Thursday, December 3, 2009

कभी सोचा भी न था कि लिखने लगूँगा

आज रोज एक पोस्ट लिख लेता हूँ तो मुझे स्वयं के ऊपर बहुत आश्चर्य होता है क्योंकि कभी सोचा भी नहीं था कि लिखने लगूँगा। चार साल पहले मैं नेट में आया था कमाई करने के चक्कर में। साल भर तक नेट को कमाई करने के तरीके जानने के लिये खंगालता रहा। इसी चक्कर में ब्लोगिंग (अंग्रेजी) के बारे में पता चला तो अपने कुछ अंग्रेजी ब्लोग बना डाले और सपने देखने लगा सपना कि एडसेंस से धन बरसने लगेगा और बन जाउँगा मैं धनकुबेर। रोज देखा करता था अपने एडसेंस खाते के बैलेंस को जो कि एक डेढ़ महीनों तक जीरो ही रहा। निराशा तो आती थी पर निराशा से अधिक क्रोध आता था अपने आप पर यह सोच कर कि लोग कमा सकते हैं पर मैं कुछ भी नहीं कमा रहा। फिर धीरे धीरे दो तीन-सेंट रोज के हिसाब से एडसेंस में रकम आने लगी। आठ माह बाद सौ डालर हो जाने पर पहला चेक मिला गूगल से। दूसरा उसके पाँच माह बाद, तीसरा फिर तीन माह बाद। इस प्रकार से कमाई शुरू हो गई।

लगभग एक साल तक तो नेट में हिन्दी और हिन्दी ब्लोग के विषय में पता ही नहीं चला। फिर नेट में हिन्दी के बारे में पता चलने के बाद डोमेननेम, होस्टिंग आदि लेकर अपना एक हिन्दी वेबसाइट भी बना लिया क्योंकि उन दिनों हिन्दी साइट में भी एडसेंस के विज्ञापन आते थे।

तो मैं बता रहा था कि मैंने सोचा भी नहीं था कि मैं कभी लिखने लगूँगा। कवि, लेखक, साहित्यकार, पत्रकार कुछ भी तो नहीं हूँ मैं, कभी रहा भी नहीं था। हाँ, मेरे पिता, स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया, अवश्य साहित्यकार थे, साहित्य की हर विधा में लिखा था उन्होंने। मन में विचार आया कि क्यों न एक हिन्दी ब्लोग बनाकर पिताजी के उपन्यास "धान के देश में" को नेट में डाला जाये। बस बना डाला अपना ब्लोग पिता जी के उपन्यास के नाम पर ही। पिताजी के उपन्यास के पूरा हो जाने पर उनकी अन्य कविता कहानियों को डालने लगा पर धीरे-धीरे वे सब भी मेरे ब्लोग में डल गईं। अब कहाँ से कोई पोस्ट लाता मैं? मजबूर होकर कुछ कुछ लिखने लगा। विश्वास नहीं था कि कोई पसंद करेगा मेरे लिखे को। पर आप लोगों का स्नेह मुझे मिलने लगा और मैंने लिखना जारी रखा। अब तो थोड़ी सी पहचान भी बन गई है मेरी।

इस हिन्दी लेखन के चक्कर में कमाई तो बहुत कम हो गई और रोज हिन्दी लिखने की एक लत अलग से लग गई याने कि "आये थे हरि भजन को और ओटन लगे कपास"

चलते-चलते

धर्मार्थ अस्पताल में डॉक्टर से एक व्यक्ति ने आकर कहा, "मोशन क्लियर नहीं हो रहा है डॉ. साब।"

डॉक्टर ने दवा दे दी।

दूसरे दिन फिर वह आ गया और बोला, "आज भी मोशन क्लियर नहीं हुआ।"

डॉक्टर ने पिछले दिन से अधिक स्ट्रॉग दवा दी।

तीसरे दिन फिर वह आ गया और बोला, "आप की दवा ने आज भी असर नहीं किया।"

डॉक्टर ने और अधिक स्ट्रॉग दवा दी।

चौथे दिन फिर वह आ पहुँचा और बताया कि अभी भी दवा ने असर नहीं किया।

डॉक्टर ने झल्ला कहा, "अरे यार, तुमको मैंने कल जो जुलाब दिया था उसको घोड़े को भी खिला दो तो उसकी टट्टी निकल जाये! आखिर तुम हो क्या बला? करते क्या हो तुम?"

"मैं हिन्दी ब्लोगर हूँ साहब।"

सुनकर डॉक्टर साहब कुछ नरम पड़े और जेब से बीस का एक नोट निकाल कर उसे देते हुए कहा, "ये बीस रुपये लो और जाकर खाना खा लो, कल जरूर मोशन क्लियर हो जायेगा।"

18 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

मेरी मानिए अवधिया साहब तो यह निश्चित तौर पर बहुत अच्छी अदात है ! जिस हिसाब से आज का जन जीवन बेहद एकाकीपूर्ण होता जा रहा है, उन परिस्थितियों में यह आदत निश्चित तौर पर इंसान के लिए सुखद है !वैसे तो आप मेरे से बहुत सीनियर है (करीब १४-१५ साल ) लेकिन कहूंगा कि यहाँ आपको अपना लिखा या किसी और का लिखा लेख कहानी कविता इत्यादि जो भी रुचिकर लगता हो उसका प्रिंट आउट लेकर एक किताब के तौर पर बाइंड करवाकर रखने में बुरे नहीं, बुढापे में फुरसत के पलो में उसका भी लुफ्त उठाया जा सकता है !

Khushdeep Sehgal said...

अवधिया जी,
पेट गड़बड़ लग रहा है और जेब में छेद है...ज़रा अपने डॉक्टर का पता तो दीजिए...

जय हिंद...

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

अवधिया जी मोशन क्लि्यर नही हो रहा है, मै पहुच रहा हुं आपके पास शाम तक, दवाई लेके रखना "रेड़ एण्ड नाईट" भी चलेगा। हा हा हा

Mohammed Umar Kairanvi said...

बहुत मिलती जुलती है कहानी मेरी और आपकी इस मामले मे भी, आपकी दी इस पंक्ति में सब बातें आ गईं "आये थे हरि भजन को और ओटन लगे कपास"। कभी ब्लागवाणी से दोस्‍ती हो गई तो हम भी रोज़ लिखा करेंगे, इन्‍शाअल्‍लाह (अगर अल्‍लाह ने चाहा तो)
chatka no. 2

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

आदरणीय अवधिया जी....



सादर नमस्कार..........





लिखना बहुत अच्छी आदत है.... यह बात तो सही कह रहें हैं आप कि अब हिंदी लिखना रोज़ कि आदत हो गई है....... आपके चलते चलते के तो कहने ही क्या.....



सादर



महफूज़....

Kusum Thakur said...

आपने बहुत ही अच्छी आदत पाल ली है , रोज़ लिखना वह भी हिंदी . आप तो राष्ट्र भाषा की सेवा कर रहे है !

अन्तर सोहिल said...

"पर आप लोगों का स्नेह मुझे मिलने लगा और मैंने लिखना जारी रखा। अब तो थोड़ी सी पहचान भी बन गई है मेरी।"

यह भी तो कमाई ही है जी

प्रणाम स्वीकार करें

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

लेखन भी एक कमाई है, जिससे मान सम्मान और यश तो मिलता ही है।
--------
अदभुत है हमारा शरीर।
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा?

संजय बेंगाणी said...

आये थे हरि भजन को और ओटन लगे कपास...

मुद्दा यह है कि मजा आ रहा है कि नहीं? बस ऐश करें... खुब लिखें :)

निर्मला कपिला said...

बहुदा लोगों ने ये लत बिना सोचे समझे ही लगा ली है । बहुत लोग आपकी तरह ही हैं यहाँ मगर अब ये छुडाये नहीं छूट रही शुभकामनायें

Chandan Kumar Jha said...

ओह ऐसी पोस्टें पढ़कर हीं तो हमें ऊर्जा मिलती है ।
चलते - चलते ने बहुत हंसाया ।

Gyan Dutt Pandey said...

हिन्दी ब्लॉग की कमाई तो मात्र टिप्पणियां हैं!

रंजू भाटिया said...

यह आदत तो अब जो लगी सो लगी और सही यही कमाई है ..अब तो लिखे बिना कहाँ है गुजारा..:)

डॉ टी एस दराल said...

२० रूपये ? --- अवधिया जी, ये बात तो कवियों पे लागू होती है। ब्लोगर्स पे नही।
वैसे हमारे लिए तो एक एक टिपण्णी एक एक लाख के बराबर है।
स्वागत है।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

अवधिया जी, आधे से अधिक ब्लागर्स की शायद ऎसी ही कुछ कहानी होगी....बाकी असली कमाई तो यही है कि जहाँ आपस में दो घडी कुछ अपनी कह लेते हैं ओर दूसरों की सुन लेते हैं.....इससे बढकर कमाई क्या होगी !

Anonymous said...

इस हिन्दी लेखन के चक्कर में कमाई तो बहुत कम हो गई और रोज हिन्दी लिखने की एक लत अलग से लग गई याने कि "आये थे हरि भजन को और ओटन लगे कपास"।

यही हाल अपना भी है :-)

बी एस पाबला

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर बात लिखी आप ने, ओर चलते चलते मै यह ब्लांगर कोन है? बताने की जरुरत नही, भई जब सारा दिन लिखेगा ही तो.....

अनूप शुक्ल said...

ये तो खूब कही। खूब लिखी।