Tuesday, October 9, 2007

धान के देश में - 31

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 31 -

सदाराम और महेन्द्र के नागपुर से चले जाने के बाद जानकी चिन्तित रहने लगी। एक सप्ताह बाद जब उसे सदाराम का पत्र मिला तब उसकी चिन्ता कपूर के तरह उड़ गई। उसके बाद उसे सदाराम के पत्र लगातार मिलते रहे पर किसी में भी विवाह के विषय में कुछ भी नहीं लिखा होता था जिससे उसके हृदय को ठेस लगती थी। जो जानकी सदाराम के सामने ऐसी बनी रहती थे कि उसके हृदय के भाव भाँपे न जा सकें वह अब सदाराम को पाने के लिये व्याकुल हो उठी थी। आखिर उसकी खुशी का दिन भी आया जब कि महेन्द्र का इस आशय का पत्र मिला कि सदाराम की शादी के लिये राजवती राजी हो गई है। पत्र पा कर उसका आवेश उभरा नहीं पर आँखों में आनन्द के आँसू अवश्य ही छलक आये। जानकी के पिता रतीराम को तो कोई ऐतराज था ही नहीं। अतः ब्याह पक्का हो गया और मुहूर्त निश्चित कर लिया गया।
सदाराम के ब्याह में श्यामवती का रहना आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य था क्यों कि ब्याह में बहन ही तो नेग करती है। टाटानगर जाने के पहले श्यामवती अपने ससुर दुर्गाप्रसाद की पगड़ी के छोर में बाँध कर जो चिट्ठी छोड़ गई थी उससे सबको पता था कि वह टाटानगर में है। उसे लिवा लाने के लिये सदाराम टाटानगर गया। वहाँ मजदूरों की बस्ती में पहुँच कर उसने पता लगाया तो परसादी से सब कुछ जान कर बड़ा दुःखी हुआ। यह सुन कर और भी भय और व्यथा हुई कि रामनाथ के साथ श्यामवती पन्द्रह-बीस दिनों पहले ही रायपुर के लिये रवाना कर दी गई है। वह अभी तक न तो रायपुर पहुँची थी, न खुड़मुड़ी और न ही सिकोला। सदाराम टाटानगर से लौट आया। उससे सब बातें और भोला की शैतानी सुन कर राजो सिर पीट पीट कर रोने लगी। उसे सबने ढाढ़स बँधाया। श्यामवती के गायब हो जाने की खबर से महेन्द्र के हृदय में अधीरता, विषाद, चिन्ता और व्यथा का तूफान उठ खड़ा हुआ। सब तो हुआ पर श्यामवती की अनुपस्थिति के कारण सदाराम का ब्याह रोकना उचित न था।
बड़ी धूमधाम के साथ सदाराम की बारात लेकर महेन्द्र नागपुर गया और जानकी के साथ सदाराम का ब्याह हो गया। वापस आ कर सब अपने अपने काम में लग गये। जानकी और सदाराम चन्दखुरी चले गये। महेन्द्र रायपुर में रह गया और सुमित्रा और राजो खुड़मुड़ी चली गईं। महेन्द्र को चिन्ता थी कि जब श्यामवती टाटानगर से रायपुर के लिये रवाना हो चुकी पर रायपुर नहीं आई तो अवश्य ही वह किसी मुसीबत में पड़ गई होगी। परसादी से सदाराम को और सदाराम से महेन्द्र को मालूम हो चुका था कि श्यामवती जिस रामनाथ के साथ रायपुर भेजी गई थी वह पहले कलकत्ता जाने वाला था। शायद वे दोनों कलकत्ते में ही किसी विपत्ति में पड़ गये हों। इस विचार से महेन्द्र की अन्तरात्मा काँप उठी। किन्तु उसने धीरज धारण किया और निश्चय किया कि वह श्यामवती को ढूँढ निकालेगा। वहाँ उसे खेती के कुछ औजार भी खरीदना था। इसलिये वह कलकत्ता चला गया।
कलकत्ता पहुँच कर महेन्द्र ने श्यामवती को ढूँढने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। उसने एक एक गली और सड़क की खाक छानी। उसके मन में एक अन्य विचार भी आया जिसके तहत उसने वेश्यालयों में भी जा कर श्यामवती को खोजने का प्रयत्न किया पर वह कहीं नहीं मिली। एक दिन रास्ता चलते समय महेन्द्र बहुत ही अधिक चिन्तातुर था। एकदम अनमना हो कर चल रहा था। चारों ओर का कोलाहल भी उसे दूर से आती हुई क्षीण ध्वनि के समान लग रहा था। सहसा पीछे से आती हुई एक मोटर की चपेट में वह आ गया और धड़ाम से सड़क पर गिर पड़ा। ड्रायव्हर ने पूरी ताकत से मोटर रोकने का प्रयत्न किया था पर दुर्घटना हो ही गई। चोट तो बहुत नहीं लगी पर वह बेहोश अवश्य ही हो गया।
मोटर से एक युवती उतर कर बेसुध महेन्द्र के पास आई। वह बहुत अधिक घबराई हुई थी। उमर उसकी कोई सत्रह-अठारह वर्ष की थी। उसके वस्त्र बहुमूल्य थे। गले में कीमते 'नेकलेस', हाथों में सोने की चूड़ियाँ और माथे पर गोल बिन्दी थी। उसके अनुपम सौन्दर्य पर करुणा की छाया झलक रही थी जिससे उसकी सुन्दरता और भी निखर आई थी। ड्रायव्हर की सहायता से उसने महेन्द्र के संज्ञाहीन शरीर को मोटर में रख दिया। अब तक लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी। लोगों को समझा-बुझा कर वह युवती महेन्द्र को अपने साथ उसका इलाज करवाने ले गई।
सड़क पर सड़क पार कर मोटर एक आलीशान मकान के सामने रुकी। यही उस युवती का घर था। दो-तीन नौकर दौड़ कर आये जिनकी सहायता से महेन्द्र को एक कमरे में पहुँचाया गया। कमरे में मुलायम बिस्तर और गद्दे वाला पलंग बिछा था। उस पर महेन्द्र को लिटा दिया गया। डॉक्टर बुलवा कर महेन्द्र का उपचार करवाया गया। डॉक्टर ने महेन्द्र के चोटों पर मरहम-पट्टी कर दी और उस युवती को बताया कि डरने की कोई बात नहीं है, आधे घंटे के भीतर होश आ जायेगा।
महेन्द्र बेहोश पड़ा था। वह युवती उसकी सेवा में लगी थी कि दो और युवतियों ने कमरे में प्रवेश किया। दोनों ही पहली युवती से अवस्था में बड़ी थीं। आते ही एक बोली, "उषा, यह कौन है? कहाँ से उठा लाई हो इसे?" उषा ने उत्तर दिया, "उठा नहीं लाई शशि, ये मेरी मोटर के नीचे आ गये थे। लइसलिये उपचार के लिये ले आई हूँ।" इसी बीच बेहोशी की हालत में महेन्द्र ने दो-तीन बार श्यामवती का नाम लिया। शशि ने तीसरी युवती से कहा, "अरुणा, यह तो किसी श्यामवती का पुजारी जान पड़ता है। इसे ले आने से उषा को क्या मिलेगा?"
"मिलेगा क्या खाक।" कह कर अरुणा मुस्कुराई और बोली, "चल शशि उस उषा को यहीं मरने दे।" शशि और अरुणा तितली की भाँति वहाँ से चली गईं। उषा को उन दोनों का ढंग पसन्द नहीं था। उषा, शशि और अरुणा सगी बहनें थीं। उषा सबसे छोटी थी। धीरे धीरे महेन्द्र को होश आया। उसने आँखें खोल कर छत की ओर देखा और विचारों की श्रृंखला जोड़ने में लग गया। उसे याद आया कि वह मोटर के नीचे आ कर बेहोश हो गया था। वह कह उठा, "मैं कहाँ हूँ?"
"आप मेरे घर में हैं। मैं उषा हूँ। आप मेरी मोटर के नीचे आ कर बेसुध हो गये थे।" उषा बोली।
महेन्द्र को स्वस्थ होने में केवल एक दिन का ही समय लगा और जाने के लिये तैयार हो गया पर उषा ने बड़ा आग्रह किया कि वह दो-चार दिन रह कर पूरी तरह स्वस्थ हो कर जाये। महेन्द्र भी कुछ कमजोरी का अनुभव कर रहा था और उषा के आग्रह में इतनी अधिक नम्रता और आकर्षण था कि कम से कम चार दिन वहीं रुक जाने के लिये महेन्द्र को बाध्य होना ही पड़ा। महेन्द्र को मालूम हुआ कि उषा के परिवार में उसके माता-पिता, एक भाई और अरुणा, शशि तथा उषा तीन बहनें थीं। महेन्द्र का परिचय पा कर उन सभी ने प्रसन्नता व्यक्त की। उस घर में सभी हँसमुख और प्रसन्न थे। जो भी महेन्द्र से बात करता, मुस्कुराता ही रहता। केवल उषा ही ऐसी थी जिसके चन्द्रमुख पर विषाद के बादल छाये रहते थे। घर के लोग जब तब उसे झिड़कते ही रहते और वह चुपचाप सभी की बातें सुन लिया करती थी। उस घर में दिन-रात कोई न कोई आता-जाता रहता था। शशि और अरुणा हँस हँस कर उनका स्वागत करती थीं। उस मकान में आने वालों के स्नान, भोजन, मनोरंजन का प्रबन्ध था, फिर भी वह मकान कोई धर्मशाला नहीं था। शशि और अरुणा संगीत छेड़ कर आगन्तुकों को मनोरंजन करती थीं। केवल उषा ही अपने कमरे में बैठी रहती थी। अकस्मात उसके कमरे में कोई आ जाता तो उसे केवल 'मनहूस कहीं की' कह कर चला जाता था। महेन्द्र ने इन सब बातों का जल्दी ही अध्ययन कर लिया। महेन्द्र की देखभाल उषा के सिवाय और कोई नहीं करता था।
चौथे दिन सबेरे उषा चाय लेकर महेन्द्र के पास आई। आज महेन्द्र चला जाने वाला था। चाय का ट्रे टेबल पर रख कर उषा एक ओर खड़ी हो गई।
"बैठो उषा" महेन्द्र ने कहा।
वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई।
"उषा, तुम्हारे घर यह सब क्या होता है?"
"कुछ न पूछो महेन्द्र बाबू" एक गहरी निःश्वास छोड़ कर उषा बोली, हम कुलीन घराने के हैं पर पिता जी और भैया ने मुसाफिरों के मनोरंजन का व्यवसाय अपना लिया है। हम तीनों बहनों में से एक का भी विवाह जान-बूझ कर नहीं किया गया है। मेरी दोनों बहनें न मालूम कैसे इस व्यवसाय में रुचि रखती हैं पर मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता।"
महेन्द्र सुन कर स्तब्ध रह गया। वह गहरी चिन्ता में डूब गया। उसके चेहरे पर विषाद की रेखा उभर आई। इसी समय शशि और अरुणा भी वहाँ आ गईं। कुछ देर तक तो दोनों महेन्द्र और उषा को देखती रहीं फिर अरुणा ने हँस कर पूछा, "घुल-मिल कर क्या बातें हो रही हैं महेन्द्र बाबू?" महेन्द्र के कुछ कहने के पहले ही नाक-भौं सिकोड़ कर उषा बोली, "बातें क्या हो रहीं हैं। महेन्द्र बाबू आज जा रहे हैं इसी पर चर्चा चल रही थी।"
अच्छा, अच्छा" कह कर शशि और अरुणा तेजी से चली गईं। दोनों ने समझ लिया कि यहाँ हमारी दाल नहीं गलेगी।
दोपहर को भोजन करने के बाद महेन्द्र जब उस घर से जाने लगा तब उषा के सिवाय कोई उससे मिलने नहीं आया। पहुँचाने के लिये वह दरवाजे तक आई और दोनों ने अभिवादन किया। उसी समय महेन्द्र ने बटुये से सौ का नोट निकाल कर उषा के हाथ में रख दिये। उषा तिलमिला उठी। नोट को वापस करती हुई बोली, "महेन्द्र बाबू, इस घर के और लोगों के समान मुझे भी आप नीच और गिरी हुई समझते हैं। ये रुपये वापस लीजिये।" महेन्द्र अवाक् हो गया। उसने यह सोच कर रुपये वापस ले लिये कि उषा की भावना और हृदय को इससे ठेस लगी है। किन्तु कहा, "नहीं उषा, यह बात नहीं है। मैं तुम्हें कुछ दिये बिना ही चला जाऊँ तो तुम्हारे घर के लोग तुम्हारी आफत न कर देंगे?"
वह बोली, "वे लोग मेरी क्या आफत कर सकते हैं। आफत तो मैं उन्हीं लोगो की किया करती हूँ महेन्द्र बाबू। मैंने तो निश्चय कर लिया है कि इस नरक से एक न एक दिन बच निकलूँगी। पढ़ी-लिखी हूँ। नौकरी कर के पेट पाल लूँगी।"
"भगवान करे ऐसा ही हो।" कह कर महेन्द्र वहाँ से चला गया। जब तक वह दिखता रहा, उषा दरवाजे पर खड़ी रही। महेन्द्र के आँखों से ओझल होने पर ही वह भीतर गई।
कलकत्ते में श्यामवती को ढूँढने का निष्फल प्रयास के बाद महेन्द्र रायपुर लौट गया और वहाँ से खुड़मुड़ी चला गया।
(क्रमशः)

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