(पिछला अंक - स्वप्न वासवदत्ता - अंक 2-3 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)
(विदूषक का प्रवेश)
विदूषकः (प्रसन्नता के साथ) अन्ततः अनर्थ सलिल के भँवर से वत्सराज का उद्धार हुआ। उनके विवाहमंगल के दिन देखने को मिले। अत्यन्त प्रसन्नता की बात है कि आज मैं पुनः राजप्रासाद में बैठा हूँ, स्नान के लिए मुझे अन्तःपुर की दीर्घिकाएँ पुनः उपलब्ध हैं, लड्डू आदि सुमधुर भोजन कर रहा हूँ और अप्सराओं के संसर्ग के सिवाय अन्य सभी सुख मुझे प्राप्त हैं। कुछ दोष है तो मात्र इतना ही की भोजन मेरा पचा नहीं है जिसके कारण कोमल शैय्या पर भी मुझे निद्रा नहीं आ रही है। प्रतीत हो रहा है कि वात के समस्त लक्षण उपस्थित हो गए हैं। किन्तु अच्छे भोजन और अच्छा स्वास्थ्य के जीवन का वास्तविक सुख कहाँ?
(चेटी का प्रवेश)
चेटीः अरे! आर्य वसन्तक तो यहाँ हैं! आर्य! मैं न जाने कबसे आपको खोज रही हूँ।
विदूषकः भद्रे! मुझे खोजने में भला आपका निमित्त क्या है?
चेटीः हमारी भट्टिनी जानना चाह रही हैं कि क्या जामाता ने स्नान कर लिया है?
विदूषकः भला किसलिए जानना चाहती हैं देवि!
चेटीः ताकि पुष्प तथा अञ्जन प्रस्तुत किया जाए।
विदूषकः श्रीमान् स्नान से निवृत हो चुके हैं देवि! भोजन को छोड़कर समस्त सामग्री ले आओ।
चेटीः भोजन क्यों नहीं आर्य?
विदूषकः क्योंकि मुझ अभागे का उदर कोकिला की चक्षुओं की भाँति घूम रहा है।
चेटीः तो ऐसा ही होता रहे।
विदूषकः तो प्रस्थान करो देवि! मैं भी श्रीमान के पास जा रहा हूँ।
(पद्मावती और अवन्तिका रूपी वासवदत्ता का चेटी के साथ प्रवेश)
चेटीः भद्रदारिके! प्रमदवन में आने में आपका प्रयोजन क्या है?
पद्मावतीः प्रिये! मैं देखना चाहती हूँ कि शेफालिका के पुष्प-गुच्छ अभी खिले कि नहीं?
चेटीः अवश्य ही वे खिल चुके हैं भद्रदारिके! डालियों में लदे हुए वे पुष्प मोती की माला के मध्य गुँथे हुए मूँगे की भाँति प्रतीत हो रहे हैं। भद्रदारिके कुछ काल तक इस शिलापट्ट पर विश्राम करें तब तक मैं पुष्प तोड़ लाती हूँ।
पद्मावतीः (वासवदत्ता से) आर्ये! यहाँ विश्राम करें?
वासवदत्ताः (बैठते हुए) अवश्य!
(पद्मावती भी बैठ जाती है)
(चेटी का प्रस्थान तथा कुछ काल पश्चात् पुनः प्रवेश)
चेटीः देखें भद्रदारिके! देखें! शेफालिका के पुष्प मेरे आँचल में किस प्रकार रक्तवर्ण संखिया से चमक रहे हैं!
पद्मावतीः (पुप्षों को देखकर, वासवदत्ता से) आर्ये ये पुष्प कितने अद्भुत् प्रतीत हो रहे हैं!
वासवदत्ताः अहो! अत्यन्त सुन्दर पुष्प हैं ये!
चेटीः भद्रदारिके! क्या और पुष्प तोड़ लाऊँ?
पद्मावतीः नहीं, अब और पुष्प मत तोड़ो।
वासवदत्ताः प्रिय! और पुष्प तोड़ने से क्यों रोक रही हो?
पद्मावतीः क्योंकि आर्यपुत्र को इन पुष्पों को दिखाकर मैं उनकी दृष्टि में सम्मानित होना चाहती हूँ।
वासवदत्ताः सखी! क्या पति तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं?
पद्मावतीः यह तो मुझे ज्ञात नहीं आर्ये! किन्तु आर्यपुत्र के वियोग में मैं अत्यन्त उत्कण्ठित हो जाती हूँ।
वासवदत्ताः (स्वगत्) इसका यह कथन मेरे लिए कितना कष्टकर है।
चेटीः भद्रदारिका को पति का प्रिय होना उनके उत्तम विचारों के अनुकूल है।
पद्मावतीः किन्तु मेरे हृदय में एक सन्देह है।
वासवदत्ताः कैसा सन्देह?
पद्मावतीः क्या आर्या वासवदत्ता का आर्यपुत्र के प्रति प्रेम मेरे प्रेम जितना ही था?
वासवदत्ताः निस्सन्देह उससे भी अधिक!
पद्मावतीः भला आप यह निश्चित रूप से कैसे कह रही हैं?
वासवदत्ताः (स्वगत्) आर्यपुत्र के पक्षपात के कारण मुझसे पुनः सदाचार की सीमा का उल्लंघन हो गया। अच्छा ऐसा कहूँ। (प्रकट) यदि उनका प्रेम कम होता तो वे अपने आत्मीयजनों को त्याग न पातीं।
पद्मावतीः हाँ, यह सम्भव है।
चेटीः भद्रदारिके! आप भी अपने पति से वीणा सीखने का आग्रह करें।
पद्मावतीः यह आग्रह तो किया था मैंने आर्यपुत्र से।
वासवदत्ताः तो उन्होंने क्या कहा?
पद्मावतीः कुछ भी उत्तर न देकर वे दीर्घ निःश्वास में डूब गए।
वासवदत्ताः इसका क्या तात्पर्य निकाला तुमने?
पद्मावतीः इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि आर्या वासवदत्ता के गुणों का स्मरण करके आर्यपुत्र ने मेरे समक्ष अपने अपने अश्रुओं को प्रसंगवश रोक लिया।
वासवदत्ताः (स्वगत्) यदि यह सत्य है तो संसार में मुझसा धन्य और कौन होगा?
चेटीः भद्रिके! सारसों की उस पंक्ति को देखें जो कोकनद सी श्वेत प्रतीत हो रही है!
(उदयन और विदूषक का प्रवेश)
चेटीः (उनके प्रवेश को देखकर) भद्रदारिके, स्वामी पधार रहे हैं।
पद्मावतीः (वासवदत्ता से) आर्ये! आपके कारण मैं आर्यपुत्र के दर्शन त्याग रही हूँ। चलिए, हम इस माधवी लतामण्डप में प्रवेश करें।
(पद्मावती, वासवदत्ता और चेटी माधवी लतामण्डप में छिप जाते हैं)
विदूषकः ही ही ही ही। पवन के अविरल प्रवाह से गिरे हुए कुसुमों से यह प्रमदवन अत्यन्त रमणीय हो रहा है। उधर चलें श्रीमान्!
उदयनः मित्र वसन्तक! मैं वासवदत्ता को विस्मृत नहीं कर पा रहा हूँ। उज्जयिनी में जब मैंने प्रथम बार अवन्ती की राजकन्या को स्वच्छन्द विचरण करते देखा था तो मेरी अवस्था अकथनीय-सी हो गई थी। प्रतीत होता था कि कामदेव के पाँचों बाणों ने मेरे हृदय को भेद दिया था।
विदूषकः ऐसा प्रतीत होता है कि देवि पद्मावती यहाँ आकर लौट चुकी हैं।
उदयनः यह कैसे जाना?
विदूषकः श्रीमान्, शेफालिका की डालियों से तोड़े गए पुष्प-गुच्छों को देखकर।
उदयनः वसन्तक! कितना विस्मयकारी है इन पुष्पों का सौन्दर्य!
वासवदत्ताः (स्वगत्) वसन्तक नाम का उच्चारण सुनकर तो मुझे प्रतीत हो रहा है जैसे मैं उज्जयिनी में ही हूँ।
उदयनः वसन्तक! आओ उस शिला पर बैठकर देवि पद्मावती की प्रतीक्षा करें।
विदूषकः बहुत अच्छा। (बैठता है, फिर सहसा उठकर) ही ही। शरत्काल की यह धूप अब असह्य प्रतीत हो रही है। आइए, इस माधवी लता-मण्डप में चलें।
उदयनः (उठकर) अच्छा चलो।
(दोनों घूमते हैं)
पद्मावतीः आर्य वसन्तक तो आकुलता में अनर्थ किए दे रहे हैं। भला अब क्या उपाय करें?
चेटीः भद्रिके! लता पर लटकते मधुमक्खी के इस छत्ते को हिला कर स्वामी को विमार्ग करूँ?
पद्मावतीः ऐसा ही कर।
(चेटी वैसा ही करती है)
विदूषकः बचाओ! बचाओ! श्रीमान् वहीं रुकें। आगे न आएँ।
उदयनः (दूर से) भला क्यों?
विदूषकः मधुमक्खियाँ यहाँ डंक मार रही हैं।
उदयनः तो मित्र, तुम भी यहाँ आ जाओ। मधुकरों को भयातुर न करो। देखो, मधुमस्त मधुकरों की मदनदग्ध प्रियाएँ उन्हें आलिंगन कर रही हैं। हमारी पदध्वनि से उद्विग्न होकर वे अपनी प्रिय मधुकरों से विलग होकर विरहित हो जाएँगी। अतः यहीं बैठना ही उचित है।
(विदूषक लौटकर उदयन के पास बैठता है)
चेटीः भद्रदारिके! अब तो हम यहाँ बन्दी हो गईं।
पद्मावतीः प्रसन्नता है कि आर्यपुत्र बैठे हैं।
वासवदत्ताः (स्वगत्) सौभाग्य से आर्यपुत्र पूर्ण स्वस्थ हैं। (वासवदत्ता के नेत्रों में अश्रु आ जाते हैं)
चेटीः कुमारी! आर्या के नेत्रों में अश्रु क्यों हैं?
वासवदत्ताः मधुकरों के अविनय से काश पुष्प के उड़ते रज के मेरे नेत्रों में पड़ने से मेरे नेत्र अश्रुमय हो गए हैं।
पद्मावतीः सत्यकथन आर्या!
विदूषकः इस निर्जन प्रमदवन में मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ।
उदयनः पूछो।
विदूषकः आपको प्रियतर कौन है? पूर्वपत्नी वासवदत्ता अथवा वर्तमानपत्नी पद्मावती?
उदयनः तुम्हारे इस प्रश्न से तो मुझ पर महासंकट आ पड़ा है।
पद्मावतीः आर्ये! आर्यपुत्र कितने संकट में हैं।
वासवदत्ताः (स्वगत्) मैं भाग्यहीन भी तो संकट में हूँ।
विदूषकः निःसंकोच बताएँ श्रीमान्। वे दोनों ही यहाँ नहीं हैं। एक की मृत्यु हो चुकी है और दूसरी कहीं अन्यत्र हैं।
उदयनः मित्र, मैं कुछ कह नहीं सकता। तू बड़ा वाचाल है।
विदूषकः (जीभ काटकर) सौगन्ध खाकर कहता हूँ, मैं किसी अन्य से नहीं कहूँगा।
उदयनः कुछ भी न कह पाने के लिए विवश हूँ मित्र।
पद्मावतीः आर्य वसन्तक भी कितने मूर्ख हैं, अभी भी वे आर्यपुत्र के हृदय को नहीं जान पाए।
विदूषकः आपको कहना ही पड़ेगा। बिना कहे मैं आपको इस शिलापट्ट से एक डग भी न जाने दूँगा। आप यहाँ मेरे बन्दी हैं।
उदयनः क्या बलपूर्वक कहलाओगे?
विदूषकः हाँ बलपूर्वक ही कहलाउँगा।
उदयनः देखता हूँ कि तुम मुझ पर कैसे बल प्रयोग करते हो।
विदूषकः श्रीमान प्रसन्न हों, मुझे क्षमा करें। मैं मित्रभाव से प्रार्थना कर रहा हूँ, बलपूर्वक नहीं। अपने हृदय की बात से मुझे अवगत कराएँ।
उदयनः अब तो विवशता है, कहना ही पड़ा। तो मित्र सुनो। यद्यपि अपने रूप, शील, गुण और माधुर्य के कारण पद्मावती मुझे अत्यन्त प्रिय है किन्तु वासवदत्ता के प्रति अपनी आसक्ति को मैं विस्मृत करने में असमर्थ हूँ।
वासवदत्ताः (स्वगत्) यह सुनकर तो मेरे समस्त दुःखों का अन्त हो गया। अहो, अज्ञातवास में भी बड़ा गुण है।
चेटीः भद्रिके! देखा आपने? स्वामी कितने अनुदार हैं।
पद्मावतीः नहीं प्रिये! आर्यपुत्र अत्यन्त उदार हैं। यह उनकी उदारता ही है कि वे आर्या वासवदत्ता के गुणों का स्मरण कर हैं।
वासवदत्ताः भद्रे! तुम्हारे वचन तुम्हारे अभिजात्य कुल के अनुरूप ही हैं।
उदयनः मैं तो कह चुका। अब तुम कहो तुम्हें कौन अधिक प्रिय है - वासवदत्ता या पद्मावती?
पद्मावतीः अब आर्यपुत्र ने भी आर्य वसन्तक के मार्ग का अवलम्बन किया।
विदूषकः मित्र! प्रलाप से भला क्या लाभ? मेरे लिए तो दोनों ही देवियाँ परम आदरणीय हैं।
उदयनः मूर्ख! मुझसे बलपूर्वक कहला कर अब स्वयं क्यों नहीं कहता?
विदूषकः तो क्या मुझसे बलपूर्वक कहलाएँगे?
उदयनः बलपूर्वक ही सही।
विदूषकः तब तो कहला चुके! करिए आप बलप्रयोग, मैं कुछ भी नहीं कहने वाला।
उदयनः प्रसन्न हों महाब्राह्मण! बलपूर्वक नहीं, अपनी इच्छानुसार ही कहें।
विदूषकः देवि पद्मावती क्रोध और अहंकार से रहित तरुणी, दर्शनीया और मधुरभाषिणी हैं। वे मेरी क्षुधापूर्ति का पर्याप्त खयाल रखती हैं और मुझे सुस्वादु भोजन करवाती हैं। अतः वे मेरी आदरणीय हैं। तथापि, देवि वासवदत्ता मेरे लिए बहुत अधिक आदरणीया थीं।
वासवदत्ताः (स्वगत्) आर्य वसन्तक! आपके वचन ने तो मुझे धन्य कर दिया।
उदयनः मित्र वसन्तक! मैं तुम्हारे इस विचार से वासवदत्ता को अवश्य ही अवगत कराउँगा।
विदूषकः हे मित्र! आर्या वासवदत्ता अब कहाँ? खेद! वे तो परलोक सिधार गईं।
उदयनः (दुःखी होकर) वासवदत्ता परलोक सिधार गई? हाँ, सत्य कहा तुमने, वे अब नहीं हैं। तुम्हारे इस परिहास ने मेरे हृदय को विदीर्ण कर दिया है, इसीलिए मित्र! अभ्यासवश मेरे मुख से यह बात निकल गई।
पद्मावतीः इस नृशंस ने तो रमणीय कथा-प्रसंग का नाश ही कर दिया।
वासवदत्ताः (स्वगत्) मैं तो आश्वस्त हुई। छिपकर इन बातों को सुनना कितना प्रिय प्रतीत हो रहा है।
विदूषकः आप धैर्य धारण करें। दैव बलवान है। उसके समक्ष किसी की शक्ति कार्य नहीं करती।
उदयनः मित्र! तुम मेरी अवस्था को नहीं समझ सकते। प्रिय के प्रति असीम अनुराग को विस्मृत नहीं किया जा सकता और प्रिय के स्मरण से दुःख पुनः नवीन हो जाता है। अश्रु बहाकर शान्ति-लाभ करना ही जीवन का रूप है।
विदूषकः मित्र! यह क्या? आपके नेत्रों में अश्रु हैं और अश्रुओं से आपका मुख भीग गया है। आप यहीं बैठिए, मैं मुँह धोने के लिए जल लेकर आता हूँ।
पद्मावतीः आर्ये! आर्यपुत्र के नेत्रों में अश्रु भरे हैं अतः वे हमें देख नहीं पाएँगे। अब हम यहाँ से निकल चलें।
वासवदत्ताः तुम्हारे लिए उत्कण्ठित पति को इस अवस्था में छोड़ जाना उचित नहीं है, अतः तुम रुक जाओ। मैं चली जाती हूँ।
चेटीः (पद्मावती से) आर्या ने उचित कहा। भद्रदारिके चलिए स्वामी के पास चलें।
पद्मावतीः क्या सचमुच मैं आर्यपुत्र के पास जाऊँ।
वासवदत्ताः हाँ, हाँ, तुम जाओ।
(उदयन के पास जाती हुई वासवदत्ता से मार्ग में कमलपत्र में जल लिए विदूषक आ मिलता है)
विदूषकः देवि पद्मावती! आप आ गईं?
पद्मावतीः आर्य वसन्तक! क्या बात है?
विदूषकः बात यह है.... बात यह है कि ...
पद्मावतीः हाँ, हाँ, कहें आर्य।
विदूषकः बात यह है कि वायुचालित काश पुष्प के रज महाराज के नेत्रों में पड़ जाने के कारण उनका मुख अश्रुओं से भीग गया है। उनका मुख धोने के लिए यह जल है।
(पद्मावती विदूषक से जल अपने हाथों में ले लेती है)
पद्मावतीः (स्वगत्) अहा! उदार स्वामी के परिजन भी उदार ही होते हैं। (उदयन के पास जाकर, प्रकट) आर्यपुत्र की जय हो! मुख धोने के लिए यह जल है।
उदयनः आह! पद्मावती! (वसन्तक की ओर मुख करके) वसन्तक, यह क्या?
वसन्तकः (कान में धीरे से) आर्या पद्मावती से मैंने आपके नेत्रों में काश-पुष्प-रज पड़ जाने की बात कही है।
उदयनः (वसन्तक के कान में) यह तुमने बहुत अच्छा किया। (जल से मुख धोकर) पद्मावती! बैठो।
पद्मावतीः जैसी आपकी आज्ञा! (बैठ जाती है)
उदयनः (स्वगत्) यह नववधू निस्सन्देह धीर स्वभाव वाली है किन्तु स्त्रियाँ स्वभावतः कातर होती हैं इसलिए सत्य को सुनकर यह दुःखी हो जाएगी। (प्रकट) प्राणवल्लभे! शरत् के चन्द्र के समान श्वेत काश के पुष्पों के रज नेत्रों में पड़ जाने से अश्रु आ गए थे।
विदूषकः क्या आपको स्मरण है कि मगधराज ने आपके सत्कार के लिए आपको बुलवाया था? सच है कि सत्कार से प्रीति में वृद्धि होती है। अपराह्न की बेला हो चुकी है अतः चलिए मगधराज के दर्शनों के लिए चलें।
उदयनः बहुत उचित कहा मित्र! चलें, प्रस्थान करें।
(सबका प्रस्थान)
(अंक 4 समाप्त)
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ावधिया जी पहले पिछले अंक पडः लूँ कल आती हूँ। कई दिन से कम्प्यूटर खराब था। आभार।
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