प्रायः हिन्दी पर अंग्रेजी का अंकुश दिखाई ही देता रहता है। एक दीवार पर विज्ञापन में लिखा था "अंदर स्ट्रांग, चले सबसे लांग"। फिल्म का नाम रखा जाता है "जब वी मेट"। बच्चों को हिन्दी की गिनती नहीं आती, वे अक्सर पूछ बैठते हैं "चौंसठ याने कि सिक्स्टी फोर होता है ना?"
क्या 'मजबूत' के स्थान पर 'स्ट्रांग', 'लंबा' के स्थान पर 'लांग', 'हम मिले' के स्थान पर 'वी मेट' का प्रयोग करके ये दर्शाया जा रहा है कि हिन्दी के पास अपना शब्द भण्डार नहीं है? या फिर यह बता कर खुशी जाहिर की जा रही है कि भाषाई तौर पर हम मानसिक दिवालियेपन की चरम सीमा को भी पार कर चुके हैं?
हर जगह हिन्दी की अंग्रेजी के प्रति दासता ही दिखाई देती है। मीडिया, सिनेमा, शिक्षा वाले हिन्दी को गर्त में गहराई तक गिराने के लिये तुले हुए से लगते हैं। यह सब देखकर वितृष्णा सी भर आती है स्वयं के भीतर। पर किया ही क्या जा सकता है? सिर्फ एक पोस्ट लिखकर मन की भड़ास निकाल लेते हैं। पर ऐसे पोस्ट को पढ़ता ही कौन है?
चलते-चलते
राष्ट्रभाषा के उद्गार
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
मैं राष्ट्रभाषा हूँ -
इसी देश की राष्ट्रभाषा, भारत की राष्ट्रभाषा
संविधान-जनित, सीमित संविधान में,
अड़तिस वर्षों से रौंदी एक निराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
तुलसी, सूर, कबीर, जायसी,
मीरा के भजनों की भाषा,
भारत की संस्कृति का स्पन्दन,
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
स्वाधीन देश की मैं परिभाषा-
पर पूछ रही हूँ जन जन से-
वर्तमान में किस हिन्दुस्तानी
की हूँ मैं अभिलाषा?
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
चले गये गौरांग देश से,
पर गौरांगी छोड़ गये
अंग्रेजी गौरांगी के चक्कर में,
भारत का मन मोड़ गये
मैं अंग्रेजी के शिविर की बन्दिनी
अपने ही घर में एक दुराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
मान लिया अंग्रेजी के शब्द अनेकों,
राष्ट्रव्यापी बन रुके हुये हैं,
पर क्या शब्दों से भाषा निर्मित होती है?
तब क्यों अंग्रेजी के प्रति हम झुके हये हैं?
ले लो अंग्रेजी के शब्दों को-
और मिला दो मुझमें,
पर वाक्य-विन्यास रखो हिन्दी का,
तो, वो राष्ट्र! आयेगा गौरव तुझमें।
'वी हायस्ट नेशनल फ्लैग एण्ड सिंग
नेशनल सांग के बदले
अगर बोलो और लिखो कि
हम नेशनल फ्लैग फहराते-
और नेशनल एन्थीम गाते हैं-
तो भी मै ही होउँगी-
नये रूप में भारत की राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
मैं हूँ राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
(रचना तिथिः गुरुवार 15-08-1985)
13 comments:
बहुत बढ़िया पोस्ट, अवधिया जी |
आप को पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाऎँ !!
ग्लोब्लाइजेशन में ये तो होगा ही.... जब वी मेट से देखो.."वी" और "मेट" हिंदी में आ गए.. या अपना "जब" अंग्रेजी में चला गया.. कुल मिला के फायदा ही हुआ न...
रंजन
रंजन जी,
क्षमा चाहता हूँ कि मैं आपके तर्क से सहमत नहीं हो सकता। ग्लोबलाइजेशन सिर्फ हिन्दी का ही क्यों? अन्य भाषाओं का क्यों नहीं? किसी यूरोपियन को "जब" शब्द का प्रयोग करते हुए क्या कभी कहीं देखा गया है? यदि नहीं तो कैसे कहा जा सकता है कि हिन्दी का "जब" अंग्रेजी में चला गया? इसी प्रकार से "वी" और "मेट" शब्द भी हिन्दी में आये नहीं हैं बल्कि जबरन उन्हें घुसेड़ा जा रहा है।
स्व अवधिया जी की कविता बहुत बढ़िया लगी ।
अंग्रेजी के गुलाम तो हैं अभी भी । लेकिन इसी में से कुछ अच्छा निकाल लेने का प्रलोभन तो बना रहता है । अंग्रेजी के साथ हिंदी का भी विकास होता रहे तो ठीक है ।
हम आज भी दिमागी तॊर पर गुलाम ही है जी, जो कदम कदम पर अग्रेजी का सहारा लेते है, भारत मै अग्रेजी बोलने वाला अपने आप को साहब समझता है, ओर जब यह साहब युरोप मै आता है तो इस की पहचान एक गुलाम से ज्यादा नही होती
राष्ट्रभाषा पर आदरणीय अवधिया जी की कविता में उठाए मुद्दे आज भी जीवंत हैं.
अपना चिंतन व कविता को यहां प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद गुरूदेव.
nice post
सुंदर पोस्ट.
अवधियाजी
आपने एकदम सही विषय उठाया है।
हिन्दी के साथ ही सारी छेड़छाड़ क्यों की जाती है।
कोई ज्ञानचंद की औलाद बता सकता है क्या।
यहीं देख लिया हमने। जहाँ अन्ग्रेजी झाड़ के हम अपनी शान बढाते हैं वहां ये सब होना ही है। यही कारण है कि मदर्स डे फ़ादर्स डे की तरह हिन्दी दिवस…(अरे अरे हिन्दी डे कहना चाहिये) चलता है। बढिया लिखा है आपने। आभार्……………………॥
हम आज भी दिमागी तॊर पर गुलाम ही है , जो कदम कदम पर अग्रेजी का सहारा लेते है, .........
badiya
मंगलवार 22- 06- 2010 को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है
http://charchamanch.blogspot.com/
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