(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
- 30 -
जिन दिनों महेन्द्र और सदाराम नागपुर में पढ़ रहे थे उन दिनों खुड़मुड़ी में सुमित्रा और राजवती उनकी मंगल-कामना करती हुईं एक एक दिन गिन रहीं थीं कि कब उनकी पढ़ाई समाप्त हो और वे वापस आयें। अन्त में वह दिन आ पहुँचा। इतवारी में चलने वाले सुधार कार्य को जानकी के हाथों सौंप कर महेन्द्र और सदाराम रायपुर आ गये। उन दिनों सुमित्रा और राजवती रायपुर में ही थीं। उनसे भेंट होते ही महेन्द्र और सदाराम ने उनके पैर छुये। उन्हें देख कर सुमित्रा और राजो की आँखें आनन्द के आँसू से छलक गईं। दोनों के मन में एक ही विचार उठ रहा था कि आज दीनदयाल होते तो खुशी से फूले न समाते। जैसे फसल पकने के समय ओले गिरकर उसे नष्ट कर दें वैसे ही कठोर कराल काल ने उन्हें निगल लिया।
नागपुर से आने के तीन दिन बाद ही एक कागज लेकर सरकारी चपरासी आया। महेन्द्र ने कागज लेकर पढ़ा तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। वह नौकरी का कागज था जिसमें यह सूचित किया गया था कि महेन्द्र को चन्दखुरी के सरकारी खेती के फॉर्म में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर नियुक्त किया गया है। उन दिनों शासन की ओर से स्वयं ही कभी कभी योग्य व्यक्ति को ढूँढ कर नौकरी दे देने प्रयत्न किया जाता था। इसीलिये महेन्द्र की शिक्षा का पता लगा कर शासने स्वयं उसे नौकरी दे दी थी। महेन्द्र वह कागज लेकर अकेले ही चन्दखुरी गया और वह नौकरी सदाराम के लिये ठीक कर आया। जब सदाराम को इस बात का पता लगा तब वह महेन्द्र से बोला, "यह तुमने क्या किया। नौकरी तो तुम्हें दी गई थी और तुम ठीक कर आये मेरे लिये।"
"ठीक ही तो किया। मुझे नौकरी करनी नहीं है और तुम्हें नौकरी की आवश्यकता है।" महेन्द्र ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया।
"हम लोग तो पहले से ही दादा दीनदयाल के उपकारों के बोझ से दबे हैं और अब तुम भी...."
सदाराम बात काट कर तुरन्त ही महेन्द्र बोला, "तुम्हें यह नौकरी करनी ही पड़ेगी। मैं नियुक्ति पत्र ले आया हूँ। वेतन १५०) मासिक है। मैं समझता हूँ इससे तुम राजो को सुखी रख सकोगे। नौकरी पर जाने के लिये अभी एक सप्ताह का समय बाकी है। तब तक खुड़मुड़ी से हो आवेंगे।" सदाराम कुछ नहीं बोला। कृतज्ञता से उसका हृदय भर गया।
इसके बाद ही सुमित्रा, राजवती, महेन्द्र और सदाराम खुड़मुड़ी चले गये। वहाँ गाँव के लोगों ने महेन्द्र और सदाराम का बड़ा स्वागत और सम्मान किया। प्रत्येक किसान नारियल लेकर महेन्द्र से मिलने आया। खुड़मुड़ी में पाँच दिन रहने के बाद सदाराम चन्दखुरी चला गया और असिस्टेंट मैनेजर के पद पर सरकारी नौकरी करने लगा। महेन्द्र ने राजो से कहा कि वह भी सदाराम के साथ चली जाये जिससे उसे अपने हाथ से रोटी पकाने का कष्ट न उठाना पड़े पर राजवती चाहती थी कि वह खुड़मुड़ी में ही रह कर सुमित्रा और महेन्द्र की सेवा करती रहे। उसकी इच्छा के विरुद्ध जाना उचित न समझ कर महेन्द्र कुछ नहीं बोला और राजो सदाराम के साथ नहीं गई।
महेन्द्र स्वाभाविक रूप से गम्भीर हो गया था। गाँव का पूरा बोझ उसके सिर पर आ पड़ा था। गाँव वाले सरल हृदय और श्रद्धावान थे। उनके हृदय में जैसा सम्मान दीनदयाल के लिये था वैसा ही सम्मान महेन्द्र के लिये भी था। जिन गाँवों में मालगुजारों का व्यवहार किसानों को नीचा और अपने आपको ऊँचा दिखाने वाला होता था वहाँ अवश्य ही लोगों में घोर असन्तोष रहता था पर खुड़मुड़ी में तो यह दशा थी कि जहाँ मालगुजार का पसीना बहने का अवसर आता वहाँ किसान उसके लिये अपना खून बहा देने के लिये तैयार रहते थे। सबसे पहला काम महेन्द्र ने जो किया वह था दीनदयाल के स्मारक के रूप में गाँव के तालाब के किनारे शिव जी का एक सुन्दर मन्दिर बनवाने का। उसने गाँव के मुख्य मुख्य किसानों के सामने अपना विचार रखा जिसे सबने बहुत पसन्द किया और तालाब के किनारे उचित स्थान निश्चित कर शिवालय का निर्माण किया गया। इसके बाद महेन्द्र ने काम-धाम की ओर ध्यान दिया। उसने देखा कि दीनदयाल के मरने के बाद से अब तक खेती-बाड़ी के काम, उपज और आय में कोई गड़बड़ी नहीं हुई है बल्कि उन्नति ही हुई है। इसके मूल में राजवती ही थी। सुमित्रा को तो खेती-किसानी के विषय में कुछ मालूम ही नहीं था पर राजो इस काम में पारंगत थी। वह अपने घर का काम समझ कर सुमित्रा को हर समय खेती सम्भालने, गाँव की व्यवस्था करने और लगान तथा नहर का टैक्स वसूल कर सरकारी खजाने में जमा करने में सहायता देती रही।
महेन्द्र ने खेती में उन्नति करने का निश्चय किया और किसानी के नये नये औजार मंगाने ने के लिये आर्डर भेज दिया। कामों में व्यस्त रहते हुये भी वह भूला नहीं था कि सदाराम का ब्याह जानकी के साथ कराने के लिये राजो को अवश्य ही राजी करना है। एक दिन उसे अवसर मिल गया। दोपहर का समय था। चिलचिलाती धूप संसार को त्रस्त कर रही थी। सनसनाती हुई गरम लू चल रही थी। बीच बीच में हहरा कर हवा प्रचण्ड वेग से बह उठती थी जिसके चपेट में सूखे पत्ते और धूल के ऊँचे खम्भे मँडरा कर आकाश में उठते और मिट जाते थे। महेन्द्र अपने कमरे में लेटा हुआ एक उपन्यास पढ़ कर मन बहला रहा था। बाजू के कमरे में सुमित्रा और राजो बातें कर रहीं थीं। जो महेन्द्र के कमरे से साफ सुनाई दे रही थीं। उसने पुस्तक बन्द कर दी और सुनने लगा।
"अब महेन्द्र का ब्याह हो जाना चाहिये।" राजो कह रही थी।
"हाँ, मेरे भी जीवन की सबसे बड़ साध यही है कि बहू घर आये। फिर तो मेरा काम रात दिन रामायण पढ़ कर जीवन की घड़ियाँ काटना ही रह जायेगा।" सुमित्रा उल्लास में भर कर बोली।
तभी महेन्द्र ने अपना कमरा छोड़ कर इस कमरे में प्रवेश किया और कहा, "राजो, तुम्हें मेरे ब्याह की फिकर क्यों पड़ी है। सदाराम की शादी करो न। लेकिन यह तो बताओ कि पढ़-लिख कर बाबू बन जाने के बाद वह गाँव की छोकरियों को पसन्द करेगा?"
महेन्द्र की बात सुन कर राजो बोली, "क्यों? पसन्द क्यों नहीं करेगा? पसन्द नहीं करेगा तो क्या उसके लिये इन्द्र की अप्सरा आयेगी?"
"अगर तुम चाहो तो मैं सदाराम के लिये इन्द्र की अप्सरा ही ला दूँ।" महेन्द्र की बात से राजो चौंक उठी।
"तुम केवल मुझे खुश करने के लिये बातें बना रहे हो। भला ऐसा भी कभी हुआ है कि घूरे में से सरग का सपना देखा जाय।" राजवती ने अविश्वास से कहा।
अब महेन्द्र काफी गम्भीर होकर बोला, "राजो, मैं नागपुर में सदाराम के लिये एक लड़की पसन्द कर चुका हूँ। उसका नाम जानकी है। सदाराम और जानकी एक दूसरे को चाहते भी हैं। पर दो बातें हैं। एक यह कि जानकी तुम्हारी जाति की नहीं है और दूसरी यह कि वह बाल-विधवा है। यदि तुम चाहो तो सदाराम और जानकी का ब्याह करके दोनों के जीवन को सुखी बना सकती हो।"
महेन्द्र की बात सुन कर राजो सोच में पड़ गई। उसकी आँखों के सामने श्यामवती का दुःखी जीवन झूल गया जिसके लिये वह स्वयं को जिम्मेदार समझती थी। उसने सोचा कि एक की जिन्दगी तो बर्बाद हो ही चुकी है, कहीं ऐसा न हो कि सदाराम को भी दुःखी जीवन व्यतीत करना पड़े। अन्त में उसने उत्तर दिया, "मुझे मंजूर है। तुम सदाराम का ब्याह जहाँ और जिससे करना चाहो करो पर पहले तुम्हारा ब्याह होना चाहिये।"
राजो का उत्तर सुन कर महेन्द्र ने सन्तोष से कहा, "पहले तो वही ब्याह होगा जो पहले लग चुका है।"
(क्रमशः)
No comments:
Post a Comment