Sunday, October 7, 2007

धान के देश में - 29

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 29 -

टाटानगर में जब लोगों ने भोला और बुधराम को एक साथ देखा तब सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। आपस में तरह तरह की बातें होने लगीं। अधिकांश लोग इसी नतीजे पर पहुँचे कि इस तरह के झगड़े और मनमुटाव तो होते ही रहते हैं। फिर उसे ही लेकर कोई कहाँ तक चल सकता है। एक बात पर सभी एक मत थे और कहते थे कि भोला जैसा भोला आदमी दूसरा कोई नहीं होगा, क्योंकि जिस आदमी ने उसकी इज्जत पर हमला किया था उसी को उसने अपना लिया।
श्यामवती को बुधराम के वापस आ जाने और भोला का उसके साथ रहने से आश्चर्य हुआ और भोला पर बेहद क्रोध भी आया पर वह न तो कुछ बोली और न बोलना ही चाहती थी। वह बार बार सोचती थी कि इनको क्या सूझा जो उस बदमाश को साथ ले आये। अन्त में उसकी विचार धारा इस नतीजे पर आकर रुक गई कि बुधराम के बिना उनका पीना रुक गया था, इसीलिये उसे ढूँढ कर ले आये।
कारखाने के मैनेजर से सिफारिश कर भोला ने बुधराम को नौकरी भी दिला दी। दोनों फिर पहले जैसे एक हो गये और शराब की दूकान पर जाकर पीने लगे किन्तु अबकी बार परिस्थिति विपरीत थी। भोला बड़ी चालाकी से कम पीता था और बुधराम को इतनी अधिक पिलाता था कि वह दीन-दुनियाके साथ साथ अपने आपको भी पूरी तरह भूल जाता था।
भोला और बुधराम अलग अलग सेक्शन में काम करते थे। कुछ दिनों के बाद भोला को भी बुधराम के ही सेक्शन में काम करने का अवसर मिल गया। दोनों भट्ठी में कोयला झोंकने का काम करते थे। एक दिन ज्यों ही बुधराम कोयला झोंकने के लिये झुका त्यों ही भोला ने अपनी पूरी ताकत लगाकर उसे भट्ठी में ढकेल दिया। ठीक उसी समय मैनेजर किसी काम से उधर से निकल रहा था और उसने इस घटना को देख लिया। भोला वहाँ से बेतहाशा भागा और मैनेजर "पकड़ो, पकड़ो" कहता हुआ उसके पीछे दौड़ा पर भोला निकल ही भागा। मैनेजर ने सबको बताया कि भोला खूनी है और उसने बुधराम को भट्ठी के भीतर झोंक दिया है। सुनते ही सब सन्न रह गये। पुलिस को भी सूचना दे दी गई।
भोला हाँफता हुआ घर पहुँचा। उसका रौद्र रूप देखकर श्यामवती एकदम घबरा गई। भोला ने गरज कर कहा, "तुम्हारी इज्जत पर डाका डालने वाले बुधराम को मैंने भट्ठी में ढकेल कर जला दिया है। अब मैं जरूर पकड़ा जाउँगा। मैं नहीं चाहता कि मेरे बाद और कोई तुम्हें छेड़े। इसलिये तुम्हें भी जिन्दा नहीं छोड़ूँगा।" इतना कह कर वह तेजी से घर के भीतर घुस गया और कुछ ही क्षणों में हाथ में फरसा लिये श्यामवती की ओर झपटा। वह समझ गई कि उस पर खून सवार है। प्राणों के मोह ने उसे चपल बना दिया और वह बिजली की भाँति बाहर भागी। उसके पीछे हाथ में फरसा उठाये भोला दौड़ा। श्यामवती परसादी के घर में घुस गई। भोला भी उसके पीछे-पीछे परसादी के घर में घुसने वाला ही था कि उसने देखा कुछ लोग उसके पीछे दौड़े चले आ रहे हैं। उन लोगों को देख कर भोला परसादी के घर में घुसने के बदले एक ओर भाग गया। अब तक कुछ सिपाही भी आ गये थे पर भोला काफी दूर भाग कर सुरक्षित हो गया था। पुलिस ने भोला के घर की तलाशी ली। दो-एक उसके पीछे दौड़े और अन्त में उसके घर के चारों ओर कड़ा पहरा बैठा दिया गया कि शायद वह कहीं लुक-छिप कर आवे।
परसादी के घर घुसते ही श्यामवती बेहोश होकर गिर पड़ी। लोगों ने उसका उपचार किया और वह होश में आई। उसके प्रति सभी की सहानुभूति थी। उससे भोला का घर छुड़वा दिया गया - इस डर से कि कहीं भोला मौका-बेमौका आ न जाय और उसकी हत्या न कर दे। श्यामवती परसादी के घर रहने लगी। भोला की खोज पुलिस के द्वारा जारी थी। श्यामवती इस अचानक आ पड़ने वाली विपत्ति से एकदम घबरा गई थी। धीरे धीरे जब वह कुछ स्वस्थ हुई तब उसे मायके के लोग याद आये। उन लोगों से मिलने के लिये उसका हृदय क्षुब्ध और अशान्त हो उठा। एक दिन वह परसादी से बोली, "परसादी भैया, मैं यहाँ अकेली रह कर क्या करूँगी। इसलिये रायपुर लौट जाना चाहती हूँ जहाँ से खुड़मुड़ी चली जाउँगी।" परसादी काफी बुद्धिमान था और उसने दुनिया देखी थी। वह बोला, "बहन, मैं तु्म्हें अकेली नहीं जाने दूँगा। कुछ दिन ठहरो। तब तक यदि कोई रायपुर जाने वाला होगा तो उसके साथ तुम्हें भेज दूँगा।" कुछ दिन बीतने पर परसादी को पता लगा कि रामनाथ नाम का एक मजदूर रायपुर जाने वाला है। उसके साथ श्यामवती को भेजना निश्चित किया गया।
रामनाथ को कलकत्ते में कुछ आवश्यक काम था इसलिये श्यामवती और रामनाथ दोनों पहले कलकत्ते के लिये रवाना हो गये जहाँ से काम निबटाने के बाद दोनों रेल में सवार होकर रायपुर के लिये चल पड़े।
(क्रमशः)

Saturday, October 6, 2007

धान के देश में - 28

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 28 -

नागपुर में महेन्द्र, जानकी और सदाराम हनुमान जी के मन्दिर में बैठे बातें कर रहे थे। सहसा महेन्द्र ने कहा, "मैं एक जरूरी काम से अधारी से मिल कर आता हूँ और जानबूझ कर जानकी और सदाराम को छोड़ कर वह चला गया। उस समय सदाराम को बड़ा विचित्र अनुभव हो रहा था। जानकी को एकान्त में पाकर भी वह उससे अपने हृदय की बात कहने में हिचकिचा रहा था। महेन्द्र जब तक साथ था, तब तक जानकी कुछ न कुछ बात कर रही थी पर अब वह भी चुप थी। साहस बटोर कर सदाराम बोला, "जानकी, मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूँ।"
"क्या?" जानकी ने पूछा।
सदाराम के हृदय की धड़कन बढ़ गई थी। वह कुछ न कह सका। चुप ही रहा। तब जानकी ने कहा, "बोलो ना, क्या कहना चाहते हो?"
सदाराम ने एकदम सरलता से कहा, "मैं तुमसे ब्याह करना चाहता हूँ।"
सुनकर जानकी एकदम गम्भीर हो गई। उसने गहरी दृष्टि से सदाराम के चेहरे को देखा। दोनों की चारों आँखों में आँसू छलछला आये थे। थोड़ी देर तक वे एक दूसरे को शान्त निर्निमेष दृष्टि से देखते रहे। फिर मंत्र से प्रेरित की भाँति सदाराम ने कहा, "तो तुम भी मुझसे प्रेम करती हो।"
"करती नहीं हूँ - हो गया है, पर मैं अपने मचलते हुये प्रेम को सदा के लिये हृदय में ही दबाये रख कर तुम्हारे चरणों की पूजा करना चाहती थी। ब्याह की जरूरत नहीं समझती थी।"
"पर ऐसा क्यों।? जब हम एक दूसरे को चाहते हैं तब मिलने में बाधा क्यों?"

"सुनेंगे" जानकी बोली और कहती ही गई, "ब्याह इसलिये नहीं कि मैं विधवा हूँ।"
जानकी की बात सुनकर सदाराम ऐसा चौंक उठा मानो आसमान से गिर गया हो।
"लेकिन मैं पति के घर कभी नहीं गई। जिस दिन मेरा ब्याह हुआ उसी रात मेरा पति अचानक दिल की धड़कन बन्द हो जाने से मर गया।"
सदाराम चुप ही था। इसी बीच महेन्द्र भी आ गया। दोनों को खामोश देख कर उसने पूछा और सब बातें मालूम कर लेने के बाद मुस्कुरा कर बोला, "तो इसका मतलब हुआ कि तुम बाल विधवा हो। जब विधवा की शादी हो सकती है तब बाल विधवा यह कैसे समझ सकती है कि उसे ब्याह की जरूरत नहीं है। तुम दोनों शादी करने के लिये निश्चय करके तैयार रहो और सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दो। मैं ठीक कर लूँगा।"
महेन्द्र की बात सुन कर जानकी चुप, स्तब्ध और शान्त रही जिसका मतलब ही था कि वह मौन स्वीकृति दे रही थी। सदाराम को तो जैसे स्वाति नक्षत्र का जल ही मिल गया था।
दूसरे दिन महेन्द्र ने जानकी के पिता से जानकी और सदाराम के ब्याह के बारे में बात की। जानकी के पिता को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। तय किया गया कि परीक्षा हो जाने के बाद बैसाख में शादी हो। अब महेन्द्र के सामने एक नई चिन्ता खड़ी हो गई कि इस शादी के लिये राजवती को भी राजी करना होगा। यह सब कुछ हो जाने के बाद दोनों परीक्षा की तैयारी में जुट गये। परीक्षा समाप्त होने के बाद इतवारी की बस्ती में जागृति की चलने वाली योजना का भार जानकी के कंधों पर रख कर वे दोनों रायपुर वापस जाने की तैयारी में व्यस्त हो गये।
(क्रमशः)

Friday, October 5, 2007

धान के देश में - 27

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 27 -

टाटनगर में श्यामवती आजकल अकेली ही है। उसे परसादी और उसकी पत्नी का पूरा सहारा मिल गया है। लगभग दस दिनों से भोला टाटानगर से बाहर गया हुआ है। जब से अपनी कुत्सित वासना का असफल परिचय देकर बुधराम भाग गया था तभी से भोला उससे बदला लेने के लिये विकल हो रहा था। उसने एक दिन श्यामा से बहाना किया कि उसे कारखाने के काम से बाहर जाना है और उधर कारखाने से भी पन्द्रह दिन की छुट्टी ली तथा सीधे कलकत्ता चला गया। वहाँ जाने का उसका एक मात्र उद्देश्य बुधराम को ढूँढ निकालना ही था। उसने अनुमान किया कि शायद वह कलकत्ता ही गया हो।
कलकत्ता पहुँच कर उसने हर ओर बुधराम को ढूँढा पर इतने बड़े शहर में उसका पता लगाना सहज काम नहीं था। भोला दिन भर इधर-उधर भटकता, किसी होटल में खा लेता और रात को फुटपाथ पर सो रहता था। एक दिन शाम हो चुकी थी। कलकत्ते की गलियाँ और सड़कें बिजली की रोशनी से मुस्कुराने लगी थीं। सामने से एक खाली रिक्शा आ रहा था जिसे कुछ गुनगुनाते हुये एक आदमी धीरे-धीरे खींच रहा था। जब रिक्शा पास आया तब भोला रिक्शेवाले को देखकर चौंक गया - वह बुधराम था। भोला को सामने पाकर बुधराम भी सहम गया। भोला ने उसे पुकारा।
पहले बुधराम ने सोचा कि वह तेजी से भाग जाये पर उसकी अकड़ ऐसा करने के लिये राजी नहीं हुई। उसने रिक्शा रोक दिया और रिक्शे की गद्दी के नीचे से चमचमाता हुआ छुरा निकाल कर पैंतरा बदल भोला से कहा, "देखो भोला, उस दिन तुम्हारे घर जो कुछ हुआ वह तो तुम्हें मालूम हो ही गया होगा। उसके बारे में एक भी शब्द बोले तो छुरा भोंक दूँगा।" भोला ने देखा कि जिस प्रकार वह बदला लेने के लिये तुला है उसी प्रकार और उससे भी अधिक बुधराम सतर्क है। उसने धूर्तता से काम लिया। मीठे शब्दों में बोला, "यार बुधराम, गोली मारो पिछली बातों को। मैं तो कलकत्ता घूमने आया हूँ। अच्छा हुआ जो अचानक तुमसे भेंट हो गई। पिछली बातों को सोचते भी हो तो जानते हो कि तुम्हारे भाग जाने के बाद क्या हुआ? मैंने श्यामवती की बच्ची को खूब पीटा। मुझे तो आज भी विश्वास है कि सारा दोष उसी का था। उसने ही तुम्हें बुलाया होगा। भैया, भगवान को जान लेना सहज है पर तिरिया चरित्तर को जान लेना किसके वश की बात है?"
भोला की बातें सुन कर बुधराम ठंडा पड़ गया। उसने सोचा कि भोला के ऊपर उसकी दोस्ती का कितना गहरा असर पड़ चुका था। बुधराम की अदूरदर्शिता ने भोला पर विश्वास कर लिया। उसने कहा, "यार, मैं तो मामला गरमागरम होने के कारण टाटानगर से यहाँ चला आया और रिक्शा चलाता हूँ। मैंने सोचा शायद तुम मुझे ही बुरा समझोगे। अच्छा अब चलो मेरे घर।" भोला इतना ही तो चाहता था। मन में उमड़ते हुये क्रोध को दबा कर वह बुधराम के रिक्शे पर बैठ गया और बुधराम उसे खींचता हुआ चला। सड़क से उतर कर एक गली में मुड़ते ही वह खोली सामने थी जिसे बुधराम ने किराये से ले रखा था। बुधराम ने रिक्शा रोका। भोला नीचे उतर गया और अपने उस दुष्ट साथी के द्वारा ताला खोले जाने पर दोनों ने खोली में प्रवेश किया। बुधराम ने पड़ी हुई खाट पर भोला को बैठाया। सबेरे की रखी हुई रोटी निकाल कर बोला, "लो, खा लो, फिर आराम करेंगे।" भोला ने बात बनाई और कहा, "मैं पहले ही बासे में खा चुका हूँ। भूख नहीं है। तुम खा लो।"
भोला की बात सुन कर बुधराम को संतोष हुआ। हृदय से तो वह चाहता ही था कि भोला न खाये तो अच्छा है क्योंकि वह भूखा था और रोटी एक ही आदमी के लिये काफी नहीं थी। बुधराम चुपचाप खाने लगा। भोला ने कहा, "यार बुधराम, मेरा खयाल है कि तुम यहाँ कालीमाटी से अधिक सुखी नहीं हो। दिन भर रिक्शा दौड़ाने के बाद भी तुम्हें उतने पैसे नहीं मिलते होंगे जितने वहाँ शान्ति और शान से नौकरी करने पर मिल जाते थे।"
"तुम ठीक कहते हो भोला।"
भोला ने देखा कि तीर ठिकाने पर लगा है। आगे बोला, "तो फिर से कालीमाटी क्यों नहीं चलते?" भोला की बात सुनकर बुधराम की प्रबल इच्छा हुई कि पंख हो तो अभी उड़ कर टाटानगर चला जावे। उसका यह भाव चेहरे पर उभर आया जिसे लक्ष्य लकर भोला ने आगे कहा, "देखो, यदि तुम वापस चलने को तैयार हो तो मैं मैनेजर से सिफारिश कर तुम्हें काम दिला दूँगा। मेरी मैनेजर से पटती है।"
अब बुधराम ने संकोच से कहा, "नहीं यार, रहने दो। वहाँ जाउँगा तो उस दुर्घटना को लेकर लोग क्या कहेंगे।"
"उसकी चिन्ता तुम मत करो। लोगों का क्या। वे तो कुछ का कुछ कहते ही रहते हैं। तुम मेरे साथ चलो तो सही।" भोला ने बड़े मीठे शब्दों में प्रसन्न मुद्रा बना कर कहा। बुधराम की कल्पना में टाटानगर में मनाई गुई रंगरेलियाँ एक एक कर साकार होती जा रही थीं। कुछ देर तक चुप रहने के बाद उसने अपनी स्वीकृति दे दी। निश्चय किया गया कि सवेरे की गाड़ी से ही टाटानगर वापस चला जावे। इसके बाद दोनों सो गये। दिन भर का थका हुआ होने के कारण बुधराम को गहरी नींद ने धर दबाया और वह खर्राटे लेने लगा पर भोला की आँखों में नींद नहीं थी। उसकी प्रतिहिंसा की भावना पिशाचिनी बन रही थी।
वह चुपचाप उठा। बुधराम ने जो छुरा रिक्शे के नीचे से निकाल कर एक कोने में रख दिया था उसे उठा लिया और बुधराम की छाती की ओर तान कर खड़ा हो गया। जैसे ही उसका हाथ बिजली की गति से छुरा भोंकने वाला ही था कि उसके विचार ने उसे एकदम रोक दिया। वह सोचने लगा 'मैं कलकत्ते में हूँ, यदि बुधराम को बोटी बोटी काट कर भागा तो इस अनजान नगर में पकड़ा जा सकता हूँ।' सहसा उसके मन में एक नया विचार बिजली की तरह कौंध गया जिससे वह आप ही आप मुस्कुरा कर रह गया। मन ही मन उसने स्वयं से कहा, "चलो, इस तरीके से वह तरीका लाख गुना अच्छा होगा। टाटानगर में ही सही।" चुपचाप उसने छुरा को उसके स्थान पर वापस रख दिया और लेट गया, पर उसे नींद नहीं आई।
प्रातःकाल होते ही भोला ने बुधराम को उठाया और दोनों पहली गाड़ी से टाटानगर के लिये रवाना हो गये।
(क्रमशः)

Thursday, October 4, 2007

धान के देश में - 26

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 26 -

इतवारी में हनुमान जी के मन्दिर में जिस युवती को देख कर सदाराम विस्मित हो गया था उसके गोल चेहरे से सुन्दरता झाँक रही थी। कपड़े उसके किसी ईसाई स्त्री के कपड़ों के समान साफ थे और वैसे ही पहने भी गये थे। पर वह लड़की हिन्दू ही थी। यदि ऐसा न होता तो वह हनुमान जी के दर्शन करने क्यों आती। जिस समय वह युवती और सदाराम मन्दिर में थे उसी समय वहाँ अधारी भी आ गया। तभी वह लड़की चली गई। सदाराम ने कौतूहलवश उस लड़की के बारे में पूछा तो अधारी ने बताया कि उसका नाम जानकी है और उसके पिता का नाम रतीराम। ये लोग कल ही यहाँ आये हैं। बाप-बेटी के सिवाय और कोई इनके परिवार में नहीं हैं। खैरागढ़ इलाके के एक गाँव से अपनी पत्नी के मर जाने के बाद अपनी पुत्री जानकी को लेकर कमाने-खाने के लिये रतीराम आसाम चला गया था। वहाँ चाय बागान में नौकरी करता था। एक अंग्रेज परिवार से भी उसकी अच्छी जान पहचान हो गई थी। जानकी का अधिक से अधिक समय तब तक वहीं बीता जब तक वह ब्याह के योग्य नहीं हो गई। आसाम छोड़कर अब ये लोग नागपुर आ गये हैं।
अधारी सदाराम को रतीराम के घर उससे मिलाने ले गया। जानकी ने बड़े ही अच्छे ढंग से उसका स्वागत किया। बातचीत के सिलसिले में जानकी को मालूम हो गया कि सदाराम और उसके मित्र महेन्द्र ने ही उस बस्ती में सुधार के काम किये हैं। तब वह भी उस काम में हाथ बँटाने के लिये तैयार हो गई। एक दिन जब महेन्द्र, सदाराम, अधारी, रतीराम ०र जानकी बैठे थे तब जानकी बोली, "आप लोगों ने बहुत कुछ किया है पर मेरे ख्याल से एक काम छूट गया है जो आवश्यक है।"
"कौन सा काम?" सदाराम ने पूछा।
लड़की-लड़कों को पढ़ाने की व्यवस्था। हमको एक छोटी सी पाठशाला भी खोलनी चाहिये जहाँ बच्चे पढ़ सकें।" जानकी बोली।
"यह तो ठीक है पर उसे नियमित रूप से चलाना भी तो चाहिये। यहाँ तो हम लोग ही पढ़ने आये हैं और परीक्षा के बाद वापस चले जायेंगे। यदि स्कूल भी खोल दें तो आगे क्या होगा?" महेन्द्र के शब्द थे।
"होगा क्या। स्कूल बराबर चलता ही रहेगा। मैं जी तोड़ परिश्रम कर उसे बन्द न होने दूँगी। मैंने आसाम में चौथी अंग्रेजी तक शिक्षा पाई है और एक अंग्रेज परिवार के साथ रह कर बहुत कुछ सीखा है।"
जानकी के स्वर में गम्भीरता और चेहरे पर प्रसन्नता थी।
"तो यह काम भी होगा।" महेन्द्र बोला।
किन्तु मजदूरों ने जानकी के इस प्रस्ताव का विरोध किया। उनकी मुख्य शिकायत थी कि पढ़-लिख कर उनके बच्चे मेहनत-मजदूरी से नफरत करने लगेंगे। पर जानकी के समझाने पर सब राजी हो गये और पाठशाला भी चलने लगी।
महेन्द्र कुछ दिनों से सदाराम में एक परिवर्तन देख रहा था। जब उसने उसका उचटा हुआ मन, बढ़ती हुई गम्भीरता, उदासी और दीर्घ निःश्वास की अधिकता देखी तो एक दिन कहा, "सदाराम, मालूम होता है आजकल तुम जानकी के बारे में बहुत सोचा करते हो। अगर तुम्हें उससे प्रेम हो गया है तो मैं खुद राजो से कह कर जानकी के साथ तुम्हारा ब्याह करा दूँगा। पर तुम जानते हो कि हमारी पढ़ाई का यह 'फाइनल इयर' है, इसलिये अभी तो जानकी को 'आँख की किरकिरी' मत बनाओ।"
सदाराम सीधे स्वभाव का था। जब महेन्द्र ने उसकी नाड़ी की गति बिलकुल ठीक पहचान ली तब वह सिटपिटा गया और तुरन्त स्वीकार करते हुये बोला, "महेन्द्र, मैं क्या करूँ। जबसे मैंने जानकी को देखा है, न जाने मुझे क्या हो गया है। रात-दिन उसका चेहरा मेरी आँखों के सामने रहता है।"
"लेकिन परीक्षा की तैयारी तो तुम्हें करनी ही होगी। बाद में सब ठीक हो जायेगा। तुम दोनों के ब्याह में कोई विशेष बाधा तो होगी नहीं।" महेन्द्र ने कहा। सदाराम बड़ा ही भावुक था। वह नहीं चाहता था कि प्रेम एकांगी हो। श्यामवती के ब्याह और उसके दुष्परिणाम ने उसके हृदय को गहरी ठेस पहुँचाई थी। इसीलिये उसने महेन्द्र से पूछा, "सब कुछ ठीक हो जावेगा पर क्या जानकी मेरे साथ ब्याह करने के लिये राजी होगी?"
सदाराम की बात सुनकर महेन्द्र बड़े जोर से हँसा और बोला, वाह रे बुद्धू, वह राजी क्यों नहीं होगी। उसके लिये तेरे समान बी।एजी. होने वाला दूसरा कौन बैठा है। मैं तो समझता हूँ कि वह भी तरे लिये तड़पती होगी।"

"अगर ऐसा नहीं हुआ और जानकी अपनी इच्छा के विरुद्ध मुझे ब्याह दी गई तो.......? यही देखो न, अपनी श्यामवती को। उसके साथ ऐसा ही तो हुआ है।" सदाराम ने डाँवाडोल होते हुये मन से कहा।
श्यामवती का नाम सुनते ही महेन्द्र को ऐसा लगा मानो किसी ने पके हुये फोड़े पर जोरों पर आघात कर दिया हो। उसकी विनोद-प्रियता कपूर की तरह उड़ गई। वह एकदम गम्भीर होकर बोला, "अच्छा यह सब रहने दो अब। बाद में देखा जायेगा। अभी तो मन लगाकर पढ़ना और पास होना ही हमारा एकमात्र कर्तव्य है, नहीं तो दादा की इच्छा पर पानी फिर जायेगा।" महेन्द्र की बात का सदाराम पर गहरा प्रभाव पड़ा और सब ओर से मन हटाकर वह तुरन्त ही पढ़ने में लग गया। महेन्द्र ने भी पुस्तक पर आँखें गड़ाईं पर उसका मन उद्विग्न हो गया था। उसे अक्षर धुँधले और पुते हुये दिखाई देने लगे। बड़ी देर तक वह श्यामवती के बारे में सोचता हुये टहलता रहा। न जाने श्यामा पर क्या बीतती होगी। सदाराम थोड़ी देर बाद सो गया और वह भी लेट गया पर बड़ी देर तक उसे नींद नहीं आई। उसकी पलकें गीली थीं और विचारों के उहापोह में न जाने कब वह सपनों में खो गया।
(क्रमशः)

Wednesday, October 3, 2007

धान के देश में - 25

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 25 -

भोला ने जिस दिन श्यामवती के पास शराब फिर न पीने का विचार प्रकट किया था उसी दिन शाम को जब कारखाने से छुट्टी हुई तब उसे दरवाजे पर बुधराम मिल गया। उसने उल्लू की लकड़ी घुमाना शुरू किया। भोला को बेहद थकावट मालूम हो रही थी और उसे पिछले दिन की शाम दो-चार घूँट में ही थकावट मिट जाने की बात भी याद आई। वह श्यामा को दिया गया वचन भूल गया और बुधराम के साथ फिर उसी गन्दी दुनिया में पहुँच कर अपनी आत्मा में गन्दगी उड़ेल ली। फिर वही गुलछर्रे, वही तमाशा और वही पतन। आज भी बुधराम उसे उसके घर तक छोड़ आया। श्यामवती ने उसकी वही पिछले दिन वाली दशा देखी तो सिर पीट कर रह गई।
दिनों दिन भोला का पीना बढ़ता ही गया। श्यामा ने पहले कुछ दिनों तक तो समझाया पर अन्त में हार मान कर चुप हो गई। शराब के साथ अब वह जुआ भी खेलने लगा था। चोरी का दुर्गुण भी उसके जीवन में घुस आया था। इतना अवश्य था कि वह बाहर चोरी न कर घर की ही चीजें चोरी कर बेच देता और मिलने वाले पैसों को कलवार की भट्ठी में झोंक देता था। एक एक कर उसने श्यामवती के सभी गहने बेच डाले। श्यामा के जीवन में भी विचित्र परिवर्तन आ गया था। वह उदासीन रहती थी और चिड़चिड़ी भी हो गई थी। भोला को उत्तर देने में डरने वाली श्यामा अब उससे मुँह लड़ाती थी। भोला का उद्दण्ड साथी बुधराम अभी तक उसके घर कभी नहीं आया था।
इतवार का दिन था। भोला घर ही में था। श्यामा के पास बैठ कर बातें कर रहा था। बात ही बात में उसे श्यामवती ने बताया कि वह गर्भवती है। भोला को बेहद खुशी हुई और शराब की लत लग जाने के बाद भी उसकी सद्-वृति कुछ जाग उठी। उसे लगा कि सन्तान के कारण ही उसे शराब छोड़ देनी चाहिये पर वह तो गले तक पानी में डूब चुका था। सुन कर बोला, "चलो अच्छा है, तुम्हीं पूरी तरह से संभाल करना होने वाले बच्चे का।" भोला के स्वर में कातरता थी जिसे सुनकर श्यामवती को भी दुःख हुआ। बोली, " मैं क्यों, तुम तो हो।" भोला उदास हो गया। इतने में ही दरवाजा खटखटाया। द्वार खोल कर भोला ने देखा तो बुधराम था।
"आवो यार बुधराम, बैठो।" भोला ने उसका स्वागत करते हुये कहा। वह बैठ गया। श्यामवती भी पास ही बैठी थी। जब से बुधराम आया था तब से कभी सीधा और कभी कनखियों से श्यामवती को ही देख रहा था। उसकी हरकतें इतनी सफाई से हो रहीं थीं कि भोला कुछ नहीं भाँप सका पर श्यामा सब कुछ ताड़ गई। भोला कहने लगा, "हमारी श्यामा पढ़ी-लिखी है और मजे की बात बताता हूँ कि यह माँ बनने वाली है।" भोला ने सरलता में कह तो दिया पर सुन कर श्यामा का मुँह लज्जा से लाल हो गया।
"अच्छा, ऐसी बात है। तब तो हमें मिठाई खिलाना न भूलना। भाभी मैं तुमसे कह रहा हूँ।" कह कर बुधराम ने श्यामवती की ओर कुत्सित दृष्टि से देखा जिसे भोला नहीं देख पाया। श्यामवती की इच्छा हुई कि अभी इस आदमी को दो तमाचे मार कर घर से बाहर निकाल दे। उसका गुस्सा उबल रहा था। किन्तु उसने संयम से काम लिया और वह उठ कर दूसरे कमरे में चली गई। थोड़ी देर बाद जब बुधराम और भोला बाहर चले गये तब उसने सोचा कि वह बुधराम के बारे में भोला से साफ साफ कह देगी कि उसकी नीयत अच्छी नहीं है। पर दूसरे ही क्षण उसका विचार बदला कि मर्द शक्की होते हैं। ऐसा कहने से कहीं भोला उसी पर शक न करने लगे और वही आफत में पड़ जाय। अन्त में उसने निश्चय किया कि वह कुछ नहीं कहेगी।
श्यामवती की युवावस्था और साफ-सुथरे कपड़ों में बुधराम को एक नया आकर्षण दिखा। श्यामा उसकी आँखों में गड़ गई। वह मौके की ताक में रहने लगा और श्यामवती उससे बाल बाल बचने का प्रयत्न करती रही। भोला इस विषय में भोला ही रहा। बुधराम तो उसे बताने से रहा और श्यामवती इसलिये चुप रही क्योंकि वह उसके उग्र स्वभाव को अच्छी तरह से जानती थी। उसे पता था कि कुछ भी बताने पर वह उसे ही दोषी ठहरायेगा। समय बीतता गया और श्यामा के गर्भ के दिन पूरे हो गये। वह मजदूरों के लिये बने हुये जचकी अस्पताल में भर्ती कर दी गई जहाँ उसने एक मरे हुये लड़के को जन्म दिया। इससे वह इतनी दुःखी हुई कि उसके हृदय पर वह दुःख सदा के लिये अंकित हो गया। किन्तु उसने यह सोच कर संतोष का अनुभव किया कि शराबी की संतान जीती रहती तो उसे नरक ही तो भोगना पड़ता।
जचकी हुये छः महीने बीत चुके थे। श्यामवती की कमजोरी प्रायः दूर हो चुकी थी। वह एक पुस्तक पढ़ती हुई बैठी थी। भोला काम पर गया था। अचानक बुधराम आ पहुँचा। आते ही उसने श्यामवती को अपनी भुजाओं में कस लिया। वह परिस्थिति से सजग थी। उसने बलपूर्वक अपने आपक छुड़ाकर बुधराम को बड़े जोरों से ढकेला और चिल्लाने लगी। उसका चिल्लाना सुन कर परसादी की औरत दौड़ी आई। साथ ही दूसरी औरतें भी इकट्ठी हो गईं। बुधराम यह देख कर तेजी से भाग गया। सभी औरतें उसे गालियां देने लगीं तथा सबने मिल कर श्यामवती को धीरज बँधाया।

बात सब ओर फैल गई। भोला भी सुनकर जल्दी ही घर चला आया। बुधराम पर उसे इतना गहरा विश्वास था कि उसने मन ही मन सारा दोष श्यामवती के सिर पर मढ़ दिया और घर आते ही श्यामा की मरम्मत की तथा उसे घर से बाहर निकाल कर दरवाजा बन्द कर लिया। वह चिल्ला चिल्ला कर दरवाजा खोलने के लिये प्रार्थना करने लगी पर सब व्यर्थ हुआ। अन्त में परसादी की औरत उसे अपने घर ले गई। दो-चार दिनों में जब भोला का अकारण ही अविवेक से आया हुआ गुस्सा शान्त हुआ तब वह उसे घर लिवा ले गया। श्यामा ने जब उसे बुधराम के बारे में आदि से अन्त तक सभी बातें बताई तो वह बोला, "तुमने पहले क्यों नहीं बताया?"
"वाह, पहले बता कर और भी आफत मोल लेती? जब पूरी बस्ती को विश्वास हो गया कि मैं निर्दोष हूँ तब तो तुमने मुझे पीटा। पहले यदि बताती तो तुम अधिक शक न करते।" श्यामा का उत्तर सुन कर भोला चुप हो गया। थोड़ी देर बाद बोला, "तुम ठीक कहती हो। बुधराम से मेरी दोस्ती ही ऐसी थी कि मैं उसे दोष नहीं दे सकता था।"
दोनों की गृहस्थी की गाड़ी फिर चलने लगी। बुधराम ने उसी दिन टाटानगर छोड़ दिया पर भोला के हृदय में प्रतिहिंसा की आग धधकने लगी।
(क्रमशः)

Tuesday, October 2, 2007

धान के देश में - 24

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 24 -

दीनदयाल के स्वर्गवास हो जाने के बाद महेन्द्र के जीवन में गहरी उदासीनता आई। वह सदाराम के साथ नागपुर चला गया क्योंकि बी। एजी। की अन्तिम परीक्षा देना अनिवार्य था अन्यथा दीनदयाल की आत्मा को शान्ति नहीं मिलती। किन्तु जब कभी महेन्द्र पुस्तक लेकर पढ़ने बैठता तब दीनदयाल की मूर्ति पन्नों मे दिखाई देती। पुस्तक से आँखें हटाकर जिधर भी देखता उधर वही सौम्य मूर्ति ही दिखती। अन्त में मन को बहलाकर उसे पढ़ाई में लगाने के लिये महेन्द्र और सदाराम ने निश्चय किया कि इतवारी जाकर अधारी से मिलें और कुछ काम करें।
उसी दिन शाम को दोनों इतवारी गये। वहाँ अधारी से भेंट हुई। अधारी को उनसे मिलने की एक ओर जहाँ बेहद खुशी हई वहीं महेन्द्र के घर का दुःख सुनकर वह दुःखी भी हुआ। जब अधारी से कहा गया कि छत्तीसगढ़ के उन निवासियों के लिये अच्छे काम करने की योजना बनाई जाय और व्यावहारिक रूप से कुछ किया जाय तब अधारी उत्साहपूर्वक तुरन्त ही राजी हो गया। योजना के अनुसार सबसे पहले इतवारी में रहने वाले छत्तीसगढ़ के सभी मजदूरों, हमालों और दूसरे काम करने वाले स्त्री-पुरुषों की बैठक बुलाई गई। गिनती करने पर कोई पाँच सौ निकले। सबने एक स्वर और एक मत से अधारी को ही अपना मुखिया चुना। यह तय किया गया कि महेन्द्र जो कुछ भी कहेगा वह आँख मूँद कर माना और किया जावेगा-कोई उसमें जरा सा भी मीन मेख नहीं निकालेगा।
सबसे पहले रामायण मण्डली और भजन मण्डली का संगठन किया गया। बहुत कम लोग पढ़े-लिखे मिले जो रामायण का पाठ कर सकते थे। महेन्द्र और सदाराम ने स्वयं उत्साह दिखाया और उन सीधे-सादे ग्रामीण मजदूरों को प्रोत्साहन दिया। रोज शाम को सामूहिक रूप से कथा होने लगी। अब की बार महेन्द्र और सदाराम होस्टल में न रह कर किराये का मकान लेकर रहते थे जिससे वे रामायण में सहज ही सम्मिलित हो जाते थे। प्रति शनिवार की रात नौ बजे से ग्यारह बजे तक खंजरी और इकतारा बजा कर भजन किया जाने लगा। परिणाम यह हुआ कि 'स्वधर्म' के प्रति उन लोगों की रुचि दृढ़ होती गई और अन्य धर्मों के प्रति भी वे स्वधर्म को न छोड़ते हुये सम्मान का भाव रखने लगे।
इतवारी के जिस क्षेत्र में वे रहते थे वहाँ उनके लिये कोई सार्वजनिक स्थान नहीं था। इसलिये सब आयोजन अधारी के घर होता था। महेन्द्र की इच्छा थी कि एक सार्वजनिक स्थान बन जावे तो बहुत अच्छा हो। उस बस्ती में एक खण्डहर था। महेन्द्र की दृष्टि उस पर थी। पता लगा कि वह किसी सेठ का था और वह उस खण्डहर की जमीन को बेचना भी चाहता था। उससे बात करने के पहले महेन्द्र ने अधारी को सार्वजनिक स्थान के विषय में अपना विचार बताया। दूसरे ही दिन अधारी ने सब लोगों की बैठक बुलाई और उनके सामने यह विचार रखा। सबने पसंद किया और अपनी अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ चन्दा दिया। तो-तीन दिनों में ही पाँच सौ रुपये इकट्ठे हो गये। अब महेन्द्र ने सेठ से बात की और दो सौ में सौदा पक्का हो गया। रजिस्ट्री कराई गई और जमीन मजदूरों की हो गई। सबके निश्चय के अनुसार खण्डहर का बचा हुआ भाग हटाकर जमीन साफ की गई। वहाँ एक चबूतरा बनाकर उसके एक किनारे हनुमान जी के छोटे से मन्दिर का निर्माण किया गया। चबूतरे के चारों ओर दीवाल का घेरा बना कर सामने की ओर दरवाजा रखा गया। चबूतरे पर चारों ओर खम्भे गड़ा कर टीन के छत बना दी गई। अब भजन-रामायण और बैठक वहीं होने लगी।
इतना सब कुछ करते हुये भी महेन्द्र नियमित रूप से अपनी पढ़ाई करता था। उसे अपने स्वर्गीय दादा दीनदयाल पर बड़ा गर्व था। वह उनकी उदारता और दयालुता को अब भली-भाँति समझ चुका था और उनके चरण-चिह्नों पर चलना चाहता था। इस प्रकार का सार्वजनिक कार्य करने से उसे ऐसा लगता था कि दीनदयाल की आत्मा अब प्रसन्न है और उसे शान्ति मिल रही है। साथ ही अब शोक, मोह, दुश्चिंता भी उसके हृदय से भाग गई थी। उसका मन पढ़ने में खूब लगता था। अपने दादा की भाँति वह भी गीता का स्वाध्याय करने लगा था।
एक दिन संध्या का समय था। सूर्यास्त प्रायः हो चुका था और कहीं कहीं बत्तियाँ भी जला दी गई थीं। सदाराम अकेले ही इतवारी आया। वह सीधे हनुमान जी के मन्दिर में गया। हाथ जोड़ कर प्रणाम कर ही रहा था कि किसी ने मन्दिर की घण्टी बजाई। सदाराम ने पीछे मुड़ कर देखा तो सत्रह-अठारह वर्ष की तरुणी थी। वह उसे देखते ही रह गया। उस तरुणी ने भी सदाराम को देखा और उसकी अपलक आँखें उसके चेहरे पर रुक गई। दो क्षण बाद ही दोनों की दृष्टि हनुमान जी की सुन्दर मूर्ति को श्रद्धा से निहार रहीं थीं।
(क्रमशः)
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Monday, October 1, 2007

धान के देश में - 23

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 23 -

यह टाटानगर है जिसे मजदूर आबाद किये हुये हैं। लोहे की भट्टी का भीषण ताप सह कर, खून को पसीना बनाकर, लोहे जैसे हाथों से लोहा ढ़ो कर ये निरीह मजदूर संसार को रेल की पाँत, लोहे की छड़े और अन्य उपयोगी वस्तुएं देते हैं जिनसे संसार सभ्य बने रहने का दावा करता है। आजकल भोला और श्यामवती यहीं रह रहे हैं। यहाँ आकर भोला ने परसादी के मुहल्ले और घर का पता लगाया और परसादी के पड़ोस मे ही उसे किराये से मकान भी मिल गया। परसादी सिकोला से ही भोला के स्वभाव को बहुत कुछ जान चुका था। इसलिये उसने उससे अधिक घनिष्ठता और दोस्ती नहीं बढ़ाई। हाँ, उसे श्यामवती के प्रति सहानुभूति अवश्य ही थी।
बलिष्ठ होने के कारण भोला को जल्दी ही कारखाने में नौकरी मिल गई। वह तो दिन भर कारखाने में काम करता था और श्यामवती घर का काम-काज करने के बाद कोई न कोई पुस्तक पढ़ती रहती थी। यद्यपि अन्य मजदूरों की स्त्रियाँ भी काम करने जाया करती थीं तो भी भोला श्यामा को काम करने के लिये बाहरे भेजने के पक्ष में नहीं था।
जब से वे दोनों टाटानगर आये थे तब से अब तक उन दोनों ने घर में न तो एक चिट्ठी ही भेजी थी और न कमाई की एक पाई ही। भोला तो इस विचार का था कि घर कुछ न भेजा जाय और श्यामा उसके उग्र स्वभाव के कारण विवश थी। वह नहीं चाहता था कि दुर्गाप्रसाद को उन लोगों का पता लग जावे।
कुछ दिनों तक कारखाने में काम करने के बाद भोला को एक नई लत लग गई। जलती ज्वाला के सामने काम करने के बाद उसे भयानक शिथिलता मालूम होती थी। एक दिन उसने वहाँ के एक मजदूर बुधराम, जिसका स्वभाव भी भोला के जैसा ही था, से कहा, "यार, काम करते करते तो शरीर टूटने लगता है। क्या किया जाय?"
बुधराम हँस कर बोला, "आज ही शाम को मैं तुम्हें एक ऐसा उपाय बताउँगा जिससे तुम्हारी सारी थकावट दूर हो जायेगी।"
भोला ने पूछा, "ऐसा कौन सा उपाय है?"
इस पर बुधराम ने कहा, "इतना बेचैन क्यों हो रहे हो, शाम को तो तुम्हें पता चल ही जायेगा।"
शाम को बुधराम भोला को एक मकान में ले गया, जहाँ कुछ लोग अर्द्धचेतना में लेटे हुये थे। कुछ लड़खड़ाते हुये इधर-उधर अकारण ही चल रहे थे। कुछ अपने आप बड़बड़ा रहे थे। वहाँ उन सबकी दिन भर की गाढ़ी कमाई, खून, शक्ति, स्वास्थ, बुद्धि, जीवन सब कुछ छिनता जा रहा था। भोला यह सब देख कर बुधराम से बोला, "कहाँ ले आये मुझे? चलो वापस चलें।"
बुधराम ने उत्तर दिया, यही तो वह जगह हैं जहाँ दिन भर की थकावट दूर होती है। तुम ठहरो। मैं अभी आया।"
भोला वहीं एक बेंच पर बैठ गया और बुधराम कोट-पैंट धारी कलवार या उस दूकान के दूकानदार के पास जा कर बोला, "नया पंछी लाया हूँ फाँस कर। पिंजड़ा देख कर घबरा रहा है। बोलो मेरा कमीशन दोगे या नहीं।"
"तुम्हारा कमीशन कब नहीं दिया जो ऐसा कह रहे हो" दूकानदार ने कहा।
"अच्छा भेज दो बोतल।" कह कर बुधराम भोला के पास आ कर बेंच पर बैठ गया। उसके पीछे ही दूकान का नौकर दो बोतलें ले कर आया। उनमें से एक को गिलास में डाल कर बुधराम ने भोला के देते हुये कहा, "यार, मैं तुम्हें ज्यादा पीने को थोड़े ही कह रहा हूँ। दवा के रूप में थोड़ी-सी लो, नहीं तो कारखाने की भयानक आँच में अधिक दिनों तक काम नहीं कर सकोगे।"
भोला का विवेक तो सदा से ही सोया था। उसके उद्दण्ड जीवन के मूल में क्षणिक आवेश और मूर्खता ही तो थी। बुधराम की बातों में उसे सत्यता का अंश ही अधिक मालूम हुआ। बुधराम ने बड़े प्रेम से उसका हाथ पकड़ कर उसके मुँह से गिलास लगा दिया। भोला ने प्रतिकार नहीं किया। मंत्र से बँधे हुये शैतान की तरह भोला ने एक घूँट गले के नीचे उतार ली। गले में असह्य जलन हुई और मुख कड़वाहट से भर गया। बुधराम ने तत्काल ही पापड़ का एक टुकड़ा उसके मुँह में रख दिया। इसके बाद तो भोला ने दो-तीन गिलास चढ़ाये और थोड़ी ही देर में झूम उठा। उसे लगा कि सचमुच ही उसकी थकावट दूर हो गई है। बुधराम से लड़खड़ाती जुबान में बोला, "वाह बुधराम भाई वाह! तुमने ठीक ही कहा था। मेरी स...ब थका....वट दूर हो गई है। चलो...... अब...... घ....र चलें।
बुधराम भोला से कई गुना अधिक काँइयाँ था। बोतल पर बोतल चढ़ा जाता पर डकार तक न लेता था। उसकी इस आदत में पूरी दृढ़ता आ गई थी। भोला को साथ ले वह बाहर बैठे हुये खोंचे वाले के पास आया। दोनों ने चटचटी चीजें खाईं। भोला को उन चीजों में आज नया स्वाद मिल रहा था। पैसा देने के समय बुधराम अपनी जेब टटोल कर बाहर खाली हाथ निकालते हुये बोला, "यार पैसे तो दूसरी कमीज में रह गये। अब तो इज्जत बचाने का सवाल है।"
भोला गर्व से कहने लगा, "यार बुधराम, जो टेरी इज्जट वो मेरी इज्जट। तू फिकर क्यों करता है। अभी मेरे पास बहुत पैसे हैं।" उसने एक रुपया निकाल कर खोंचे वाले के हाथ में दे दिया। दोनों ने छः आने का ही खाया था। नशे में चूर भोला बाकी पैसे माँगना भूल गया। पर बुधराम ने वे पैसे माँग कर अपनी जेब में रख लिये। इसके बाद बुधराम को भोला के घर के पास वाले चौराहे तक पहुँचा गया जहाँ से वह लड़खड़ाता-झूमता हुआ घर पहुँचा। घर का दरवाजा पार करते ही छपरी पर उसकी राह ताकती हुई वहीं खड़ी श्यामवती ने उसे संभाल लिया। वह बड़बड़ाने लगा, "नाय, नाय, मुझे छुवो मत। तुम क्या संभालोगी मुझे। मैं खुद संभल जाउँगा। अब कारखाने में काम करने में मुझे कोई थकावट नहीं होगी। कोई थका....." कहते कहते भोला बेसुध हो गया। श्यामा ने उसे पास ही बिछी हुई खाट पर लिटा दिया। वह बेहोशी की हालत में ही नींद में खो गया।
श्यामवती समझ गई कि आज भोला ने जिंदगी के और भी अधिक गंदे रास्ते पर कदम रख दिया है। भोजन ज्यों का त्यों धरा रह गया। उसने भी कुछ नहीं खाया। वह गहरी चिन्ता में डूब गई। भोलला जैसा कुछ था, था और श्यामा ने अपने आपको उसके अनुकूल बनाने का भरसक प्रयत्न भी किया था। जिन्दगी के सुख की उसने जो कल्पना की थी उस पर तो पहले ही वज्रपात हो गया था। अब नई विपत्ति सामने घोर अन्धकार की सेना लिये सामने खड़ी थी। श्यामवती खाट के पास बैठी थी। उसके उसके नेत्र लगातार आँसू बहा रहे थे। मन स्मृतियों के संसार में भटकने लगा। सबसे पहले इस विपत्ति में उसे अपनी माँ याद आई। राजवती की याद आते ही स्वाभाविक ही उसके प्रति श्यामा के मन में घृणा उत्पन्न हुई। उसने केवल अपने बिना सोचे समझे दिये हुये वचन की रक्षा के अभिमान में ही तो उसे भोला के पंजे में फेंक दिया था। क्या यह राजवती का स्वार्थ मात्र ही नहीं था जिसकी धधकती ज्वाला में बेटी के जीवन की आहुति दे दी गई थी। राजो ने दीनदयाल की भी नहीं चलने दी, नहीं तो वे ऐसा कभी नहीं होने देते। श्यामवती के स्मृति पटल पर दीनदयाल का चित्र खिंच गया। उस क्या पता था कि अब वे संसार में नहीं रहे। फिर सदाराम याद आया और उसके बाद महेन्द्र। महेन्द्र की याद आते ही वह सिर से पैर तक काँप उठी। उसका हृदय सिहर उठा। इसी बीच भोला ने करवट बदली और अर्द्धचेतना की अवस्था में उठ कर बैठ गया। उसका गला सूख रहा था। उसने पानी माँगा। श्यामवती ने तुरन्त ही गिलास भर कर पानी दे दिया जिसे भोला ने अन्तिम बून्द तक पी लिया। फिर बोला, "श्यामा, तुम अभी तक सोई नहीं हो क्या? सो जावो तुम भी।" तन्द्रा ने उस पर फिर आक्रमण कर दिया और वह नींद में खो गया। श्यामा ने न तो कुछ उत्तर ही दिया और न सोई ही। न जाने कब तक वह चिन्ता के महासागर में गोते लगाती रही और उसे पता ही न चला कि कब वह भोला के पैर के पास सो गई।
सुबह जब भोला उठा तो उसे बेहद सुस्ती मालूम हो रही थी। श्यावती पहले ही उठ कर नाश्ता बना चुकी थी। हाथ-मुँह धो कर भोला नाश्ता करने आ बैठा। अभी उसके पतन की यह पहली सीढ़ी ही थी। इसलिये वह ग्लानि से गड़ा जा रहा था। उसकी हिम्मत नहीं थी कि पिछली रात की बातों पर वह कुछ बोल सके। अवसर पाकर श्यामा बोली, "एक बात कहूँ तो बुरा तो न मानोगे?"
सुनते ही भोला का जी धक से हो गया। जिस बात का भय था वही सामने आई। वह शान्त रहा और धीरे से कहा, "कहो न।" श्यामवती कहने लगी, "तुम्हें मैं कुछ समझाऊँ यह बुद्धि तो मुझमें नहीं है। फिर भी कहती हूँ कि कल रात तुमने जो पी लिया था यह अच्छा नहीं है।" सुन कर भोला एक बार तो तिलमिला उठा। उसका मन कुछ उद्दण्डता और कुछ शान्ति के बीच झूलने लगा। उद्दण्डता इसलिये कि वह समझता था कि उसने तो केवल थकावट मिटाने के लिये ही पी थी, तो उसमें बुराई ही क्या है। और शान्ति इसलिये कि उसे गर्व हुआ कि श्यामा आखिर उसके भले के लिये ही कह रही है। उसने संयत मन से कहा, "वह तो मैंने केवल थकावट मिटाने के लिये ही पी थी।"
"लेकिन थकावट तो आप से आप ही मिट जाती।"
श्यामा की बात सुनकर भोला को अविश्वास और आश्चर्य हुआ। उसने सोचा श्यामा पढ़ी-लिखी है, शायद उसकी बात सच ही हो। फिर उसका प्रश्न था, "कैसे कह सकती हो कि थकावट आपसे आप मिट जाती।?"
"ऐसे कि शुरू शुरू में कड़ी मेहनत करने से थकावट मालूम होती है पर जब आदत पड़ जाती है तब थकावट महसूस नहीं होती। यही अपने परसादी को देखो न। वह तो कभी नहीं पीता। फिर भी कड़े से कड़े काम करता है।" श्यामा ने भोला को समझाया पर उसकी समझ में बात कुछ आई और कुछ नहीं आई। पर उसने श्याम के लिये प्रण किया कि वह अब शराब को छुयेगा भी नहीं।
(क्रमशः)