(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
- 11 -
आग और घी साथ साथ रख दिये जावें और आग न भड़के! ज्वाला न उठे! यह तो प्रकृति के रोकने से भी नहीं रुक सकता। यही नियम महेन्द्र और श्यामवती के जीवन में भी काम कर रहा था। साथ रहते रहते तो दो दिन में ही किसी धर्मशाला में दो यात्रियों के हृदय में एक दूसरे के प्रति सहानुभूति और स्नेह का अंश उत्पन्न हो जाता है। फिर महेन्द्र और श्यामवती तो बरसों से साथ रह रहे थे। इसलिये एक दूसरे से प्रेम हो जाना आश्चर्य का विषय नहीं था। वरन् यह तो स्वाभाविक ही था। यद्यपि वे बहुत दिनों से एक दूसरे की ओर खिंचते जा रहे थे तो भी वे अपने अपने हृदय में छोटी छोटी लहरों की भाँति उमड़ते हुये आकर्षण को पहले भाँप नहीं सके। सब कुछ समझ सकें तब दोनों हृदय को कसक और वेदना मन में ही दबा कर रखने लगे।
उस दिन रविवार था। महेन्द्र, सदाराम और श्यामवती ने सरोना जा कर छुट्टी बिताने का निश्चय किया था। सबेरे से ही तीनों पैदल ही चल पड़े। पैदल इसलिये कि सरोना रायपुर से पश्चिम में केवल तीन मील ही दूर है। उन लोगों ने हलवाई की दूकान से खरीद कर कुछ मिठाई और पूरियाँ रख लीं। रास्ते में अनेकों विषयों पर बातें करते हुये वे सरोना पहुँच गये। सरोना बड़ा ही रमणीक स्थान है। यहाँ पास पास ही दो तालाब हैं जिनके बीच भगवान शंकर का सुन्दर मन्दिर है। शिवालय के बायीं ओर वाले तालाब में बड़े सुन्दर घाट बने हुये हैं। दहिनी ओर के तालाब में सीढ़ियाँ नहीं हैं। मन्दिर के सामने वाले तट पर से मन्दिर तक जाने की पगडण्डी है। सामने से लगभग पचास कदम की दूरी से देखने पर दोनों तालाब और शिवालय मनोरम दृश्य के साथ दिखाई पड़ते हैं। तालाबों में हवा के झोकों से सदा ही छोड़ी छोटी लहरियाँ उठती रहती हैं। निर्मल जल के कमल पत्रों की भरमार रहती है। कुछ जल-पक्षी निर्मल जल की सतह पर सदैव तैरते रहते हैं। कुछ पक्षी कलरव करते हुये तालाब से किनारे के वृक्षों तक और वृक्षों से तालाब तक उड़ते हुये प्रकृति को नित्य आकर्षक बनाते रहते हैं। तालाबों के चारों ओर फूलों से लदे हुये पौधो और विशाल वृक्षों की घनी झुरमुट है। दूर से देखने पर एक सघन झाड़ी ही दिखाई देती है जिसके बीच शिवालय का चूने से पुता हुआ सफेद ऊपरी भाग दिखाई देता है। वृक्षों में आम के पेड़ ही अधिक हैं। दूसरे पेड़ लाल और पीले कनेर के तथा असंख्य सफेद आँखों से देखती हुई चमेली के हैं। शिव-मन्दिर के ठीक सामने हनुमान जी का छोटा सा मन्दिर है जहाँ गदा और पर्वत लिये बजरंगबली विराजमान हैं। दाहिनी ओर मुख्य मन्दिर से सटा हुआ भगवान राम का मन्दिर है। खुले हुये छोटे-से चौगान में क्यारियाँ बनाई गईं हैं जिनमें रंग-बिरंगे फूलों के पौधे उगाये गये हैं। प्रवेश-द्वार के पास ही भीतर नन्दी की मूर्ति है और उसके ठीक ऊपर ही बड़ा सा घंटा टंगा है। जैसे ही महेन्द्र, श्यामवती और सदाराम झुरमुट के पास पहुँचे, मन्दिर के भीतर किसी ने 'टन्न' से घंटा बजाया जिसकी ध्वनि गम्भीर घोष के साथ कुछ देर तक गूँजती रही। तीनों ने झुरमुट में एक साफ स्थान देख कर आसन जमाया। वहाँ सामान रख कर वे स्नान करने चले गये। स्नानोपरांत उन्होंने शिवजी का दर्शन किया। तब तक भोजन करने का समय भी हो चुका था।
भोजन कनरने के पहले सदाराम ने कहा, "पूरियाँ थोड़ी-सी हैं। मिठाई से पेट भरने का नहीं। दूध होता तो बड़ा अच्छा होता।"
"तो क्या किया जाय?" महेन्द्र ने पूछा।
"यही किया जाय कि मैं गाँव तक जाता हूँ और दूध लेकर अभी आता हूँ।" कहते हुये सदाराम उठ खड़ा हुआ और लगभग दो फर्लांग की दूरी पर स्थित गाँव की ओर चला गया।
श्यामवती और महेन्द्र अकेले रह गये। इस प्रकार एकान्त में रहने का उनका यह पहला ही अवसर था। श्यामवती के सिर से उसकी गुलाबी साड़ी का आँचल कुछ नीचे खिसक गया था। उसके केश घने काले बादलों की तरह दिखाई दे रहे थे। माथे पर एकाध लट हवा के हल्के झोंके में इधर-उधर उड़ रही थी। महेन्द्र की आँखें उसके चिबुक से कपोल और कपोल से लटों तक विचर रहीं थीं। दोनों के दिल की धड़कन बढ़ गई थी। हृदय में एक अद्भुत गुदगुदी के साथ कम्पन भी था। श्यामवती सिर नीचा किये कनखियों से महेन्द्र की मोहिनी मुद्रा को निहार रही थी। कुछ क्षणों तक दोनों स्तब्ध और शान्त रहे। वातावरण शन्त था। केवल किसी पक्षियों का मधुर स्वर रह रह कर शान्ति भंग कर देता था। महेन्द्र ने मुस्कुराते हुये कहा, "श्यामा, आज तुम यहाँ खाना बनाती तो वह स्वर्ग के भोजन से भी अधिक स्वादिष्ट होता।"
कुछ संकोच के साथ श्यामवती ने सिर ऊपर कर महेन्द्र के चेहरे पर आँखें गड़ा दीं और मधुर मुस्कान से अपने ओठों की सुन्दरता दुगुनी करती हुई बोली, "तो तुमने पहले क्यों नहीं कहा। मिठाई और पूरी खरीद क्यों लाये? मैं यहीं खाना पका देती।" सहसा कुछ आवेश से श्यामवती की कलाई पकड़ कर महेन्द्र ने कहा, "भोजन पकाने से तुम्हारी यह नरम कलाई मोच न खा जाती - थक जाती। इसीलिये नहीं कहा, समझी।"
"चलो हटो। मुझे इतनी कमजोर समझते हो।" कह कर श्यामा ने कटाक्ष किया पर हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की। दोनों के शरीर में बिजली की लहर-सी दौड़ रही थी। दोनों बेसुध-से हुये जा रहे थे। श्यामवती सिहरन के साथ अद्भुत आनन्द का अनुभव कर रही थी। उसकी इच्छा हो रही थी कि महेन्द्र प्रलय तक और उसके बाद भी उसकी कलाई पकड़ा ही रहे और वह उसके वक्ष में सिर टिका कर शिथिल हो, वहीं अपना समस्त जीवन व्यतीत कर दे। बरसों की दबी हुई भावना उभर आई थी।
"अरे, हाथ क्यों पकड़ लिया तुमने? क्या जीवन भर के लिये मेरा हाथ पकड़ोगे?-" श्यामवती एक ही सांस में जाने किस प्रेरणा के आवेश में कह गई, मानो उसका हृदय ग्रामोफोन का रेकार्ड हो जो प्रेरणा रूपी सुई से बज उठा हो।
"निश्चय तो यही है श्यामा कि तुम्हारा हाथ जीवन भर के लिये पकड़ा रहूँ।" गम्भीरता से कलाई से हाथ हटा कर अपनी हथेली पर रख कर उसे कुछ दबाया। श्यामवती न कुछ बोली और न इसका कुछ विरोध ही किया। उसे ऐसा लगा मानो वह पृथ्वी से ऊपर सातवें आसमान में पहुँच गई है। वहाँ चारों ओर केवल प्रकाश जगमगा रहा है। दो ओर रुपहले खम्भे हैं जिन पर दिव्य ज्योति सिंहासन पर महेन्द्र बैठा है और वह उसके चरणों पर पुष्पांजलि समर्पित कर रही है। महेन्द्र ने उसे अपनी बायीं ओर बैठा लिया है। कुछ ही क्षणों में उसे होश आया। वह सहमी-सी ठंडी श्वास छोड़ती हुई बोली, मेरा ऐसा भाग्य कहाँ? इस बात को क्या मेरी माँ, तुम्हारी माताजी और दादा जी पसन्द करेंगे?"
"हाँ यह तो है" कहकर महेन्द्र भी उदास हो गया। वह वो जमाना था जब लड़के-लड़कियाँ उद्दंडता या माँ-बाप की परवाह न करते हुये आत्महत्या न करके विरह की आग में तिल-तिल कर जलना स्वीकार कर लेते थे।
"महेन्द्र," रुँधे गले से श्यामवती कहने लगी, "मेरा हृदय तो तुम्हारा हो चुका है और तुम भी मेरे हो। पर इससे क्या? इस जन्म में तो हम एक दूसरे के होकर भी मिल नहीं सकते पर अगले जन्म में हम अवश्य ही साथ-साथ रह कर जीवन बितायेंगे।" उसकी आँखें छलछला रही थीं।
"हाँ श्यामा, तुम्हारा कहना ठीक ही है। हृदय पर पत्थर रख कर वेदना में तड़पते हुये ही हमें जीवन बिताना पड़ेगा।" कह कर महेन्द्र ने धीरे से श्यामवती का हाथ छोड़ दिया। दो तीन मिनट तक दोनों ऐसे ही शान्त बैठे रेहे जैसे दोनों का कुछ खो गया हो। इसी बीच महेन्द्र की इच्छा हुई कि वह श्यामवती को अपने बाहुपाश में कस कर जकड़ते हुये आलिंगन कर ले पर उसी क्षण दूध ले कर सदाराम वापस आ गया।
जब वे सरोना से लौटे तो शाम हो चुकी थी।
(क्रमशः)
No comments:
Post a Comment