उपरोक्त चित्र दिल्ली के लालकिले में लगे शिलापट्ट का है जिसके अनुसार आधुनिक पुरातत्ववेत्ता इस बात का ढिंढोरा पीटते हैं कि दिल्ली के लाल किले को शाहजहां (जिसने 1628 से 1658 ई. तक शासन किया था) ने सन् 1639 से 1648 के दौरान बनवाया था। | उपरोक्त चित्र बोडलियन पुस्तकालय, ऑक्सफोर्ड (Bodleian Library, Oxford) में सुरक्षित समकालीन पेंटिंग का है जिसके अनुसार शाहजहां ने सन् 1628 में लाल किले के दीवान-ए-आम में फ़ारसी राजदूत का स्वागत् किया था। यह चित्र इल्युस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया के 14 मार्च 1971 के अंक (पृष्ठ 32) में भी प्रकाशित हुआ था। |
शाहजहां ने सन् 1628 में फारसी राजदूत का स्वागत उस भवन में कैसे किया आधुनिक पुरातत्वविदों के अनुसार जिसका अस्तित्व ही नहीं था? आधुनिक पुरातत्वविदों के अनुसार तो लाल किले का निर्माण सन् 1639 से 1648 के दौरान हुआ है।
(चित्रों को बड़ा करके देखने के लिए उन पर क्लिक करें, चित्र http://www.stephen-knapp.com से साभार)
8 comments:
khoj ka bishay hai |
घोर आश्चर्य, यह असत्य अब तक जीवित है।
पी एन ओक को पढिये, उसने खोले हैं इनके राज तो।
अच्छा खोज निकाला आपने. स्वागत किये जाने की कोई तिथि तो दी नहीं है. सन दिया है और उसके सामने सिरका भी लिखा है.गुरुदेव उन्हें क्षमा कर दें. २०/२५ साल का अंतर सिरका के साथ बना ही रहता है.
अवधियाजी,
नमस्कार, जिस चित्र का आप जिक्र कर रहे हैं पुस्तक में उसके कैप्शन में त्रुटि है, असल में इस तस्वीर/पेंटिंग लाहौर के किले की है। आजकल जरा व्यस्त हूँ इसलिये सन्दर्भ खोजकर देने में समय लगेगा लेकिन इंटरनेट पर इस चित्र पर बहुत चर्चायें हो चुकी हैं। लेकिन भला हो इस इंटरनेट का कि कांसपिरेसी थ्योरीज और त्रुटियां कभी सुधर नहीं पाती।
आभार,
नीरज रोहिल्ला
इतिहास में ऐसी ढेरों जानकारियां हैं, जो पहली नजर में भ्रामक जान पड़ती हैं और कई बार मूल स्रोतों के इस्तेमाल में हुई चूक से भी ऐसा होता है. ऐसे प्रश्नों के लिए उपलब्ध स्रोतों का बारीकी से अनुशीलन जरूरी होता है, तभी कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है, किन्तु निसंदेह इस हेतु जिज्ञासापूर्ण प्रश्न, जैसा आपने यहां उपस्थित किया है, आवश्यक होता है.
सत्तासीन होने पर जैसा इतिहास चाहो लिखवालो ३६ साल अबू धाबी में रहकर हमने जो देखा है यहों के इतिहास की किताब में वह नहीं लिखा है जो हमने देखा है इसलिए हमारा विश्वास इतिहास की किताब और इतिहासकारो पर से उठ गया है इस विषय पर ध्यान देना अपना समय बर्बाद करना है वह हमने भी करदिया टिप्पड़ी लिखने में
कि अपनी 53 पेज की कविता "पुरातत्ववेत्ता " से चन्द पंक्तियाँ .......
यह अवकाश के मानस में
कल्पनाओं के भग्नचित्र नहीं है
न विधाता की तूलिका से चित्रित
कोई अधूरा लैंडस्कैप
इसे कुदरत का कहर मान कर
जब दुनिया के तमाम धर्मग्रंथ
पटाक्षेप की मुहर लगा देते हैं
मनुष्य की नियति पर
जीवन के इस उजाड़ में पुरातत्ववेत्ता
अलावा इसके
आततायियों के घोड़ों की टापों की आवाज़ सुनते हैं
कि उनमें है
ब्योरों को इतिहास की शक्ल में प्रस्तुत करने का सामर्थ्य
और सच को झूठ साबित करने का इंसानी हुनर भी
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