Tuesday, September 11, 2007

धान के देश में - 3

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवाधिया

(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

-3 -

बिरझू था तो दीनदयाल का नौकर। पर उसके कुटुम्ब के प्रति दीनदयाल एवं उनके कुटुम्ब का व्यवार अत्यंत सहृदयतापूर्ण था। जिस समय राजवती का जन्म हुआ उस समय दीनदयाल की पत्नी सुनीता भी गर्भवती थी। प्रसव के पहले बिरझू की पत्नी दीनदयाल के घर का प्रायः सभी काम-काज कर अपनी मालकिन को अधिक से अधिक आराम पहुँचाती थी। यद्यपि अपने प्रसवकाल के के अन्तिम कुछ दिनों में उसने काम पर आना बंद कर दिया था किन्तु राजवती के जन्म के केवल कुछ ही दिनों के बाद उसने काम पर आना शुरू कर दिया।

खुड़मुड़ी गाँव का मालगुजार होने के नाते अवश्य ही दीनदयाल का एक घर गाँव में था किन्तु उनका वास्तविक घर रायपुर में था, जहाँ उनके बिरादरी के सभी लोग रहते थे। राजवती के जन्म के चार माह बाद सुनीता के गर्भ के आठ महीने पूरे हुये और नवाँ लगा। प्रसव पूर्व के सारे नेग-चार बिरादरी वालों के बीच होना था इसलिये सुनीता को रायपुर लाने की व्यवस्था की गई। दोपहर के दो-तीन बजे दीनदयाल के घर के सामने बिरझू ने बैलगाड़ी लाकर खड़ा कर दिया जिसमें बड़ी-बड़ी सींगों वाले सुंदर सफेद बैल जुते हुये थे। बैठने वाली जगह पर पहले बहुत सारा पैरा (पुआल) डाला गया था, फिर उस पर गद्दे तथा चादर डाल दिये गये थे। दीनदयाल तथा सुनीता के उस पर बैठ जाने पर बिरझू ने बैलों को हाँक दिया और गाड़ी चलने लगी। गाँव के दैहान को पार करने के बाद 'नरवा' (नाला) पड़ता था और उसके बाद खेतों का सिलसिला शुरू हो जाता था।

नरवा पार करके बैलगाड़ी मंथर गति से खेतों के बीच 'गाड़ी-रावन' (बैलगाड़ी के दोनों चक्कों से बनी पगडंडी) पर चली जा रही थी। धान काटने के बाद किसानों ने खेतों तथा उसके मेढ़ों में अलसी, सरसों और तिवरा के बीज छींट दिये थे। अलसी के बैंगनी तथा सरसों पीले फूलों और तिवरा की हरी हरी फलियों का दृश्य अत्यंत मनमोहक था। लगता था जैसे हरे मखमल पर बैंगनी तथा पीले रंगों की कसीदाकारी कर दी गई हो। इस प्रकार एक गाँव से दूसरे गाँव और दूसरे गाँव से तीसरे गाँव को पार करते हुये बैलगाड़ी चली जा रही थी। बिरझू ने देखा कि एक खेत में केवल तिवरा ही बोये गये थे और उनके पौधों में खूब सारी फलियाँ लगीं हुईं थीं। उसने गाड़ी रोक दिया और खेत में घुसकर तिवरा के फलियों से लटे कुछ पौधों को उखाड़ लिया। फिर गाड़ी में बिछे पैरा में से खूब सारा पैरा निकाल कर पास ही के एक पेड़ के नीचे उसे जलाया और उसमें तिवरा के उन पौधों को डाल कर 'होर्रा' (भुना हुआ तिवरा या चना) बनाया। जब होर्रा तैयार हो गया तो उसे लाकर दीनदयाल को देते हुये बोला, "लीजिये मालिक, आप और मालकिन इसका आनन्द लीजिये।"

शाम होते होते गाड़ी खारून नदी के किनारे पहुँच गई। वहाँ पर हाथ-मुँह धोकर और पानी पीकर तथा नदी को पार करके वे आगे बढ़े। यहाँ से रायपुर पहुँचने में अभी उन्हें लगभग आधा घंटा और लगना था। ठंड का मौसम तथा छोटे दिन होने के कारण अंधेरा अभी से गहरा गया था। बिरझू ने बैलगाड़ी में टँगी कंदील जला लिया था। जब वे शहर के भीतर पहुँच गये तो बिरझू ने कंदील बुझा दिया क्योंकि सड़कों में नगरपालिका के मिट्टीतेल से जलने वाले कंदील के खभों का प्रकाश पर्याप्त था। बिरझू ने दीनदयाल के घर के सामने लाकर गाड़ी खड़ी कर दी।

सुनीता को 'सधौरी' खिलाने का आयोजन किया गया। सधौरी के दिन बिरादरी में सभी को निमंत्रण दे दिया गया। बिरादरी के सारे लोग एक ही मुहल्ले में निवास करते थे अतः सुबह से ही सुहासिनें और सुहागिनें दीनदयाल के घर एकत्रित हो गईं। उन्होंने सुनीता के केश को बेसन से धोया और उसे 'उबटन' लगाकर नहलाया और पहनने के लिये 'पियरी' (पीले रंग की साड़ी) दिया। सुनीता के पियरी पहन लेने पर नाइन ने उसके पैरों में महावर लगाया। पीले रंग की साड़ी और उबटन के स्नान ने सुनीता के रूप-सौन्दर्य को इतना निखार दिया था कि वह साक्षात् अन्नपूर्णा लगने लगी थी। अब उसे सधौरी खिलाने की बारी थी। उसे पीढ़े पर बिठाने के बाद खाने के लिये चाँदी की थाल में खीर, पूरी तथा अनेकों प्रकार के मिष्ठान्न परसा गया। सुनीता के भोजन कर लेने के बाद आमंत्रित लोगों को उमंग और उत्साह के साथ 'सपथ' भोजन कराया गया।

दिन पूरे होने पर सुनीता को 'सुइन' और अनुभवी सयानी औरतों की देख-रेख में लड़का उत्पन्न हुआ। बिरादरी की औरतें पहले से ही जमा थीं। लड़का पैदा होने की सूचना पाकर उनके बीच आनन्द, उत्साह और उल्लास की तुमुल ध्वनि होने लगी। वे घेरा बना कर बैठ गईं और ढोलक के ताल के साथ 'सोहर' गाने लगीं -

सतहे मास जब लागै तौ अठहे जनाय हो ललना
अठहे मास जब लागै तौ सधौरी खवाय हो ललना
नवे मासे जब लागै तो कंसासुर जानय हो ललना
जड़ि दिहिन हाथे हथकड़ियाँ पावें बेलिया तो ललना
भादो निसि अँधियरिया तौ रोहिणी नछत्र भये हो ललना
श्री कृष्ण जी लिहिन अवतार दैत्य सब सोय गये हो ललना

इस प्रकार सोहर के पदों में ललनाओं ने बालक की श्री कृष्ण से तुलना कर उसके यश की कामना प्रकट की।

लड़के के जन्म से दीनदयाल की खुशी की सीमा न रही। पाँचवे दिन उन्होंने अत्यंत उत्साह के साथ 'छठी' करवाया। छठी में शामिल होने के लिये मुहल्ले भर के लोगों को बुलौवा दिया गया था। बैठक वाले कमरे में बिछायत बिछा दी गई थी। सात नाई लोगों की हजामत बनाने में लगे थे। शेष लोग आपसी बातचीत में व्यस्त होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बाहर शहनाई और बैण्ड बज रहे थे। बैठक के बीच में एक बड़ा सा कटोरा रखा था जिसमें सिर में लगाने के लिये तेल, जिसमें महँकता हुआ गुलाब का एक बड़ा से फूल तैर रहा था, भरा था। बाल बन जाने के बाद प्रत्येक आदमी कटोरे का तेल अपने सिर के बालों में लगा कर विदा होता था। दोपहर तक छठी का कार्यक्रम चला। फिर शाम को सभी लोगों को बड़े प्रेम के साथ 'काँके' पिलाया गया। (काँके एक प्रकार की लकड़ी होती है जिसे पानी में डालकर उबालते हैं। उबलने पर उसका लाल अर्क-सा निकल आता है जिसे, लौंग और गुड़ डाल कर, पिलाया जाता है।

अगले अर्थात् छठवें दिन रात को 'आँखी अंजौनी' का समारोह हुआ जिसमें सुआसिनें तथा रिश्ते की अन्य औरतों को बुलाया गया। फिर सभी को, उनकी मर्यादा के अनुसार चाँदी या काँसे की, थालियाँ दी गईं। उन्होंने घी के दिये जलाकर उन पर थालियों को इस प्रकार से रख दिया कि दिये का काजल उन पर जमने लगे। फिर वे सोहर गाने के लिये बैठ गईं। बहुत देर तक वे सब सोहर गाती रहीं। सोहर समाप्त होने तक सभी थालियों की सतह में काजल जम चुका था। अपनी-अपनी थालियों से उन्होंने शिशु की आँखों में अंजन आंजा। नेग के रूप में उन्हें वे थालियाँ दे दी गईं। बारहवें दिन 'बरही' की गई। शिशु के नामकरण के लिये कुल के पुरोहित और विद्वान ब्राह्मणों को बुलाया गया पुरोहित ने शिशु की जन्म पत्रिका बना कर उसका नाम श्यामलाल रख दिया।

कुछ दिनों रायपुर में रहकर दीनदयाल वापस खुड़मुड़ी आ गये।

(क्रमशः)

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