कई बार मुझे लगता था कि रस, छंद और अलंकार अब दम तोड़ रहे हैं। अब 'नवकंज लोचन, कंजमुख, करकंज, पदकंजारुणं' जैसी अनुप्रास अलंकार से युक्त पंक्तियाँ शायद ही लिखी जायेंगी। किन्तु ललित शर्मा जी की संयोग श्रृंगार रस और अनुप्रास अलंकार से अलंकृत निम्न रचना को पढ़ कर समझ में आया कि मेरी यह सोच सरासर गलत हैः
सजना सम्मुख सजकर सजनीशीर्षक सहित रचना की प्रत्येक पंक्ति में अनुप्रास का इतना सुन्दर प्रयोग ललित जी के लालित्य का ही तो प्रदर्शित करता है!
खेल रही है होली..
कंचनकाया कनक-कामिनी,
वह गाँव की छोरी
चन्द्रमुखी चंदा चकोर
चंचल अल्हड-सी गोरी.
ठुमक ठुमक कर ठिठक-ठिठक कर
करती मस्त ठिठोली.
सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
छन-छन, छनक-छनन छन
पायल मृदुल बजाती
सन-सन सनक सनन सन
यौवन-घट को भी छलकाती
रंग रंगीले रसिया के छल से
भीगी नव-चोली
सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
पीताम्बर ने प्रीत-पय की
भर करके पिचकारी
मद-मदन मतंग मीत के
तन पर ऐसी मारी
उर उमंग उतंग क्षितिज पर
लग गई जैसे गोली
सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
गज गामिनी संग गजरा के
गुंजित सारा गाँव
डगर-डगर पर डग-मग
डग-मग करते उसके पांव
सहज- सरस सुर के संग
सजना खाये भंग की गोली
सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
अलंकारों की बात चली है तो आइये थोड़ा इस विषय में जान भी लें। अलंकार का अर्थ होता है आभूषण या गहना। जिस प्रकार से नारी का सौन्दर्य में स्वर्ण, रत्न आदि से निर्मित अलंकारों से वृद्धि हो जाती है उसी प्रकार से साहित्य के के सौन्दर्यवर्द्धन के लिये अलंकारों का प्रयोग किया जाता है।
अलंकार के निम्न तीन प्रकार होते हैं:
शब्दालंकारः जहाँ शब्द चातुर्य के द्वारा काव्य का सौन्दर्यवर्द्ध किया जाता है वहाँ शब्दालंकार होता है। अनुप्रास, यमक और श्लेष अलंकार शब्दालंकार के अन्तर्गत् आते हैं।
अर्थालंकारः जहाँ अर्थ में चमत्कार के द्वारा काव्य का सौन्दर्यवर्द्ध किया जाता है वहाँ अर्थालंकार होता है। उपमा, रूपक, भ्रान्तिमान आदि अलंकार अर्थालंकार के अन्तर्गत् आते हैं।
उभयालंकारः जहाँ अर्थ में चमत्कार के द्वारा काव्य का सौन्दर्यवर्द्ध किया जाता है वहाँ अर्थालंकार होता है।
अलंकारों के कुछ उदाहरणः
सिसिर में ससि को सरूप वाले सविताऊ,
घाम हू में चाँदनी की दुति दमकति है।
(अनुप्रास वर्णों की आवृति)
दिनान्त था थे दिननाथ डूबते सधेनु आते गृह ग्वालबाल थे
(अनुप्रास एक ही वर्ग के वर्णों के साथ साथ अन्य वर्णों की आवृति)
घोर मन्दर के अन्दर रहनवारी घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं
(यमक एक ही शब्द के अलग अलग बार प्रयोग में अलग अलग अर्थ)
पानी गये ना ऊबरे मोती मानुस चून
(श्लेष एक शब्द के एकाधिक अर्थ)
कुन्द इन्दु सम देह, उमा रमन करुना अपन
(उपमा)
विरह आग तन में लगी जरन लगे सब गात।
नारी छूअत बैद के परे फफोला हाथ॥
(अतिशयोक्ति )
11 comments:
आदरणीय नमस्कार
पोस्ट में फान्ट का साईज अगर थोडा बडा हो सके तो आपका अनुग्रह होगा।
पोस्ट के बारे में इसलिये टिप्पणी नही कर रहा हूं कि विषय मेरी समझ से बाहर है। क्षमाप्रार्थी हूं।
प्रणाम
आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद अन्तर सोहिल जी!
आपके सुझाव के अनुसार फॉन्ट साइज बढ़ा दिया है।
कविता के बारे में अच्छी जानकारी मिली। आभार अवधिया जी।
और ललित जी के तो क्या कहने !
ललित जी की कविता तो मैं पढ चुकी थी .. इस रचना का तो जबाब नहीं .. साहित्य का छूटा हुआ पाठ अभी पढ लिया !!
बहुत अच्छी जानकारी मिली....
आभार....
ललित के लालित्य के तो क्या कहने
बी एस पाबला
यह बात-विषय हिन्दी के हित का
रस, छंद और अलंकार सहित का
इन्हें अपनी काव्य कला में समेटे
झलक रहा लालित्य ललित का
ललित जी अपने नाम के अनूसार ही बहुत अच्छॆ ओर सुंदर स्व्भाव के लगते है, आप उन की मूंछे देख कर मत डरे, बहुत मिलन सार है
अवधिया जी,
माना हमने कभी आपको मोटरसाइकिल पर मेला नहीं घुमाया, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं आप सारी प्रशंसा का खजाना हमारे शेर सिंह जी (ललित शर्मा) पर ही लुटा दें...
बुरा मत मानिएगा, होली की मस्ती की खुशबू अभी से आने लगी है...वैसे ललित जी, जो कुछ भी करते हैं, उसका जवाब नहीं होता...कविता के विश्लेषण के लिए आपका आभार...
जय हिंद...
bhaiya, sabase pahle to ghar mein jo shaadi thi uski badhai, doosri badhai ki aapaapko dekh kar bahut khushi hui..
lalit ji ki tareef aaj subah se hi ham kar rahein ..unmein tareef yogy kayii baatein hain...ek to unmein gazab ki oorja hai..kya-kya krte rehte hain..chiittha charcha, apni kavitaaon ka srijan aur nana jaane kya-kya...
kavitaaon ke vibhinn roopo ke jaankaari aapne di aapka hriday se dhnyawaad...
ललित तो ललित हैं, आपने अनुप्रास अलंकार के बारे में जानकारी प्रदान की अच्छा लगा और भले ही हम आपसे बहुत छोटे हैं पर आज से ३० वर्ष पहले शासकीय बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक माध्यमिक शाला मुंगेली में अध्ययन के दौरान पढाये गए इन अलंकारों की याद ताजा हो आई. पद्माकर जी और सेनापति की कविता "निर्झरणी" पुस्तक में थी. एक पंक्ति मुझे भी याद हो आयी लाल लाल केसि फूलि रहे हैं बिसाल संग श्याम रंग मानो महु मसि में मिलाये हैं"
बहुत बढ़िया
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