(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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जिन दिनों यह सब हो रहा था उन्हीं दिनों देश में स्वतन्त्रता संग्राम की बागडोर महात्मा गांधी के हाथ में थी। देश में नरम दल, स्वराज्य पार्टी, क्रान्तिकारी दल सभी अपना अपना काम कर रहे थे। एक ओर गांधी जी शान्ति, अहिंसा और असहयोग से राष्ट्र में जागृति ला रहे थे तो दूसरी ओर क्रान्तिकारी वीर विदेशी सत्ता को लोहे के चने चबवा रहे थे। सरदार भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर आजाद क्रान्तिवीर दल के अन्तर्गत देश की आजादी के लिये प्राणोत्सर्ग करने के लिये प्रति क्षण कटिबद्ध थे। छत्तीसगढ़ भी स्वतन्त्रता-संग्राम में कभी भी पीछे नहीं रहा। भारत का यह अंचल सुसंगठित रूप से स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलन में अपने समान स्वयं ही रहा। रायपुर राजनीति का प्रमुख केन्द्र हुआ। अपने पहले ही आन्दोलन के समय मौलाना शौकत अली के साथ महात्मा गांधी रायपुर आने वाले थे। इसी से रायपुर की राजनीतिक महत्ता और छत्तीसगढ़ द्वारा स्वराज्य-संग्राम में अधिकाधिक सहयोग देने की बात पुष्ट हो जाती है।
स्वतन्त्रता संग्राम की लहरें चारों ओर उठ रही थीं। रायपुर से गाँव गाँव में जागृति के सन्देश फैलाये जा रहे थे। प्रभात फेरियाँ निकाली जाती थीं। रायपुर नगर का वायुमण्डल "दक्षिण कौशल के वीरों, आज तुम्हारा अवसर है" और "रणभेरी बज चुकी वीर, पहनो केसरिया बाना" के ओजस्वी स्वर से गूंज रहा था। इस क्षेत्र के नेताओं में पण्डित रविशंकर शुक्ल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, मौलाना अब्दुल रऊफ़, महन्त लक्ष्मी नारायण दास, वामन बलीराम लाखे, माधवराव सप्रे, रामदयाल तिवारी, सुन्दरलाल शर्मा प्रमुख थे। म्युनिसिपैलिटी और डिस्ट्रिक्ट काउंसिल जैसी स्वराज्य संस्थाओं पर इन राजनीतिक कार्यकर्ताओं का पूर्ण रूप से अधिकार था। माधवराव सप्रे और पण्डित रामदयाल तिवारी अपने साहित्य की अदम्य शक्ति से जन जागरण का स्तुत्य और अमोघ कार्य कर रहे थे। सप्रे जी के द्वारा लोकमान्य तिलक का अनूदित "गीता रहस्य" और रामदयाल तिवारी का मौलिक ग्रन्थ "गांधी मीमांसा" जन-जागृति का माध्यम बने हुये थे। सब ओर गांधी जी के आगमन पर स्वागत की तैयारियाँ हो रहीं थीं। गाँव गाँव से उनके दर्शन के लिये लोग आ रहे थे। सिकोला से राजो और श्यामवती, खुड़मुड़ी से सुमित्रा और महेन्द्र और चन्दखुरी से जानकी और सदाराम भी रायपुर आये हुये थे।
गांधी जी के दर्शन के लिये प्लेटफॉर्म पर अपार भीड़ थी। वहाँ श्यामवती, जानकी, सदाराम और महेन्द्र भी थे। अभी उस गाड़ी के आने में देर थी जिससे गांधी जी आने वाले थे। उसके पहले एक पैसेंजर गाड़ी आई। गाड़ी के रुकते ही लोगों की नजर स्वाभाविकतः मुसाफिरों की ओर गई। महेन्द्र की नजर एक डब्बे के दरवाजे पर खड़ी बाहर देखती हुई एक युवती पर पड़ी और अनायास ही उसके मुँह से जोर से निकल गया, "उषा तुम!"
वह उषा ही थी। उसने भी तुरन्त ही महेन्द्र को पहचान लिया और बोली, "महेन्द्र बाबू, आप इधर रहते हैं क्या?"
"हाँ, इसी शहर में मेरा घर है। तुम कहाँ जा रही हो?" महेन्द्र ने पूछा।
"बम्बई" उषा का उत्तर था।
"वहाँ कोई खास काम है क्या?"
"है भी और नहीं भी।"
महेन्द्र ने न जाने किस प्रेरणा से कहा, "यदि तुम्हारे काम में कोई अड़चन न हो तो यहाँ उतर जावो और कुछ दिन हमारे घर रह कर फिर चली जाना। आज महात्मा गांधी भी आ रहे हैं, उनके भी दर्शन कर लेना।" गांधी जी को देखने और उनके भाषण सुन कर उनके विचारों को समझने की जिज्ञासा और उत्कण्ठा ने उषा के मन में रुक जाने की प्रबल लालसा उत्पन्न कर दी। उसने महेन्द्र को अपनी स्वीकृति दे दी और अपना थोड़ा-सा सामान डब्बे से उतार कर महेन्द्र के पास आ गई। वह समय न तो अधिक बात करने का था और न बढ़ा-चढ़ा कर परिचय देने का। महेन्द्र ने बहुत ही थोड़े में उषा को सबका और सबको उषा का परिचय दिया। उषा समझ गई कि यह वही श्यामवती है जिसे महेन्द्र चाहता है और श्यामा भी जान गई कि यह वही उषा है जिसने कलकत्ते में महेन्द्र की सेवा की थी। श्यामवती के मन में ईर्ष्या की एक हल्की-सी रेखा खिंच गई पर उसने अपना भाव प्रकट नहीं होने दिया। उसने देखा कि उषा, उषा के समान ही लावण्यमयी है। उसका मुख प्रातःकमल की तरह सुन्दर और गोल था। कोमलता मानो शरीर धारण करके आई थी। आँखों में अपूर्व सुन्दरता और आकर्षण था। वह उषा और महेन्द्र की गतिविधि को आलोचना की दृष्टि से देख रही थी। थोड़ी ही देर में कोलाहल मच गया। "महात्मा गांधी की जय" के नारों से वायुमण्डल गूंज उठा। जिस गाड़ी से महात्मा गांधी और शौकत अली आने वाले थे वह प्लेटफॉर्म पर आ चुकी थी। नेताओं और जनता ने गांधी जी को फूल-मालाओं से लाद दिया। वे हाथ जोड़े हुये स्वागत का उत्तर-सा दे रहे थे। गांधी जी के इस भव्य स्वागत का उषा पर बड़ा प्रभाव पड़ा।
स्टेशन से जुलूस निकला जो रास्ते में बने हुये स्वागत-द्वारों और तोरण-पताकाओं के बीच में से होकर नगर कोतवाली के पास वाले मैदान में सभा के रूप में परिणित हो गया। महात्मा गांधी के प्रथम आगमन की स्मृति में कोतवाली के पास वाले उस मैदान का नाम "गांधी चौक" रख दया गया। सन्ध्या समय "आनन्द समाज लायब्रेरी" में गांधी के भाषण का आयोजन किया गया। महेन्द्र, सदाराम, उषा, जानकी और श्यामवती भी भाषण सुनने गये। पहले कुछ स्थानीय नेताओं के भाषण हुये। पण्डित रामदयाल तिवारी चार से छः घण्टे तक लगातार धारावाहिक रूप से भाषण दे सकने की क्षमता रखते थे। वे लगभग दो घण्टे तक बोलते रहे। उन्होंने इतने सुंदर ढंग से गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के विषय में समझाया कि लोगों के मन में एकता, दृढ़ता, शान्ति और अहिंसा की हिलोरें सदा के लिये उठीं और स्वतन्त्रता-संग्राम के लिये स्वयंसेवकी की अपार सेना तैयार करने के लिये इस भू-भाग पर नींव खुद गई। गांधी जी के भाषण ने उस नींव पर शिला रख दी जिस पर ऐसा महल बना जिसकी शीतल छाया में, आगे चल कर, अपने नेता पण्डित रविशंकर शुक्ल को स्वाधीन भारत के पुराने और नये मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में पा कर रायपुर ने अपने भाग्य पर गर्व किया।
(क्रमशः)
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