Tuesday, September 18, 2007

धान के देश में - 10

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 10 -
अपने बेटे भोला के निर्दय हाथों से तमाचे खाने के बाद दुर्गाप्रसाद ने अत्यधिक लज्जा और ग्लानि का अनुभव किया। किसी को मुँह दिखाने की इच्छा नहीं होती थी। समस्त संसार उसे सूना लग रहा था। जीवन बोझ लगने लगा था। आँखों के सामने अंधेरा सा छाया रहता था। भूख-प्यास मर चुकी थी। घर के भीतर चुपचाप लेटे या बैठे रहना उसकी दिनचर्या बन गई थी। पूरे पन्द्रह दिनों तक घर से बाहर ही नहीं निकला।

घोर निराशा में डूबा हुआ वह घर में बैठा था कि सहसा एक विचार उसके मन में कौंधा, आशा की एक क्षीण किरण उसे नजर आई। एक पल के लिये उसके चेहरे से उदासीनता गायब सी हो गई। वह विचार करने लगा कि जो वह सोच रहा है क्या वह वास्तव में हो पायेगा, क्या राजो मानेगी। कभी उसे लगता कि प्रयास करने में क्या हर्ज है शायद राजो मान जाये। फिर सोचता कि कहीं राजो ने उसका अपमान करके निकाल दिया तो? बहुत देर तक वह आशा और निराशा के हिंडोले में झूलता उहापोह में पड़ा रहा। आखिर एकाएक वह उठ खड़ा हुआ। धोती और 'सलूखा' पहन, हाथ में लाठी ले खुड़मुड़ी की ओर चल पड़ा।

चलते-चलते उसके मन में एक विचार आता था तो एक विचार जाता था। कभी आशा से उसका चेहरा चमक उठता था तो कभी वह घोर निराशा में डूब जाता था और चेहरे पर उदासीनता की कालिमा छा जाती थी। गहन चिन्तन में डूबे वह लम्बे-लम्बे डग बढ़ाता चला जा रहा था। उसे पता ही नहीं चला कि तेज कदमों से चलता हुआ वह कब खुड़मुड़ी पहुँच गया। वह सीधे राजवती के घर के सामने पहुँचा किन्तु वहाँ तो ताला जड़ा हुआ था। दुर्गाप्रसाद को आश्चर्य हुआ और उसकी निराशा भी बढ़ गई।

वहाँ तक आते समय दुर्गाप्रसाद ने देखा था कि रास्ते में गाँव का नाई एक पेड़ के नीचे किसी की हजामत बना रहा था। वह वापस और चैनसिंह के पास पहुँचा। तब तक हजामत बनवाने वाला जा चुका था और चैनसिंह अपना सामान समेट रहा था।

दुर्गाप्रसाद ने चैनसिंह से कहा, "राम राम ठाकुर।"

"राम राम जी मण्डल" चैनसिंह ने भी जवाब दिया।

फिर बिना कुछ भूमिका के ही दुर्गाप्रसाद ने तुरन्त उत्तर दिया, "राजो से मिलने आया था चैन, पर उसके घर में ताला लगा है।"

"आजकल तो वह यहाँ नहीं रहती। वह तुम्हें रायपुर में मिलेगी। आवो, बैठो, चिलम पी लो।" चैनसिंह ने सूचना देते हुये कहा।

दुर्गाप्रसाद बोला, "नहीं भैया, मुझे मत रोको। मैं अभी ही रायपुर जाउँगा।"

"चिलम पीने में देर ही कितनी लगेगी। लो चिलम तैयार भी हो गई-" कहते-कहते चैनसिंह ने अपनी धोती के एक छोर से गाँठ में बँधी हुई तमाखू के सूखे पत्ते का एक टुकड़ा निकाला और उसे बायीं हथेली पर रखा। दाहिने हाथ के अँगूठे से रगड़ कर चूरा करने के बाद उसे चिलम में भरा और उसे जला कर अपने मुँह पर रख दिया। उसने एक बड़े जोर की कश खींची और फिर चिलम दुर्गाप्रसाद के हाथ में दे दिया। दुर्गाप्रसाद ने भी एक के बाद एक लगातार दो-तीन कश लेकर मुँह और नाक से धुँआ बाहर फेंका और चिलम वापस करके "अच्छा, चलता हूँ चैनसिंह।" कहते हुये रायपुर की ओर चल पड़ा। रायपुर की ओर ज्यों-ज्यों उसके कदम बढ़ते जाते थे त्यों-त्यों उसके मन में उथल-पुथल बढ़ती जाती थी। सिकोला से खुड़मुड़ी तक तो वह निश्चिंत चला आया था मानो किसी ने उस पर चलते ही रहने का जादू कर दिया हो। पर अब उसके हृदय में एक साथ ही लज्जा, ग्लानि, पश्चाताप, आशा और निराशा की आँधी उठ रही थी। फिर भी आशा के तेज झकोरे उसे रायपुर की ओर बढ़ाते जा रहे थे।

(क्रमशः)

No comments: