Wednesday, September 12, 2007

धान के देश में - 4

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया

(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 4 -

देखते-देखते सात-आठ साल बीत गये। राजवती गाँव में स्वच्छंद घूमती थी। गाँव में लड़कियाँ छोटी उमर से ही अपने घर का काम-काज संभाल लेती हैं। राजवती इस नियम का अपवाद नहीं थी। गाय का कोठा साफ करना, तालाब में खूब नहाना, गोबर इकट्ठा कर उपले पाथना, धान कटाई के दिनों में 'सीला बीनना' (खेत से कटे हुये धान को खलिहान तक ले जाने में जो धान की बालियाँ गिर जाती हैं उसे इकट्ठा करना), दोपहर में पिता के लिये "बासी-चटनी-प्याज" लेकर जाना, कुछ समय हमजोली लड़कियों के साथ खेलना उसकी दिनचर्या का अनिवार्य अंग था। इतनी सी उम्र में ही गाय-भैंस दुहने का अच्छा अभ्यास हो गया था।

प्रायः रोज ही राजवती दीनदयाल के घर जाकर झाड़ने-बुहारने, बर्तन मांजने, पानी भरने आदि कामों में अपनी माँ की सहायता किया करती थी। दीनदयाल और सुनीता का भी राजवती के प्रति स्नेह था। राजवती उन्हें 'काका-काकी' संबोधित करती थी। सुनीता श्यामलाल के साथ राजवती को भी खाने के लिये मावे की मिठाई, जिसका निर्माण घर में ही कर लिया जाता था, दे दिया करती थी। गाँव में बुधवार के दिन हाट लगती थी। उस दिन श्यामलाल के साथ राजवती को भी एकाध पैसे अवश्य मिलते थे और वह मनचाही चीजें खरीद कर प्रसन्न हो जाती थी।

नित्य रात्रि को दीनदयाल के घर रामायण की कथा होती थी। दीनदयाल रामायण के दोहे तथा चौपाइयों का बड़ा ही सरल और भावुक अर्थ करते थे जिसे सुन कर गाँव के अनपढ़ लोगों के हृदय भी भावुक और आनन्द-विभोर हो जाते थे। रामायण प्रारम्भ होने के पहले लोग एक-एक कर दीनदयाल के घर अपनी लाठियाँ लिये आते, दरवाजे पर अपनी 'भंदइ' (स्थानीय चप्पलें) उतारकर तथा लाठियाँ किनारे रख कर बैठक में बैठते जाते थे। राजवती भी अपने पिता के साथ रोज ही रामकथा सुनने आती थी। अनपढ़ होते हुये भी वह अत्यंत कुशाग्र-बुद्धि थी। रामायण के दोहे और चौपाइयाँ अर्थ सहित उसे याद हो गईं थीं। सीता माता के किसी भी प्रसंग पर उसके कोमल हृदय में शान्ति, दृढ़ता, आदर्श और सहनशीलता के भाव उठते और अपने अमिट संस्कार छोड़ जाते थे।

राजवती अब दस बरस की हो गई थी। छत्तीसगढ़ में उन दिनों बाल-विवाह का चलन था और चार-पाँच साल के लड़के-लड़कियों का ब्याह हो जाता था। राजवती को भी माँगने के लिये तीन-चार साल पहले लोग आ चुके थे किन्तु दीनदयाल की बात मान कर बिरझू ने उसकी शादी नहीं की। पर जाति की परंपरा के अनुसार अब राजवती का विवाह अनिवार्य हो गया था।

एक दिन बिरझू गायें चराता हुआ खुड़मुड़ी की सीमा से लगे सिकोला गाँव की सीमा तक जा पहुँचा। वहाँ उसकी भेंट सिकोला के रामप्रसाद से हो गई। दोनों ने एक दूसरे को "राम राम" कहा और एक पेड़ की छाया में बैठ कर बातें करने लगे। कुछ देर तक इधर उधर की बातें करने के बाद रामप्रसाद ने कहा, "सुनो बिरझू, मैंने तुम्हारे गाँव के हाट में तुम्हारी लड़की को देखा है और मेरे विचार से वह मेरी बहू बनने के योग्य है। क्या तुम उसे मेरे लड़के के लिये देने के लिये राजी हो?"
बिरझू रामप्रसाद की अच्छी स्थिति के विषय में पूरी तरह से जानता था इसलिये दो-तीन मिनट सोचने के बाद उसने जवाब दिया, "मैं राजी हूँ। आज से हम तुम समधी हुये। अब यह बताइये कि आप लगन ले कर कब आ रहे हैं?" रामप्रसाद ने चार दिन बाद सोमवार को लगन लेकर आने का वादा कर दिया।
और सोमवार को रामप्रसाद 'अरसा' (एक छत्तीसगढ़ी व्यंजन) लेकर लगन के लिये पहुँच गया। बिरझू ने ब्राह्मण बुलाकर लगन करवाया और विवाह के अगले कार्यक्रम निश्चित हो गये।

अपने ब्याह की बात सुन कर राजवती को कौतूहल हुआ जिसमें खुशी का अंश भी मिला हुआ था। उसने कई लड़कियों के विवाह होते देखे थे। वह इतना अवश्य जानती थी कि ब्याह के बाद लड़कियाँ माँ-बाप का घर छोड़ कर ससुराल चली जाती हैं। उनमें से कई लड़कियों को कुछ दिन या महीने बाद माँ-बाप के घर वापस आते तथा कुछ दिन रहने के बाद किसी और के घर जाते भी देखा था। ऐसे मौकों पर वह देखती थी कि पंचायते होतीं और लड़की की इच्छा पर उसका सम्बंध उसकी ससुराल से तोड़ नये पति और नये घर से जोड़ दिया जाता था। लड़की का नया पति उसके पुराने पति को ब्याह का खर्च देकर हर्जाना भरता और 'बिहाता तोड़ने' का रिवाज पूरा करता था। लोगों को न्यौता दिया जाता था और वे खा-पी कर मस्त हो जाते थे। किन्तु न जाने क्यूँ राजवती को यह सब कभी भी अच्छा नहीं लगा।

निश्चित समय पर सिकोला से बारात खुड़मुड़ी आई। बाराती छकड़ों पर सवार थे। एक गाड़ी में लगभग चौदह-पन्द्रह वर्ष का मंशाराम दूल्हा बना बैठा था - सिर पर मौर, आँखों में काजल की मोटी-सी काली रेखा, पीला कुरता और पीली धोती पहने। छकड़ों में फँदे बैलों की घंटियाँ छनछना उठीं। बारात गाँव के तालाब के किनारे रुकी। धमाधम बाजे बजे। और बिरादरी की प्रथा के अनुसार राजवती का ब्याह मंशाराम से हो गया।

विदा कराने के बाद जब बारात लौट रही थी तब पीले कपड़ों से सजी राजवती और उसका पति मंशाराम एक ही छकड़े पर बैठे हुये जा रहे थे। मंशाराम अकचका कर अपनी नई साथिन को देख रहा था और राजवती आँखें नीचे की ओर गड़ाये थी। दोनों के सिर पर मौर बँधे थे। जब छकड़ा गाँव के तालाब के पास से निकला तब राजवती के हृदय में होश संभालने से ले कर अब तक की स्मृतियाँ उभर आईं। कितनी बार वह इस तालाब में तैर-तैर कर नहा चुकी थी। कमल के फूल और पत्ते तोड़े थे। किनारे पर प्रतिष्ठित शिव-मूर्ति पर जल चढ़ाया था। गाँव की सीमा पर के पीपल के तीनों वृक्ष योगियों की भाँति तपस्या करते हुये और उसे सांत्वना तथा आशीर्वाद देते हुये से दिखाई दिये। राजवती ने मन ही मन उन्हें प्रणाम किया मन भारी हो रहा था। आँखें उमड़ रही थीं। जागती हुई भी मानो वह अपने माता-पिता, दीनदयाल, सुनीता और गाँव की एक-एक परिचित वस्तु का स्वप्न देख रही थी।
इस प्रकार राजवती मायका छोड़ कर ससुराल चली गई - खुड़मुड़ी से सिकोला।

(क्रमशः)

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