(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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भाषण सुन कर लौटने के बाद जानकी और सदाराम चन्दखुरी चले गये और उषा, श्यामवती, राजो - महेन्द्र के साथ उसके घर ठहरे। रात के आठ बजे होंगे। उषा, श्यामा और महेन्द्र बरामदे में बैठे बातें कर रहे थे। उनके मनोभाव भी काम कर रहे थे। महेन्द्र जानना चाहता था कि उषा बम्बई क्यों जाना चाहती है। श्यामवती सोच रही थी कि उषा और महेन्द्र के आपसी भाव क्या हैं। उषा इस तथ्य का अनुसंधान लगाने में खोई थी कि जिस श्यामवती को ढूँढने में महेन्द्र ने दिन-रात एक कर दिया था उसके मिल जाने के बाद अब क्या दशा है। उस समय आज जैसी बिजली की रोशनी की किसी ने रायपुर में होने की कल्पना तक नहीं की थी। बड़ा-सा लैम्प टेबल पर रखा हुआ जल रहा था - मानो तीनों के विदग्ध हृदय का मूर्तिमान भाव हो। बातें कई विषयों को लेकर हो रही थीं। अचानक ही प्रसंग बदलते हुये उषा ने पूछा, "महेन्द्र बाबू, श्यामवती आपको कहाँ मिली?"
"मिली कहाँ! यह तो आप ही चली आई।"
"बाहर इनको बहुत कष्ट मिला होगा?"
"तुम्हारा कहना गलत नहीं है उषा। इसका जीवन सुख-दुःख का प्रत्यक्ष स्वरूप ही है।" महेन्द्र बोला।
"तब तो श्यामवती," श्यामा की ओर रुख करके उषा ने कहा, "मैं तुम्हारे जीवन के बारे में अवश्य ही सुनूँगी और वह भी तुम्हारे मुँह से।"
श्यामवती ने अपने विषय में सब कुछ बता दिया पर अपने और महेन्द्र के प्रेम को छिपा गई। श्यामा के जीवन की विडम्बनाओं को सुन कर उषा की आँखें सजल हो गईं। महेन्द्र ने वार्ता-क्रम जारी रखते हुये कहा, "विवाह केवल अभिशाप है। आजन्म अविवाहित रह जाना अच्छा है।"
उषा बोली, "महेन्द्र बाबू, आप ठीक कह रहे हैं। मैं भी इस सिद्धान्त को मानती हूँ।"
"और इससे चाहे किसी को कितना ही दुःख क्यों न मिले।" श्यामवती ने विवाद में भाग लिया।
"किसको कष्ट और किसको दुःख?" महेन्द्र ने पूछा।
"तुम्हारी माता सुमित्रा को और किसको।" श्यामवती का यह उत्तर सुन कर महेन्द्र का सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया। उसके चेहरे पर विषाद की स्पष्ट रेखा खिंच गई जो उषा की दृष्टि से छिप न सकी।
"यह माता जी की भूल है जो मेरे ब्याह न करने से दुःखी हो रही हैं।" महेन्द्र ने दुःखी मन से कहा।
"सुना उषा बहन तुमने। ये और भी कहेंगे कि पढ़े-लिखे बेटे से सुख की आशा करना, घर में बहू आये जिससे सुख मिले और वंश को पानी देने वाले हों ऐसा सोचना भी माता जी की भूल ही होगी। उनकी हर बात भूल और इनकी हर बात अच्छी है। पढ़-लिख कर इनको कितनी अच्छी बुद्धि मिली है।" श्यामवती ने महेन्द्र को आड़े हाथों लिया। उसकी महेन्द्र के प्रति अधिकार भरी झिड़की सुनने में उषा को बड़ा आनन्द आ रहा था। वह बोली, "श्यामवती, तुम कुछ भी कहो पर हम तो महेन्द्र बाबू का ही साथ देंगे क्योंकि हम दोनों का विवाह न करने का सिद्धान्त है। अच्छा पुनर्विवाह पर तुम्हारा क्या मत है महेन्द्र?"
"यह माता जी की भूल है जो मेरे ब्याह न करने से दुःखी हो रही हैं।" महेन्द्र ने दुःखी मन से कहा।
"सुना उषा बहन तुमने। ये और भी कहेंगे कि पढ़े-लिखे बेटे से सुख की आशा करना, घर में बहू आये जिससे सुख मिले और वंश को पानी देने वाले हों ऐसा सोचना भी माता जी की भूल ही होगी। उनकी हर बात भूल और इनकी हर बात अच्छी है। पढ़-लिख कर इनको कितनी अच्छी बुद्धि मिली है।" श्यामवती ने महेन्द्र को आड़े हाथों लिया। उसकी महेन्द्र के प्रति अधिकार भरी झिड़की सुनने में उषा को बड़ा आनन्द आ रहा था। वह बोली, "श्यामवती, तुम कुछ भी कहो पर हम तो महेन्द्र बाबू का ही साथ देंगे क्योंकि हम दोनों का विवाह न करने का सिद्धान्त है। अच्छा पुनर्विवाह पर तुम्हारा क्या मत है महेन्द्र?"
"इसी से पूछो।" कह कर महेन्द्र ने श्यामवती की ओर इशारा किया। उषा भी बोली, "हाँ, तुम्हीं बताओ श्यामा।"
थोड़ी देर सोच कर श्यामवती बोली, "यदि समाज को लाभ पहुँचे तो स्त्री-पुरुष दोनों के लिये ही पुनर्विवाह अनुचित नहीं है।"
"तो तुम फिर से विवाह क्यों नहीं कर लेती।" महेन्द्र ने श्यामा से पूछा।
"किससे?" महेन्द्र का मन टटोलने के लिये श्यामवती ने पूछा। इस प्रश्न ने महेन्द्र को मौन कर दिया।
"महेन्द्र बाबू से, और किस से।" उषा ने ठीक समय पर न चूकने वाला तीर चलाया।
"नहीं, ऐसा नहीं होगा उषा।" श्यामवती ने कहा।
"क्यों?" उषा का प्रश्न था।
"तुम नहीं जानती उषा। इसमें बड़ी अड़चनें हैं।" श्यामा निःश्वास छोड़ती हुई बोली। महेन्द्र चाहता था कि ये बातें अब और न हों और न दिलों को ठेस पहुँचे। उसने प्रसंग बदलते हुये कहा, "हां उषा, तुम बम्बई क्यों जा रही हो?"
"फिलहाल समझ लीजिये कि देश सेवा के लिये। पर मैं देखती हूँ कि यह काम हर जगह किया जा सकता है।" उषा के उत्तर ने श्यामवती में नई स्फूर्ति भर दी और वह बोली, "देश सेवा करना तो हर एक का धर्म है।"
"तुम ठीक कहती हो पर सबसे पहले देश से विदेशी सत्ता का नाश करना आवश्यक है।" उषा ने अपना विचार व्यक्त किया।
"पर इसके लिये संगठन और एकता की आवश्यकता है जो गांधी जी की अहिंसा की नीति से बनती जा रही है।" श्यामवती बोली।
"मैं ऐसा नहीं समझती। विदेशियों का सफाया हम हिंसा से भी तो कर सकते हैं।" उषा ने कहा।
"यह तुम्हारी भूल है। तुम्हारा इशारा शायद क्रान्तिकारी दल की ओर है।" श्यामवती ने स्पष्ट किया और कहती गई, "किन्तु हिंसात्मक क्रान्ति से अधिक से अधिक बलि देकर भी वह शक्ति प्राप्त नहीं होगी जो सुधार, जागृति और संगठन से मिल सकती है।" महेन्द्र को दोनों के बहस में आनन्द आ रहा था। उषा बोली, "आज भाषण सुन कर मेरे विचारों में भी अवश्य ही परिवर्तन हुआ है। मैं भी अब शान्ति और अहिंसा से कुछ करना चाहती हूँ।"
"यह तुम्हारी भूल है। तुम्हारा इशारा शायद क्रान्तिकारी दल की ओर है।" श्यामवती ने स्पष्ट किया और कहती गई, "किन्तु हिंसात्मक क्रान्ति से अधिक से अधिक बलि देकर भी वह शक्ति प्राप्त नहीं होगी जो सुधार, जागृति और संगठन से मिल सकती है।" महेन्द्र को दोनों के बहस में आनन्द आ रहा था। उषा बोली, "आज भाषण सुन कर मेरे विचारों में भी अवश्य ही परिवर्तन हुआ है। मैं भी अब शान्ति और अहिंसा से कुछ करना चाहती हूँ।"
"तुम यहीं क्यों नहीं रह जातीं। देखेंगे कि हम सब मिल कर कुछ कर सकते हैं या नहीं।" श्यामा ने उषा के अपना प्रस्ताव रखा।
बात ऐसी थी जिसकी उषा ने कल्पना तक नहीं की थी। बोली, "विचार कर के बताउँगी।"
इसके बाद वे तीनो विश्राम करने अपने-अपने कमरे में चले गये।
(क्रमशः)
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