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छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के दक्षिण-पूर्वी भाग में पाटन का इलाका है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर और कस्बा पाटन के बीच, रायपुर से सात-आठ मील दूर किंतु पाटन से डेढ़-सो मील पहले, खुड़मुड़ी गाँव है। गाँव का वातावरण बहुत रम्य है। गाँव के पूर्व, उत्तर-पूर्व और उत्तर की ओर गाँव की बाहरी सीमा में पीपल के तीन बड़े-बड़े पेड़ हैं जिनके असंख्य पत्ते बारहों माह हहराते रहते हैं। उत्तर वाला पेड़ 'पीपर बँधिया', उत्तर-पूर्व वाला पेड़ 'बाई रूख' और पूर्व वाला पेड़ 'सेरहा' के नाम से जाना जाता है। गाँव के लोग उन वृक्षों को पवित्र मानकर उनकी पूजा किया करते हैं।
अक्षय तृतीया, जिस दिन भगवान परशुराम का जन्म हुआ था, को इस भू-भाग में 'अकती' त्यौहार के रूप में मनाते हैं। इसी दिन से खेती-किसानी का वर्ष प्रारम्भ होता है। इसी दिन पूरे वर्ष भर के लिये नौकर लगाये जाते हैं। शाम के समय हर घर की कुँआरी लड़कियाँ आँगन में मण्डप गाड़कर गुड्डे-गुड्डियों का ब्याह रचाती हैं।
अकती त्यौहार के इस शुभ अवसर में खुड़मुड़ी गाँव में रात्रि को 'बाँस-गीत' का विशेष आयोजन किया गया था। 'दैहान' (गाँव का मैदान) में मण्डप तान दिया गया था। उसके भीतर-बाहर रंग-बिरंगे कागजों का तोरण और झण्डियाँ बाँधी गई थीं। रात को लगभग साढ़े नौ या दस बजे से मण्डप में लोगों का जमाव शुरू हुआ। मालगुजार दीनदयाल के घर से गैसबत्ती लाकर जलाई गई थी जिसके उजाले में पूरा मण्डप जगमगा रहा था। मण्डप में एक ओर गाँव की स्त्रियाँ बैठी थीं जिनमें सुहागिने, विधवा, बच्चियाँ सभी थीं। रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहने सुहागिनों के मांग में सिंदूर की मोटी नारंगी रंग की रेखायें थीं और हाथों में चूड़ियाँ। विभिन्न गहनों से उन्होंने अपना श्रृंगार कर रखा था - कानों में 'खिनवा', बाहों में 'बँहुटे' या 'नागमोरी', कमर में चांदी के 'करधन' और पावों में काँसे या चांदी की 'पैरियाँ'। विधवायें सफेद रंग की साड़ियाँ पहने थीं और किसी-किसी के हाथ में चांदी का 'चुरुवा' था क्योंकि इस क्षेत्र के रिवाज के अनुसार वे चुरुवा के सिवा अन्य कोई गहना नहीं पहनतीं।
वहाँ उपस्थित सारे लोग बाँस-गीत सुनने के लिये उतावले हो रहे थे और मालगुजार दीनदयाल का इंतिजार कर रहे थे। इसी समय दीनदयाल मण्डप में आये। उनके लिये मण्डप के बीचो-बीच आसन की व्यवस्था की गई थी। कार्यक्रम के आयोजकों ने उनकी अगुआनी की और आदरपूर्वक उन्हें आसन पर बिठा दिया। उनके आसन ग्रहण करने पर 'बाँस-गीत' टोली ने अपनी तैयारी की। लाखन और पचकौड़ अपनी बाँस की बनी तीन साढ़े-तीन फुट लम्बी 'बाँस बाजा' लेकर तैयार बैठ गये। रंजन और मिलउ गाने के लिये और अमोली बीच-बीच में 'हुँकार' करने के लिये संभल कर बैठ गये। इन पाँचों की टोली खुड़मुड़ी और उसके आस-पास के सभी गाँवों में 'बाँस-गीत' के लिये प्रसिद्ध थी।
रंजन और मिलउ ने एक स्वर में गाना शुरू किया -
दाई तो गये मोर दूध बेचन बर ददा गये दरबार,
भइया तो गये भउजी लेवाये बर, दउड़व नोनी भेड़ा गोहार।
नदिया भीतर के बारु-कुधरी, पैरी खवोसत चले जाय,
चूरा अउ पैरी ला ओली में धर लव, दउड़व नोनी भेड़ा गोहार॥
भइया तो गये भउजी लेवाये बर, दउड़व नोनी भेड़ा गोहार।
नदिया भीतर के बारु-कुधरी, पैरी खवोसत चले जाय,
चूरा अउ पैरी ला ओली में धर लव, दउड़व नोनी भेड़ा गोहार॥
पद समाप्त होते ही अमोली ने जोर से मधुर हुँकार भरी - 'हुँ-हुँ-हुँ-होऽऽऽ-'। हुँकार के साथ ही लाखन और पचकौड़ ने एक साथ ही बाँस-बाजा को ऊपर-नीचे करते हुये, गाल फुलाकर जोरों से फूँकना शुरू किया। बाँस-बाजा से भारी किन्तु मधुर स्वर में उपरोक्त पद से मेल खाती हुई ध्वनि निकल कर पूरे मण्डप में गूँजने लगी। लोग तन्मय होकर बाँस-गीत को सुनने तथा उन गीतों में निहित कथाओं का आनंद लेने लगे। क्रम से एक के बाद एक कई कथानक सुनाये गये। दीनदयाल भी बाँस-गीत का आनन्द लेने लगे। वे लोगों में इतने घुलमिल गये थे कि कोई कह नहीं सकता था वे गाँव के मालगुजार हैं और शेष लोग साधारण किसान। एक कथा और दूसरे कथा के बीच थोड़ी देर का, 'चिलम' और 'चोंगी' पीने के लिये, विश्रामकाल होता था।
ऐसे ही एक विश्रामकाल के समय दीनदयाल का नौकर बिरझू दौड़ता-हाँफता आया और उनके पैरों को छूते हुये बोला, "मालिक, मेरी लड़की हुई है।" खुशी से उसका चेहरा चमक रहा था। शाम से ही उसकी स्त्री की प्रसव-पीड़ा शुरू हो गई थी और 'सुइन' (गाँव में जजकी कराने वाली दाई) को बुला लिया गया था पर लड़की पैदा हुई रात्रि के लगभग साढ़े-ग्यारह बजे। बिरझू बाँस-गीत के आयोजन में न आकर अपने घर में ही था और लड़की उत्पन्न होने की सूचना अपने मालिक को देने के लिये वहाँ आया था। इस सूचना से सभी को बेहद खुशी हुई। बिरझू दीनदयाल का पुराना नौकर था और उनकी उस पर विशेष ममता थी, क्योंकि बिरझू की पीढ़ी-दर-पीढ़ी दीनदयाल के पीढ़ी-दर-पीढ़ी की सेवा करते आये थे।
"तुमने बहुत अच्छी सूचना दी बिरझू। आज तो बड़ा अच्छा मुहूर्त है। एक तो अकती का त्यौहार, दूसरे बाँस-गीत का आयोजन और तीसरे तुम्हारे घर लड़की पैदा हुई।" दीनदयाल ने प्रसन्न होकर हँसते हुये कहा। फिर पूछा, "तो लड़की का नाम क्या रखोगे?"
"जो नाम आप बतायें मालिक। हम लोग तो 'ढेला', 'टेटकी', 'खोरबहरिन', 'अभरन' कुछ भी नाम रख लेते हैं।" बिरझू ने उत्तर दिया।
थोड़ी देर तक दीनदयाल सोचते रहे। फिर बोले, "लड़की का नाम राजवती रख दे।" फिर उन्होंने आयोजन समाप्ति की घोषणा की। समवयस्क लोगों ने "राम राम मालिक" और छोटों ने "पालागन मालिक" कह कर उन्हें विदा किया। फिर सभी लोग आपस में "राम राम", "जयरामजी की", "जोहार ले" कहकर अपने अपने घर चले गये।
और बिरझू ने अपनी लड़की का नाम राजवती रख दिया। गाँव के वातावरण में राजवती 'राजो' बन गई। उपन्यास के आरम्भ में जिस घटना का वर्णन किया गया है वह इस आयोजन से लगभग सैंतीस वर्ष बाद की थी तथा वह यही राजो थी।
खुड़मुड़ी में उस दिन बिरझू रावत सबसे अधिक प्रसन्न था।
1 comment:
धन्वाद अवधिया जी, छत्तीसगढ़ का अच्छा चित्रण करते हैं आप।
साहेब अली,भिलाई-3,पाटन,दुर्ग
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