Saturday, May 8, 2010

याद आता है वो गर्मी के दिनों में आँगन में हाथ पंखा डुलाते हुए सोना

आज तो गर्मी के दिनों में हम बंद कमरे में कूलर चलाकर मस्त खर्राटे लेते हैं किन्तु कभी वो दिन भी थे जब ग्रीष्म ऋतु में आँगन में खाट डालकर हाथ पंखा डुलाते हुए सोना पड़ता था। सूर्यास्त होते ही दिन भर की कड़ी धूप में तपे हुए आँगन को ठंडा करने के लिये बाल्टियों में पानी भर कर छिड़काव करने का कवायद शुरू हो जाता था। आठ-दस बाल्टी पानी पड़ जाने पर शनैः-शनैः आँगन ठंडा हो जाता था और बड़े मजे में हम वहाँ खाटें डाल दिया करते थे। बिजली के पंखे के नाम पर केवल एक टेबल फैन हुआ करता था जो हवा देने का कम और घर्र घर्र आवाज करने का काम ज्यादा किया करता था। इसीलिये सभी के पास हाथ से डुलाने वाले पंखे का होना अति आवश्यक हुआ करता था।

रायपुर की गर्मी में रात को भी गरम हवाएँ चलने की वजह से बड़ी मुश्किल से रात को एक-दो बजे नींद लग पाती थी और सुबह साढ़े पाँच बजे नहीं कि दादी माँ की गुहार शुरू हो जाती थी "अरे गोपाल, उठ, जल्दी तैयार हो जा, दूधाधारी मन्दिर की आरती में जाना है"। हम जल्दी से उठकर तैयारी करने लगते थे नहाने-धोने की। कभी-कभी आलस में आकर कह दिया करते थे कि आज हमें मन्दिर नहीं जाना, बड़े जम की नींद आ रही है। किन्तु सो फिर भी नहीं पाते थे क्योंकि छः-सवा छः बजते न बजते भगवान भुवनभास्कर उदित हो कर धूप को भेज देते थे हमें जगाने के लिये। आज तो हमारे बच्चे बंद कमरे में कूलर का आनन्द लेते हुए नौ-साढ़े नौ बजे तक भी सोये पड़े रहते हैं।

पिछले पचीस-तीस सालों में विज्ञान और तकनीकी में जितना विकास हुआ है उतना तो शायद उसके पहले के तीन-चार सौ वर्षों में नहीं हुआ होगा और यही कारण है कि आज हम भी बंद कमरे में कूलर चला कर सोने लगे हैं। उन दिनों हम कुढ़ा करते थे कि और लोगों के यहाँ तो कई कई बिजली के पंखे हैं और हमारे यहाँ केवल हवा कम तथा आवाज अधिक देने वाला एक ही पंखा है और आज भी हमें कुढ़न होती है कि और लोगों के यहाँ तो एसी है और हमें अपने कूलर में बार बार पानी डालने की कवायद करना पड़ता है। उन दिनों से लेकर आज तक हम अपनी कुढ़न को सिर्फ यही कह कर दबाने की कोशिश करते हैं कि "रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चूपड़ी मत ललचाये जी"

जो भी हो पर आँगन की क्यारियों में लगे हुए मोंगरे के फूलों की भीनी-भीनी खुशबू का आनन्द लेते हुए और हाथ से पंखा डुलाते हुए सोने का अपना एक अलग ही मजा था।

8 comments:

M VERMA said...

'पंखा डुलाते हुए सोने का अपना एक अलग ही मजा था।'
वाकई सुविधाविहीन वे दिन सुविधायुक्त आज के समय से न जाने क्यों बेहतर/आनन्ददायक प्रतीत होते हैं

अन्तर सोहिल said...

क्या दिन याद दिला दिये जी आपने
हैंडपंप से खींच कर 8-10 बाल्टी दूसरी मंजिल पर डाल कर छत को ठंडी करना।
फिर नहा कर गीले ही बिस्तर में सोना।
हम तो बिछौना को भी गीला कर लेते थे।
6 साल पहले मेरे घर में इन्वर्टर नहीं था तो हम दोनों पति-पत्नी बारी-बारी से रात में 3-3, 4-4 घंटे तक बिटिया को बीजने से ही (हाथ के पंखे) हवा करते थे।

प्रणाम

शिवम् मिश्रा said...

बहुत बढ़िया, पुरानी यादे ताज़ा करवा दी आपने!!

दिलीप said...

bachpan ke wo din yaad dila diye jab gaanv jaaya karte the chuttiyon me...sab kuch nazron ke saamne guzar gaya...

राज भाटिय़ा said...

बहुत कुछ याद दिला दिया आप ने, मै चादर गीली कर के फ़िर उसे नीचोड कर ओड कर मस्ती से सो जाता था, वेसे हाथ का पंखा तो मेरे पास आज भी है, सिर्फ़ सजावट के लिये

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

मैं लानत हंव तोर बर हैंडफ़ैन
अब उही मा काम चलाबे
रात के सुतबे के पंखा ला हलाबे
तहां आनी बानी के गोठ ला गोठियाबे।

जोहार ले

सूर्यकान्त गुप्ता said...

तालाब के सामने अपना घर था। चहार दीवारी के भीतर पलन्ग बिछा होता था। आधी रात तक ही गरमी रहती थी बाद मे ठन्ड लगती थी। जो भी हो वह समय अलग ही था। आज तापमान भी पहले की तुलना मे कितना ज्यादा हो गया है। पुरानी यादें ताजा हो गई। सुन्दर!

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

वाकई आपकी इस पोस्ट नें तो बचपन की यादें ताजा कर दी...वो दिन भी क्या दिन थे, बिना किसी विशेष सुविधाओं के भी जीवन इतना सहज था और आज सब सुविधाएं भरपूर मात्रा में होने के बावजूद भी न वो आनन्द और न सुकून.......अभी भी ये हाथ के पंखे कहीं कहीं बिरले दिखाई पड ही जाते हैं...अगली पीढी को तो ये सब चीजें सिर्फ पुस्तकों में ही देखने को मिलेंगी.....