा। पर कोई चोर नहीं पकड़ा गया। ढेलेबाजी और छेड़खानी उसी तरह चलती रही। असल बात यह थी कि बरकन्दाज अढीमची था। वह शाम को ही अफीम का गोला गटककर पीनक में अंटागफील हो जाता था। फिर भला उसे दीनो-जहान की क्या खबर रह सकती थी!
आखिर थानेदार पर बेगम का तकाजा हुआ कि हम खर्च भी करते हैं, मगर हमारा काम कुछ नहीं होता। थानेदार ने बरकन्दाज को हुक्म दिया कि यदि आज ही मुलजिम न पकड़ा गया तो उसकी खैर नहीं है। अब आप ही कहिए कि जब तीन महीने तक मुलजिम नहीं पकड़ा जा सका तो भला एक दिन में कैसे पकड़ा जा सकता है। मगर थानेदार साहब का हुक्म भी बजा लाना जरूरू जथा। फिर बेगम ने भी गुनहगार के पकड़े जाने पर इनाम देने का वादा किया था, बस किसी आसामी की खोज में उसने चक्कर लगाना शुरू किया। इतने ही में उसने एक आदमी को शराब के नशे में धुत कलवार की दुकान से आते हुए देखा और झट से उसे ले जाकर थानेदार के हवाले कर दिया, और एक गहरा सलाम झुकाया। थानेदार ने बेगम को इत्तला दी कि एक आदमी ढेला फेंकता हुआ पकड़ा गया है, उसे छोड़ देने के लिए नवाब मुझे पचार रुपये घूँस दे रहे थे, परन्तु मैं इस मर्दूद मूँजी को हर्गिज बिना सजा दिलाए नहीं छोड़ूँगा, जिसने बेगम साहिबा को तंग करने की हिमाकत की है।
बेगम ने पचास रुपये बांदी के हाथों थानेदार के पास भिजवा दिए और कहा - ठसे पूरी सजा दिलवाओगे तो और इनाम दूँगी। जंट साहब की कचहरी में उस पर इस आशय का मुकदमा चला दिया कि दो अंग्रेज लड़के एक खुली बग्घी में सवार चले जाते थे, यह शराबी नशे की धुत गली से खौफ़नाक तरीके से चीखता-चिल्लाता निकल पड़ा, जिससे बग्घी से टट्टू ऐसे भड़के कि बड़ी मुश्किल से बरकन्दाज ने रोके जो मौके पर हाजिर था। अगर वह बरकन्दाज अपनी जान पर खेलकर उन्हें न रोक लेता तो बेशक दोनों लड़कों की जान जाने में जरा भी शक न था। लिहाजा फिदवी उम्मीदवार है कि इस शराबी को सख्त सजा हुज़ूरेवाला से फर्माई जाए। अभियुक्त ने जंट साहब के सामने शराब पीने का इकबाल किया और कहा कि उस वक्त मुझे तन-बदन की खबर न थी। इसपर पच्चीस रुपया जुर्माना कर दिया।
इस खुशखबरी को थानेदार ने बेगम के पास स्वयं हाजिर होकर इस तरह पहुँचाया कि हाकिम उस कम्बख्त गुनहगार को जेला या कालेपानी भेजना चाहता था, मगर आपके हमसायों ने आपकी ओर से गवाही देने से इन्कार कर दिया। उधर दुश्मनों ने जोर बाँधा, लाट साहब तक सिफारिश पहुँचाई। अब मैं क्या कर सकता था! हकीकत यह है कि पुलिस के अलावा हर शख्स आपका दुश्मन है। सिर्फ पुलिस आपकी दोस्त है। बेगम ने खुश होकर थानेदार को और पचास रुपये नज़राने के दिए और दस रुपये बरकन्दाज को इनाम।
6 comments:
पढ़ते जा रहे हैं !
आनन्द आ रहा है।
.सोना और खून’ का अर्धांश पहले भी आपकी पोस्ट पर पढ़ा था, आज और ज्यादा मजेदार लगा। चाचार्य चतुरसेन, गुरूदत्त जी जैसे लेखकों की कॄतियाँ पढने में इतिहास आंखों के सामने आ खड़ा होता है।
अवधिया जी, बहुत बहुत धन्यवाद।
बहुत सुन्दर पोस्ट .
kafi lambi magar achi post
2,3 baar me padh paya
kafi achi lagi
bas isi tarah se aage sunate jaiye ham padh rahe hain.
Post a Comment