(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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समय का प्रवाह सबके लिये होता है जिस समय मे भोला और दुर्गाप्रसाद के बीच यह सब चल रहा था उस समय राजवती रायपुर मे थी
दीनदयाल ने यह तय किया कि श्यामलाल, सदाराम और श्यामवती की पढ़ाई का प्रबंध रायपुर मे कर दिया जये और राजो उन तीनो की अभिभाविका बनकर रायपुर मे रहे जब राजवती को दीनदयाल ने यह सब बताया तब उसकी खुशी के आँसू छलक पडे थे उसने दीनदयाल के दोनो पैर पकड कर कृतज्ञता व्यक्त की थी
निश्चित योजना के अनुसार तीनों बच्चे और राजो रायपुर भेज दिये गये। महेन्द्र और सदाराम प्रायमरी में दाखिल करा दिये गये। प्रायमरी पास कर लेने के बाद वे अंग्रेजी स्कूल में साथ-साथ पढ़ने लगे। श्यामवती की शिक्षा का प्रबन्ध तब किया गया जब वह भी सात वर्ष की हो गई। उन दिनों रायपुर में कॉलेज थे ही नहीं सिर्फ गिने चुने विद्यालय ही थे। कॉलेज के नाम से केवल 'राजकुमार कॉलेज' ही था जहाँ छत्तीसगढ़ के रियासतों के राजकुमारों को ऊँची शिक्षा दी जाती थी। अस्तु, महेन्द्र और सदाराम मन लगाकर पढ़ते हुये एक के बाद एक कक्षायें पास करते गये।
श्यामवती भी पढ़ने में कुछ कम नहीं थी। प्रायमरी पास करने के बाद उसे भी अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश दिला दिया गया जो ईसाई मिशन के द्वारा संचालित होता था। राजवती का विचार था कि श्यामवती को अंग्रेजी न पढ़ाई जावे पर दीनदयाल के सामने उसकी एक न चली और श्यामवती अंग्रेजी सीखने लगी।
पढ़ाई के कारण महेन्द्र को अपने दादा दीनदयाल और अपनी माता सुमित्रा के पास रहने का अवसर कम मिलता था। राजो ही उसके लिये सब कुछ थी। वह उसे 'राजो माँ' कहता था। राजवती के लिये उसके हृदय में स्नेह था, सम्मान था। राजो भी उसका पूरा-पूरा ध्यान रखती थी। गर्मी की छुट्टी होते ही राजो के साथ तीनों खुड़मुड़ी चले जाते थे। उन दिनों गाँवों में कदाचित् ही कोई पढ़ा-लिखा होता था। उन तीनों को शिक्षित होते देख गाँव के लोग गर्व से फूले नहीं समाते थे। वे लोग उनका अदब करते और कहते, "छोटा मालगुजार महेन्द्र तो बड़ा साहब बनेगा और सदाराम भी कोई अच्छी नौकरी करेगा।"
किन्तु शिक्षा ने उन तीनों और गाँव वालों के बीच एक खाई भी बना दी थी। गाँव वाले उन्हें अब बड़े लोग समझते थे और कई लोग तो उनसे बातें करने में भी झिझकते थे। यह सब देख-सुन कर उन तीनों के हृदय में ठेस भी लगती थी कि ये लोग हमसे दूर क्यों खिंचे जा रहे हैं। उधर स्त्रियाँ और लड़कियाँ श्यामवती का सत्कार करतीं पर कई औरतें ताने दे कर कहतीं, "सामबती तो 'मेम साहब' बन रही है।" कोई कहती, "सामबती के भाग अच्छा है नहीं तो वह भी हमारे समान गोबर बीनती।" यह सब सुनकर श्यामवती मुस्कुरा देती थी। गाँव की उन स्त्रियों पर उसे गुस्सा तो न आता था पर दीनदयाल के प्रति उसके हृदय में बहुत अधिक स्नेह और कृतज्ञता थी।
इस वर्ष महेन्द्र और सदाराम मैट्रिक में थे। श्यामवती चौथी अंग्रेजी पास कर चुकी थी। गाँव की चार वर्ष की दुबली-पतली श्यामा अब सुंदर तरुणी श्यामवती थी जिसका एक-एक कदम मदमस्त यौवन की ओर बढ़ता जा रहा था। उसके घुंघराले बाल, कजरारी आँखें, गोल कपोल, मोहक चिबुक, आकर्षक उभार, गठा शरीर और गेहुँआ रंग ने उसे अत्यधिक सुन्दर बना दिया था। स्वभाव उसने माँ से पाया था इसलिये उसमें अनोखी और न दबने वाली चंचलता के साथ गम्भीरता भी थी। उसकी बड़ी इच्छा थी कि वह भी मैट्रिक पास कर ले पर उसकी माता राजवती को इसकी चिन्ता ही नहीं थी। वह तो सोचती थी कि श्यामवती की तकदीर ही है कि उसने चौथी अंग्रेजी तक पढ़ लिया, नहीं तो लड़कियों और विशेषकर गाँव की लड़कियों को पढ़ाता ही कौन है।"
राजवती के सामने चिन्ता और समस्या थी तो उसके ब्याह की।
(क्रमशः)
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