(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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राजवती ने जब से सिकोला छोड़ा तबसे दुर्गाप्रसाद उदास रहने लगा। उसने कभी नहीं सोंचा था कि राजो अपने निश्चय में इतनी अटल होगी और सिकोला छोड़कर चली ही जावेगी। उसके सभी अरमान मिट्टी में मिल गये। राजो के ऊपर उसे बहुत क्रोध आया। एक पैशाचिक विचार भी उसके मन में उठा कि क्यों न वह राजो का अपने साथ सम्बन्ध होने की बात पूरे गाँव में फैला कर उसे बदनाम कर दे। ऐसा करने से राजो स्वयं ही बदनामी से बचने के लिये उसका हाथ पकड़ लेगी। पर तत्काल ही उसके आत्मा ने उसे ठोकर दी। बेचारी अबला के साथ इस प्रकार का व्यवहार करना अन्याय है। और फिर इस तरह से बिना उसकी मर्जी के उसे अपने घर ले आने से क्या जीवन सुखी होगा? बदनामी सहकर भी यदि वह मेरे घर नहीं आई तो? अन्त में दुर्गाप्रसाद ने निश्चय किया कि वह अप राजवती का नाम तक नहीं लेगा। साथ ही साथ किसी दूसरी स्त्री का सपने में भी ध्यान तक नहीं करेगा। अपने बेटे भोला के सहारे शेष जीवन काट देगा।कालचक्र चलता गया। क्षण घण्टों में, घण्टे दिनों में, दिन महीनों और महीने वर्षों में सरकने लगे। दुर्गाप्रसाद खेती-किसानी में कड़ी से कड़ी मेहनत कर रहा था। दो चार सौ बचाने की उसकी बड़ी साध थी पर उसका भाग्य ही अच्छा नहीं था। उसका बेटा भोला कपूत निकल गया था। वह अब सोलह-सत्रह वर्ष का हो चुका था। दु्र्गाप्रसाद जो कुछ बचाता था, भोला उसे उड़ा देता था। इकलौता होने के कारण वह दुर्गाप्रसाद के लिये शनीचर का अवतार सा हो गया। धीरे-धीरे एक-एक कर उसे बुरी लत लगने लगी। शरीर से तो वह बलिष्ठ था ही, उसे पहलवानी का भी शौक था। ताकत के दम्भ में वह लोगों को अकारण ही सताता भी था। सबेरे तालाब पर अड्डा जमा लेता और औरतों से छेड़-छाल कर दोपहर तक 'ददरिया' (छत्तीसगढ़ का एक लोकगीत) गाता रहता था। अक्सर वह गा उठता था -
बटकी में बासी अउ चुटकी में नून।
मैं गावथँव ददरिया तैं खड़े-खड़े सुन॥
फुटहा रे मन्दिर के कलस नइ हे।
जिनगानी बीतथय, तोर दरस नइ हे॥
भोला दिन तो ताश और जुआ खेल कर बिताता और आधी रात तक भूत, प्रेत, टोनही और डायनों की खोज में खेतों, नालों और श्मशान की खाक छानता था। कभी-कभी वह केवल छोटी सी धोती पहना हुआ नंग धड़ंग किसी भैंसे की पीठ पर उचक कर बैठ जाता और सीटी बजाते हुये दूर तक भैंसे की सवारी किया चलता चला जाता। उस समय भोला साक्षात् यमराज जान पड़ता था।
दुर्गाप्रसाद बहुत दुःखी था। उसे समझा समझा कर थक गया था। वह सदैव उससे यही कहता, "बेटा मेरी ओर देखो। गाँव में मेरी जो इज्जत बनी हुई है उसे मिट्टी में मत मिलावो। खेती-बाड़ी की ओर ध्यान दो। मेरे जीते जी सँभल जावो।" जब तक वह समझाता भोला उसे आग बरसाती हुई आँखों से देखता, पर अपने उबलते हुये गु्स्से को दबाकर बाप-बेटे की मर्यादा नहीं टूटने देता था।
एक दिन दुर्गाप्रसाद कहीं गया हुआ था। घर सूना था। अवसर पाकर भोला ने कोठे से बहुत-सा धान निकाला। किन्तु अचानक ही दुर्गाप्रसाद वापस आ गया। भोला को बहुत सा धान निकाले देख कर समझ गया कि अनाज सस्ते दामों में बेच कर भोला जुआ खेलेगा। उससे न रहा गया। कड़क कर बोला, "भोला, अनाज कहाँ ले जा रहा है? रख दे सब वापस कोठे में।"
सुनते ही भोला घायल शेर की तरह गरज कर बोला, "क्यों? क्या इस अनाज पर मेरा कोई हक नहीं है? क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूँ?"
यद्यपि भोला का उत्तर क्रोध से भरा हुआ था तो भी उसमें पिता-पुत्र का नाता व्यक्त होने के कारण दुर्गाप्रसाद के क्रोध को कुछ शीतल कर गया। उसने कुछ नरमाहट से कहा, "बेटा, ऐसी बात नहीं है। अनाज ही क्या सब कुछ तुम्हारा है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम सब कुछ जुये में बर्बाद कर दो।"
"जुआ खेलूँ या डाका डालूँ - तुम्हें क्या। तुमने जन्म दिया है, मेरे भाग्य के ठेकेदार तो नहीं हो। मैं तो धान बेचकर ही रहूँगा।" भोला गरजा।
अब दुर्गाप्रसाद से भी नहीं रहा गया। फुफकारते हुये उसने कहा, "देखता हूँ कैसे ले जाता है अनाज। कुछ कमाया भी है या बस फूँकना ही सीखा है।"
"क्यों कमाऊँ? क्या तुम मर गये हो जो मैं काम करूँ?" भोला ने टका सा उत्तर दिया। सुनकर दुर्गाप्रसाद तिलमिला उठा। उसने गरजते हुये कहा, "बस बहुत हो गया। रख दे अनाज।" इतना कहकर उसने स्वयं ही धान को वापस कोठे में रखने के लिये उठाना शुरू किया। भोला से रहा न गया। उसने उछल कर पिता का हाथ पकड़ लिया और मरोड़ने लगा। फिर उसे दो तमाचे जमाये और एक जोरदार धक्का दिया जिससे दुर्गाप्रसाद धम्म से जमीन पर गिर गया। इतना करके भोला गुस्से में बड़बड़ाता हुआ बाहर चला गया बिखरा हुआ बाप-बेटे के बीच मर्यादा टूटने का साक्षी बना धान ज्यों का त्यों पड़ा था।
दुर्गाप्रसाद की आँखों के सामने अंधेरा सा छा गया। वह धीरे-धीरे उठा। हल्ला सुनकर कुछ लोग आँगन में जमा हो गये थे किन्तु बीच-बचाव करने का साहस किसी में न था। भोला के जाने के बाद एक ने दुर्गाप्रसाद को संभाला तो दूसरा भोला को कोसता हुआ बोला, "बड़ा कपूत है। आज तो बाप का भी लिहाज नहीं किया।" दुर्गाप्रसाद ने संयत स्वर में कहा, "जाने दो भैया, कोस कर क्या मैं अपना बुरा चेतूँ? इकलौता है न। इसीलिये सिर पर चढ़ा है। भाग तो मेरे ही फूटे हैं।"
लोगों को दुर्गाप्रसाद पर बड़ा तरस आया।
(क्रमशः)
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