Saturday, January 15, 2011

भलाई इसी में है कि हम अपने ज्ञान के लिए विदेशियों पर ही आश्रित रहें

जब मैक्समूलर या कनिंघम जैसे विदेशी विद्वान कहते या लिखते हैं:
"आर्य इण्डो-यूरोपियन बोली बोलने वाले, घुड़सवारी करने वाले तथा यूरेशिया के सूखे घास के मैदान में रहने वाले खानाबदोश थे जिन्होंने ई.पू. 1700 में भारत की सिन्धु घाटी की नगरीय सभ्यता पर आक्रमण कर के उसका विनाश कर डाला और इन्हीं आर्य के वंशजों ने उनके आक्रमण से लगभग 1200 वर्ष बाद आर्य या वैदिक सभ्यता की नींव रखी और वेदों की रचना की।" 
 तो हम उनके कथन को ब्रह्मवाक्य समझ लेते हैं, हमें लगता है कि उनके कथन पत्थर की लकीर हैं। हम उनके कहे हुए को ऐसा सत्य मान लेते हैं मानो उन पाश्चात्य विद्वानों ने आर्यों को भारत में आते और सिंधु घाटी की नगरीय सभ्यता पर आक्रमण करके नष्ट करते हुए स्वयं अपनी आँखों से देखा था। हमें पता है कि खानाबदोश जाति असभ्य नहीं तो अर्धसभ्य ही होती है पूर्णतः सभ्य नहीं, फिर भी हम प्रश्न नहीं करते कि उस असभ्य जाति ने सिंधु घाटी सभ्यता के अत्यन्त सभ्य जाति का खात्मा कैसे कर डाला? उसके बाद वे  1200 वर्षों तक कहाँ गायब हो गए? उन  1200 वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि इण्डो-यूरोपियन बोली बोलने वाले पूर्णतः शुद्ध तथा वैज्ञानिक भाषा संस्कृत बोलने तथा वेदों की रचना करने में समर्थ हो गए? हम थोड़ी देर के लिए भी नहीं सोचते कि इस बात के सैकड़ों पुरातात्विक प्रमाण हैं कि सिन्धु घाटी के के लोग बहुत अधिक सभ्य और समृद्ध थे जबकि इन तथाकथित घुड़सवार खानाबदोश आर्य जाति के विषय में कहीं कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

दूसरी ओर जब अयोध्या, मिथिला या विशाला नगरी के विषय में जब वाल्मीकि लिखते हैं:
"वहाँ की बड़ी बड़ी दुकानें, अमूल्य आभूषणों को धारण किये हुये स्त्री-पुरुष आदि नगर की सम्पन्नता का परिचय दे रहे थे। चौड़ी-चौड़ी और साफ सुथरी सड़कों को देख कर ज्ञात होता था कि नगर के रख-रखाव और व्यवस्था बहुत ही सुन्दर और प्रशंसनीय थी।" 
 तो हम उनके कथन को कवि की कल्पना मान लेते हैं। हमें अयोध्या, मिथिला या विशाला नगरी के अस्तित्व के विषय में विश्वास नहीं हो पाता। हम जरा भी नहीं सोचते कि यह इतिहास का एक अंश है। हमें नहीं लगता कि वाल्मीकि ने चौड़ी-चौड़ी, साफ-सुथरी सड़कें, बड़ी-बड़ी दूकानें, बहुमूल्य आभूषण धारण करने वाले स्त्री-पुरुषों को स्वयं देखा था। वाल्मीकि रामायण काल की जिस सभ्यता का वर्णन करते हैं उसे देखे बिना उसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

कहा गया है "घर के जोगी जोगड़ा, आन गाँव के सिद्ध"। वाल्मीकि, वेदव्यास, कालिदास आदि हमारे लिए घर के जोगी हैं इसलिए हमारी नजरों में वे मात्र जोगड़ा हैं जबकि मैक्समूलर, कनिंघम आदि आन गाँव से आए जोगी हैं इसलिए वे सिद्ध हैं। आखिर जोगड़ा जोगड़ा होता है और सिद्ध सिद्ध! जोगड़ा सत्य का बखान करे तो भी वह कपोल-कल्पना है और सिद्ध की कल्पना भी सत्य!

हमारे देश की शिक्षा नीति हमारे भीतर विदेशी ज्ञान विज्ञान के प्रति आसक्ति और हमारे पूर्वजों के ज्ञान, हमारी स्वयं की भाषा, ग्रंथ, सभ्यता, संस्कृति के प्रति विरक्ति देती है। बहुत बड़ी विडम्बना है यह हमारे लिए।

हम अपने ग्रंथों को तो पढ़ना ही नहीं चाहते। और चाहें भी तो पढ़ें कैसे? उसके लिए तो संस्कृत का ज्ञान होना आवश्यक है। अब ग्रंथों को पढ़ने के लिए भला संस्कृत कौन सीखे? यदि संस्कृत सीखकर ग्रंथों को पढ़ भी लें तो भी क्या होगा? आप यदि उसमें निहित ज्ञान को किसी को देना चाहेंगे तो वह लेने से ही इंकार कर देगा। इसलिए भलाई इसी में है कि हम अपने ज्ञान के लिए विदेशियों पर ही आश्रित रहें।

9 comments:

अन्तर सोहिल said...

सही कहा जी

संस्कृत जानने और पढने वालों की उपेक्षा शिक्षा नीति की ही देन है।
संस्कृत भाषा को समुचित आदर ना मिलने के कारण ही हमें विदेशियों पर आश्रित होना पड रहा है।

प्रणाम

प्रवीण पाण्डेय said...

अंग्रेज अपने ध्येय में सफल रहे हैं, हमें अपने इतिहास तुच्छ लगने लगा है। धिक्कार है हम पर।

सुज्ञ said...

विदेशीयों नें योजनापूर्वक ही हमारे इतिहास को विकृत किया है। और हम उस विकृत इतिहास को स्वीकृत कर रहे है। पहले आर्य को जाति सिद्ध कर दिया, जबकि वह सम्मान सूचक शब्द था, फ़िर उसे युरोपीयन मूल से जोड दिया, ताकि युरोपीयन खानाबदोशी को भी श्रेष्ठ सभ्य साबित किया जाय। फ़िर अन्य सभ्यताओ को नष्ट करने वाला सिद्ध कर दिया, ताकि हम पौराणिक सफल श्रेष्ठ सभ्यता का गौरव न ले सकें।

और इस कार्य में हमारे पश्चिमपरस्त जयचंद इतिहासकार सामिल है। जो लगातार हमें तुच्छता का बोध करवाए जा रहे है।

समृद्ध विचारधाराएँ होते हुए भी बाहरी देशों की विचारधाराओं का आकृमण निरंतर जारी है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

हम अपना सिर कुल्हाड़ी में मारने में दक्ष हैं..

Rahul Singh said...

इतिहास, विशेष कर पुरातत्‍व के लिए, वस्‍तुगत प्रमाण अधिक विश्‍वसनीय माने जाते हैं, बनिस्‍बत साहित्यिक प्रमाणों के.

Unknown said...

@ Rahul Singh

वही तो मैं भी पूछ रहा हूँ राहुल जी कि आर्यों के इण्डो-यूरोपियन बोली बोलने वाले के, घुड़सवारी करने वाले के तथा यूरेशिया के सूखे घास के मैदान में रहने वाले खानाबदोश होने के, सिन्धु घाटी की नगरीय सभ्यता पर आक्रमण कर के उसका विनाश करने के तथा आदि आदि इत्यादि के कौन से वस्तुगत प्रमाण हैं?

राज भाटिय़ा said...

हमे अपने बुजुगो की बाते एक पागपन सी लगती हे, इन गोरो की गालियां भी हमे लुभाती हे, बस यही फ़र्क के विदेशी शिक्षा ओर अपने वेद पुराणो मे फ़र्क करने वालो के लिये... काश हम अपनी शिक्षा पद्धति को समझते

Unknown said...

yah sab bat karana aaj ke yug me sampradayikata ka nishani hai aaj ke sabhy kahe jane wale logo ki soch hai kya kah sakate hai ?lokatantr jindabad ..!

निर्झर'नीर said...

mansik taur par aaj bhi gulaam hi hai hum ..jab tak man se swdesh or swdeshi ko swikar nahi karenge tab tak ye gulami se aazadi nahi milega ..