आपने गंदी नाली के कचरे को बहाने के लिये उसे ठेलते हुए अवश्य ही देखा होगा किन्तु क्या कभी आपने नदी निर्झर-आदि के जल को प्रवाहित होने के लिये कभी उसे ठेलते देखा है?
नदी-निर्झर आदि का जल तो अपने आप ही अनवरत रूप से प्रवाहित होते रहता है, उसे कभी भी ठेलना नहीं पड़ता। क्या कलकल नाद करने वाली पुण्यसलिला गंगा को कभी ठेलने की आवश्यकता पड़ती है? झर-झर झरते निर्झर को क्या ठेलने की जरूरत है?
जल अपने आप प्रवाहित होता है किन्तु कचरा अपने आप नहीं बह सकता, उसे बहाने के लिये ठेलना पड़ता है।
क्या प्रेमचंद जी ने "गोदान", "पंच परमेश्वर" आदि को कभी ठेला था? क्या चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी ने "उसने कहा था" को विश्वविख्यात करने के लिये ठेला था? क्या "देवदास" को शरतचन्द्र जी ने ठेलकर लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया था? सआदत हसन मंटो ने "टोबा टेकसिंह" को ठेलकर आपके सामने लाया था? क्या हरिवंशराय बच्चन जी के ठेलने से ही "मधुशाला" लोकप्रिय हो पाई?
यदि आप सार्थक एवं स्वच्छ प्रविष्टियाँ देंगे तो वह साहित्य-सरिता के समान अनवरत रूप से स्वयमेव ही प्रवाहित होने लगेगी, उसे ठेलने की कभी भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
11 comments:
बिलकुल सही बात कही आपने। धन्यवाद
यही बात पोस्ट के लिए भी सही है
पता नहीं यह शब्द मुझे बकवास ही लगता है ! अच्छा लेख भाई जी !
अवधिया जी सही कहा।वैसे भी ठेले हुये को झेलता कौन है?
बहते को नीर कहते हैं
रूके हुए को तीर कहते है
बिलकुल सही बात कही आपने।
वैसे हमने भी कभी इस शब्द का प्रयोग नहीं किया...इस विषय मे आपका कहना बिल्कुल दुरुस्त है।
ठेल ठेल के ठेल ठेल के ठेल ठेल के ठेल ।
अब कचरा झेल झेल के झेल झेल के झेल।
जय हो अवधि्या जी आप नवोन्मेष करते रहते हैं।
आपका आशय यही है ना कि अच्छा साहित्य लिखा जाये .. यह तो सही है ।
ठेला तो कचरे को जाता है ...नदी निर्झर को नहीं ...
सही कहा ....!!
vaah........ bahut achchha lagaa aapke blog par aakar....
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