Monday, December 7, 2009

किस ब्लोगर ने किया कमाल?

प्लेन में सारे हिन्दी ब्लोगर्स थे। अचानक प्लेन के इंजिन में खराबी आ गई और पायलट को रेगिस्तान में क्रैश लैंडिंग करना पड़ गया। प्लेन को सावधानीपूर्वक रेगिस्तान में सुरक्षित उतार लिया गया। प्लेन के क्रैश होने पहले सारे ब्लोगर्स सुरक्षित दूरी तक पहुँच गये। यद्यपि प्लेन क्रैश हो गया और दुर्भाग्य से प्लेन का भी उसके साथ स्टाफ समाप्त हो गया किन्तु सौभाग्य यह रहा कि सारे के सारे ब्लोगर्स बच गये।

सारे ब्लोगर्स सुरक्षित बच तो गये किन्तु स्थिति विकट थी, चारों ओर दूर दूर तक रेत ही रेत था। न कोई आदमी न आदम जात। यह भी पता नहीं था कि वे कहाँ पर हैं और नजदीक में कोई गाँव, कस्बा या शहर है भी कि नहीं।

खैर साहब, हमारे कुछ ब्लोगर मित्रों ने अपने तत्काल बुद्धि का प्रयोग करते हुए प्लेन से भागते वक्त अपने साथ कुछ न कुछ सामान भी बचा लाये थे जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा हैः

ललित शर्मा जी ने हथियार का बक्सा बचा लिया जिसमें कि बंदूकें, पिस्तोलें और चाकू आदि थे।

हमने तो भाई शानदार व्हिस्की के एक क्रेट बचा लिया था।

एक मित्र ने पानी पाउच की एक बोरी बचा ली थीं।

एक अन्य महोदय ने रेजर और ब्लेड बचाया था।

किसी और ने मोमबत्ती और माचिस का डिब्बा बचाया था।

एक ने अपने साथ एक टार्च रख लिया था।

एक अन्य मित्र ने पैकेज्ड फूड का बक्सा बचा लिया था।

एक महिला ब्लोगर ने अपना मेकअप बॉक्स बचाया था।

एक मित्र ने फर्स्ट एड बॉक्स बचा लिया था।

किसी अन्य ने सामान्य दवाइयों का डब्बा बचाया था जिसमें पैरासीटामॉल, ब्रुफेन, निमुसलाइड जैसे बुखार एवं दर्द निवारक सामान्य दवायें थीं।

एक मित्र ने जो बक्सा बचाया था उसमें दाल, चाँवल, गेहूँ आदि खाना बनाने के सामान थे।

अब आपको बताना है कि उपरोक्त बचाये गये सामानों में से सबसे अधिक काम की चीज कौन सी है? आखिर किस ब्लोगर ने किया था कमाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण चीज बचाकर?

सोचिये! दिमाग लगाइये!! जवाब दीजिये!!!

चलते-चलते

किसी बात से नाराज होकर सभापति ने कहा, "इस सभा मे उपस्थित आधे लोग बेवकूफ हैं।"

इस से लोग और भी नाराज हो गये तो सभापति ने कहा, "कृपया नाराज मत होइये, इस सभा मे उपस्थित आधे लोग बेवकूफ नहीं हैं।"

Sunday, December 6, 2009

बुड्ढों की कबड्डी

चलिये, आज हम आपको कबड्डी दिखाने ले चलते हैं, वह भी बुड्ढों की कबड्डी। आज आपको पता चल जायेगा कि हमारे देश के बुड्ढों में भी अब तक कितना दम बाकी है। भाई, आखिर असली घी पिया है इन्होंने अपने जमाने में। इतवार की छुट्टी का मजा आ जायेगा आपको इन बुड्ढों की कबड्डी देख कर!

कबड्डी तो कभी न कभी आपने खेला ही होगा, और यदि खेला नहीं होगा तो देखा होगा ही। कबड्डी खेलने वाले में जितना जोश होता है उससे कहीं अधिक देखने वाले मे होता है। हम जब स्कूल में पढ़ते थे तो प्ले ग्राउँड में कबड्डी, फुटबाल और हॉकी के खिलाड़ी ही दिखाई दिया करते थे किन्तु आज तो क्रिकेट ने इन खेलों की पूरी तरह से छुट्टी कर रखी है। अस्तु!

मित्रों! महान लेखकों की कल्पनाशक्ति भी असाधारण होती है तभी तो कथा सम्राट प्रेमचन्द जी ने वर्णन किया है इस कबड्डी का अपने उपन्यास गोदान में जिसे कि हम नीचे उद्धृत कर रहे हैं। यदि आपने प्रेमचंद जी को पहले पढ़ा है तब तो, हम जानते हैं कि, आप इस वर्णन को पूरा पढ़े बिना यहाँ से हिलेंगे भी नहीं और यदि आप प्रेमचन्द जी को इस पोस्ट के माध्यम से पहली बार पढ़ रहे हैं तो फिर तो आप दीवाने हो जायेंगे उनकी कहानियों और उपन्यासों के।

तो प्रस्तुत है "बुड्ढों की कबड्डी"
धीरे-धीरे एक-एक करके मजूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश होकर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़े और निकम्मे बच रहे थे, जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई ग़म नहीं। सहसा मिरज़ा खुर्शेद ने मज़दूरों के बीच में आकर ऊँची आवाज़ से कहा -- जिसको छः आने रोज़ पर काम करना हो, वह मेरे साथ आये। सबको छः आने मिलेंगे। पाँच बजे छुट्टी मिलेगी। दस-पाँच राजों और बढ़इयों को छोड़कर सब के सब उनके साथ चलने को तैयार हो गये। चार सौ फटे-हालों की एक विशाल सेना सज गयी। आगे मिरज़ा थे, कन्धे पर मोटा सोटा रखे हुए। पीछे भुखमरों की लम्बी क़तार थी, जैसे भेड़ें हों। एक बूढ़े ने मिरज़ा से पूछा -- कौन काम करना है मालिक? मिरज़ा साहब ने जो काम बतलाया, उस पर सब और भी चकित हो गये। केवल एक कबड्डी खेलना! यह कैसा आदमी है, जो कबड्डी खेलने के लिए छः आना रोज़ दे रहा है। सनकी तो नहीं है कोई! बहुत धन पाकर आदमी सनक ही जाता है। बहुत पढ़ लेने से भी आदमी पागल हो जाते हैं। कुछ लोगों को सन्देह होने लगा, कहीं यह कोई मखौल तो नहीं है! यहाँ से घर पर ले जाकर कह दे, कोई काम नहीं है, तो कौन इसका क्या कर लेगा! वह चाहे कबड्डी खेलाये, चाहे आँख मिचौनी, चाहे गुल्लीडंडा, मजूरी पेशगी दे दे। ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा? गोबर ने डरते-डरते कहा -- मालिक, हमारे पास कुछ खाने को नहीं है। पैसे मिल जायँ, तो कुछ लेकर खा लूँ। मिरज़ा ने झट छः आने पैसे उसके हाथ में रख दिये और ललकारकर बोले -- मजूरी सबको चलते-चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी चिन्ता मत करो। मिरज़ा साहब ने शहर के बाहर थोड़ी-सी ज़मीन ले रखी थी। मजूरों ने जाकर देखा, तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था और उसके अन्दर केवल एक छोटी-सी फूस की झोंपड़ी थी, जिसमें तीन-चार कुर्सियां थीं, एक मेज़। थोड़ी-सी किताबें मेज़ पर रखी हुई थीं। झोंपड़ी बेलों और लताओं से ढकी हुई बहुत सुन्दर लगती थी। अहाते में एक तरफ़ आम और नीबू और अमरूद के पौधे लगे हुए थे, दूसरी तरफ़ कुछ फूल। बड़ा हिस्सा परती था। मिरज़ा ने सबको क़तार में खड़ा करके ही मजूरी बाँट दी। अब किसी को उनके पागलपन में सन्देह न रहा। गोबर पैसे पहले ही पा चुका था, मिरज़ा ने उसे बुलाकर पौधे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न मिलेगी। मन में ऐंठकर रह गया। इन बुड्ढों को उठा-उठाकर पटकता; लेकिन कोई परवाह नहीं। बहुत कबड्डी खेल चुका है। पैसे तो पूरे मिल गये। आज युगों के बाद इन ज़रा-ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य मिला। अधिक-तर तो ऐसे थे, जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्डी खेली है या नहीं। दिनभर शहर में पिसते थे। पहर रात गये घर पहुँचते थे और जो कुछ रूखा-सूखा मिल जाता था, खाकर पड़े रहते थे। प्रातःकाल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था। जीवन नीरस, निरानन्द, केवल एक ढर्रा मात्र हो गया था। आज जो यह अवसर मिला, तो बूढ़े भी जवान हो गये। अधमरे बूढ़े, ठठरियाँ लिये, मुँह में दाँत न पेट में आँत, जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़ाये ताल ठोक-ठोककर उछल रहे थे, मानो उन बूढ़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी हो। चटपट पाली बन गयी, दो नायक बन गये। गोईयों का चुनाव होने लगा। और बारह बजते-बजते खेल शुरू हो गया। जाड़ों की ठंडी धूप ऐसी क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ऋतु है। इधर अहाते के फाटक पर मिरज़ा साहब तमाशाइयों को टिकट बाँट रहे थे। उन पर इस तरह की कोई-न-कोई सनक हमेशा सवार रहती थी। अमीरों से पैसा लेकर ग़रीबों को बाँट देना। इस बूढ़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाये गये थे, नोटिस बाँटे गये थे। यह खेल अपने ढंग का निराला होगा, बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़े आज भी कैसे पोढ़े हैं, जिन्हें यह देखना हो, आयें और अपनी आँखें तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछतायेगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टिकट दस रुपए से लेकर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का ताँता लगा हुआ था। दो हज़ार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुसिर्यों और बेंचों का इन्तज़ाम था। साधारण जनता के लिए साफ़ सुथरी ज़मीन।

खेल शुरू हो गया। जनता बूढ़े कुलेलों पर हँसती थी, तालियाँ बजाती थी, गालियाँ देती थी, ललकारती थी, बाज़ियाँ लगाती थी। वाह! ज़रा इन बूढ़े बाबा को देखो! किस शान से जा रहे हैं, जैसे सबको मारकर ही लौटेंगे। अच्छा, दूसरी तरफ़ से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल रहे हैं! इन हिड्डयों में अभी बहुत जान है। इन लोगों ने जितना घी खाया है, उतना अब हमें पानी भी मयस्सर नहीं। लोग कहते हैं, भारत धनी हो रहा है। होता होगा। हम तो यही देखते हैं कि इन बुड्ढों-जैसे जीवट के जवान भी आज मुश्किल से निकलेंगे। वह उधरवाले बुड्ढे ने इसे दबोच लिया। बेचारा छूट निकलने के लिए कितना ज़ोर मार रहा है; मगर अब नहीं जा सकते बच्चा! एक को तीन लिपट गये। इस तरह लोग अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर कर रहे थे; उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात, उछल-कूद, धर-पकड़ और उनके मरने-जीने में सभी तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ़ से क़हक़हे पड़ते, कभी कोई अन्याय या धाँधली देखकर लोग ' छोड़ दो, छोड़ दो ' का गुल मचाते, कुछ लोग तैश में आकर पाली की तरफ़ दौड़ते ...


तो बन्धुओं, बताइयेगा जरूर कि कैसी लगी आपको बुड्ढों की कबड्डी?

चलते-चलते

नेता जी के अनुसार खेल तीन प्रकार के होते हैं - पहला हॉकी, दूसरा फुटबाल और तीसरा टूर्नामेंट!

Saturday, December 5, 2009

दो कलाकार .. काम किया जिन्होंने एक साथ सिर्फ एक बार

जहाँ फिल्मी कलाकारों की जोड़ियाँ और तिकड़ी मशहूर हुई है वहीं कुछ ऐसे कलाकार भी हैं जिन्होंने एक साथ केवल एक ही बार काम किया और फिर बाद में वे फिर कभी इकट्ठे काम नहीं कर पाये, कारण चाहे जो भी रहा हो।


  • राज कपूर और हेमा मालिनी फिल्म सपनों का सौदागर के बाद फिर कभी एक फिल्म में नहीं आये। उल्लेखनीय हैकि सपनों का सौदागर हेमा मालिनी की पहली फिल्म थी।
  • दिलीप कुमार और नूतन ने केवल एक बार ही एक साथ काम किया है, फिल्म कर्मा।
  • दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन की एकमात्र फिल्म है शक्ति।
  • जितेन्द्र और सायरा बानो की केवल एक ही फिल्म आई है आज तक, जी हाँ आपको भी याद गया होगा कि फिल्म है आखरी दाँव।
  • जितेन्द्र और शर्मिला टैगोर की एक मात्र फिल्म है मेरे हमसफर।
  • अमिताभ बच्चन और माला सिन्हा ने एक साथ केवल फिल्म संजोग में काम किया है।
  • अमिताभ बच्चन और जितेन्द्र को एक साथ लेकर केवल एक ही फिल्म फिल्म बनी फिल्म का नाम है गहरी चाल।
  • अमिताभ बच्चन और नूतन की एकमात्र फिल्म है सौदागर।
  • अमिताभ बच्चन और रीना राय एक साथ केवल फिल्म नसीब में आये। यद्यपि फिल्म अंधा कानून में भी दोनों कारोल था पर पूरे फिल्म में दोनों कलाकारों का एक साथ कोई भी दृश्य नहीं है।
  • अमिताभ बच्चन और नाना पाटेकर की एक ही फिल्म है, नाम है कोहराम।
  • शत्रुघ्न सिन्हा और विद्या सिन्हा केवल एक बार फिल्म मगरूर में ही एक साथ आये।
  • राकेश रोशन और हेमा मालिनी की एकमात्र फिल्म है पराया धन। यह राकेश रोशन की पहली फिल्म थी।
  • राज कुमार और डैनी की एकमात्र फिल्म है बुलंदी।
  • राज कुमार और नाना पाटेकर को एक साथ लेकर एक ही फिल्म बनी है तिरंगा।
  • शत्रुघ्न सिन्हा और राज कुमार की केवल एक ही फिल्म है चंबल की कसम।
  • शत्रुघ्न सिन्हा और रजनीकांत एक साथ फिल्म असली नकली में ही आये।
  • शेखर सुमन और रेखा की एक ही फिल्म है उत्सव।
  • आमिर खान और नीलम की एकमात्र फिल्म है अफ़साना प्यार का।
  • एक ही परिवार के तीन पीढ़ियों के कलाकारों को एक साथ लेकर केवल एक ही फिल्म बनी है, फिल्म का नाम है "कल आज और कल" तथा कलाकार हैं पृथ्वीराज कपूर, राज कपूर और रणधीर कपूर।
  • दिलीप कुमार और राजकुमार का नाम इस लिस्ट में जाता यदि उनकी पहली फिल्म पैगाम के 32 साल बाद सुभाष घई ने दोनों को अपनी फिल्म सौदागर में फिर से एक बार काम करने का अवसर दिया होता।
(यह जानकारी मैंने कई वर्ष पहले एकत्रित की थी, यदि इसमे कोई परिवर्तन हुआ हो कृपया सूचित करने का कष्ट करें।)

चलते-चलते

साहिर लुधियानवी, जयदेव और विजय आनंद एक दूसरे के अच्छे मित्र थे। बात सन् 1961 से भी पहले की है। दिन भर के काम के के बाद बैठे थे तीनों यूँ ही थकान उतारने। गप-शप के बीच जयदेव ने ये शेर सुनायाः

हमको तो गर्दिशेहालात पे रोना आया
रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया

शेर सुना कर जयदेव ने साहिर से कहा कि इस शेर को कहने वाला शायर एक प्रश्न छोड़ गया है और तुम्हें उसका जवाब देना है। साहिर भी कम नहीं थे। उन्होंने जवाब देने के लिये उस बैठक में ही एक पूरा गजल बना डाला और जयदेव को सुनाया जो इस प्रकार हैः

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हरेक बात पे रोना आया

हम तो समझे थे कि हम भूल गये हैं तुमको
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया

किस लिये जीते हैं हम किसके लिये जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया

कौन रोता है किसी और के खातिर दोस्त
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया

जयदेव ने उनके इस गजल की खूब तारीफ़ की और कहा कि वे इसके लिये एक अच्छी सी धुन अवश्य बनायेंगे। विजय आनंद ने भी साहिर से कहा कि वे इस गीत को अपने निर्देशन वाली किसी न किसी फिल्म में अवश्य लेंगे। कुछ दिनों बाद ही विजय आनंद को फिल्म हम दोनों के निर्देशन का काम सौंपा गया और अपने वादे के मुताबिक उन्होंने उस फिल्म में गीत को ले लिया। तो इस प्रकार बातों बातों में ही बन गया था ये गजल!

Friday, December 4, 2009

विचित्र जीव है ये पत्नी नाम की प्राणी

आपकी एक एक बात का लेखा जोखा रहता है इसके पास। बहुत विचित्र जीव है ये पत्नी नाम की प्राणी। पति अपने बारे में जितना नहीं जानता उससे अधिक पत्नी जानती है उसके विषय में। मजाल है कि पति की कोई बात पत्नी से छुप जाये!

शादी के पहले ऑफिस जाते समय हमारी माता जी हमारा टिफिन तैयार करती थीं। हमारी खुराक से अधिक खाना रहता था उसमें। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि प्रायः प्रत्येक ऑफिस में एक न एक सहकर्मी जरूर ऐसा होता है जो कभी भी अपना टिफिन नहीं लाता पर खायेगा जरूर दूसरों की टिफिन से। हमारे टिफिन का अतिरिक्त खाना हमारे एक ऐसे ही सहयोगी के काम आता था। शादी होने के बाद कुछ दिनों तक तो माता जी ही टिफिन तैयार करती रहीं फिर धीरे से इस कार्यभार को हमारी श्रीमती जी ने अपने हाथों में ले लिया। लंच समय में जब हमने टिफिन खोला तो देखा पाँच पराठों की जगह तीन ही पराठे और चाँवल भी रोज की अपेक्षा आधा। इधर हमारे टिफिनविहीन मित्र भी तत्काल आ धमके। हमारी खाना खाने की गति बहुत धीमी है। हम जब तक एक पराठा खतम करते, मित्र ने दो पराठे उदरस्थ कर लिया। चाँवल का भी अधिकतम हिस्सा उनके ही उदर में समा गया। हम तो रह गये भूखे।

ऑफिस से आने पर श्रीमती जी से जब कहा कि खाना कम क्यों रखा था तो जवाब मिला, " कम? कम कहाँ था? क्या मैं नहीं जानती कि आप कितना खाते हैं? मैंने तो अपने हिसाब से कुछ अधिक ही खाना रखा था। लगता है कि आपका खाना दूसरे लोग खा जाते हैं।"

हमने कहा, "हाँ भइ, अब कोई एकाध रोटी खा ले तो क्या फर्क पड़ता है? मना करते अच्छा भी तो नहीं लगता।"

वे बोलीं, "क्यों अच्छा नहीं लगता? क्या आपके मित्रों को तनखा नहीं मिलती? वो अपना खाना खुद क्यों नहीं लाते? अब से आपका इस प्रकार से रोज रोज दूसरों को खाना खिलाना बिल्कुल नहीं चलेगा।"

बताइए अब हम क्या कहते? इधर ऑफिस में हमारे मित्र को तो आदत लगी हुई थी रोज हमारे साथ खाने की, उन्हें क्या पता कि अब हमें भूखे मरना पड़ता है। अन्ततः दो-तीन दिन बाद कह ही दिया, "यार, तुम अपना खाना लाया करो नहीं तो नजदीक के भोजनालय में चला जाया करो।"

इस प्रकार से श्रीमती जी ने हमसे वह कहलवा लिया जो कि शादी के पहले हम कभी भी नहीं कह सकते थे।

तो मित्रों, पत्नी अपने पति की एक-एक बात, एक-एक आदत को अच्छी तरह से जानती है। आप कब झूठ बोल रहे हैं, कब पीकर आये हैं, किस दिन आपकी सेलरी मिलती है, कब ओव्हरटाइम का पेमेन्ट होता है, सब कुछ जानती है वह।

अक्सर पति त्रस्त रहते हैं पत्नी के उनके बारे में सभी कुछ जानने की वजह से। वे समझते हैं कि पति के लिये पत्नी "साँप के मुँह में छुछूंदर" है जिसे न तो निगलते बनता है और न ही उगलते। पर पत्नियाँ जहाँ एक तरफ पतियों को अपनी मुट्ठी में रखने का भरपूर प्रयास करती हैं वहीं दूसरी तरफ पति पर आये किसी भी विपत्ति को दूर करने के लिये जी जान तक लगा देती हैं।

जीवन में पति-पत्नी के बीच बहुत सारे तकरार, नोक-झोंक चलते हैं किन्तु यह भी सत्य है कि वे दोनों ही एक-दूसरे के पूरक भी हैं। एक के बिना दूसरे का जीवन अधूरा है। पत्नी पति की प्रेरणा होती है। अनेक उदाहरण मिल जायेंगे इसके और सबसे बड़ा उदाहरण तो तुलसीदास जी का है। यदि रत्नावली ने यह न कहा होता किः

"लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थिचर्ममय देह यह, ता पर ऐसी प्रीति।
तिसु आधो रघुबीरपद, तो न होति भवभीति॥"

तो आज हम रामचरितमानस से ही वंचित रहते।

श्री गोपाल प्रसाद व्यास जी ने सही ही लिखा हैः

यदि ईश्वर में विश्वास न हो,
उससे कुछ फल की आस न हो,
तो अरे नास्तिको! घर बैठे,
साकार ब्रह्‌म को पहचानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

(पूरी कविता यहाँ पढ़ें - पत्नी को परमेश्वर मानो!)

तो साहब, हँसी-ठिठोली, हास-परिहास, घात-प्रतिघात, ब्याज-स्तुति, ब्याज-निंदा तो चलते ही रहते हैं। ये सब न हों तो जीवन में रस ही क्या रह जाता है?

एक बात तो माननी ही पड़ेगी, पत्नी चाहे पति को गुलाम बनाये या चाहे पति की गुलामी करे, होती वह सच्चा साथी है। जीवन के सारे सुख-दुःख में साथ निभाने वाली वही होती है!

'अवधिया' या संसार में, मतलब के सब यार।
पत्नी ही बस साथ दे, बाकी रिश्ते बेकार॥

चलते-चलते

पति, "तुम मेरे रिश्तेदारों की बनिस्बत अपने रिश्तेदारों को ज्यादा प्यार करती हो।"

पत्नी, "गलत! मैं अपनी सास से अधिक तुम्हारी सास को प्यार करती हूँ।"

Thursday, December 3, 2009

कभी सोचा भी न था कि लिखने लगूँगा

आज रोज एक पोस्ट लिख लेता हूँ तो मुझे स्वयं के ऊपर बहुत आश्चर्य होता है क्योंकि कभी सोचा भी नहीं था कि लिखने लगूँगा। चार साल पहले मैं नेट में आया था कमाई करने के चक्कर में। साल भर तक नेट को कमाई करने के तरीके जानने के लिये खंगालता रहा। इसी चक्कर में ब्लोगिंग (अंग्रेजी) के बारे में पता चला तो अपने कुछ अंग्रेजी ब्लोग बना डाले और सपने देखने लगा सपना कि एडसेंस से धन बरसने लगेगा और बन जाउँगा मैं धनकुबेर। रोज देखा करता था अपने एडसेंस खाते के बैलेंस को जो कि एक डेढ़ महीनों तक जीरो ही रहा। निराशा तो आती थी पर निराशा से अधिक क्रोध आता था अपने आप पर यह सोच कर कि लोग कमा सकते हैं पर मैं कुछ भी नहीं कमा रहा। फिर धीरे धीरे दो तीन-सेंट रोज के हिसाब से एडसेंस में रकम आने लगी। आठ माह बाद सौ डालर हो जाने पर पहला चेक मिला गूगल से। दूसरा उसके पाँच माह बाद, तीसरा फिर तीन माह बाद। इस प्रकार से कमाई शुरू हो गई।

लगभग एक साल तक तो नेट में हिन्दी और हिन्दी ब्लोग के विषय में पता ही नहीं चला। फिर नेट में हिन्दी के बारे में पता चलने के बाद डोमेननेम, होस्टिंग आदि लेकर अपना एक हिन्दी वेबसाइट भी बना लिया क्योंकि उन दिनों हिन्दी साइट में भी एडसेंस के विज्ञापन आते थे।

तो मैं बता रहा था कि मैंने सोचा भी नहीं था कि मैं कभी लिखने लगूँगा। कवि, लेखक, साहित्यकार, पत्रकार कुछ भी तो नहीं हूँ मैं, कभी रहा भी नहीं था। हाँ, मेरे पिता, स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया, अवश्य साहित्यकार थे, साहित्य की हर विधा में लिखा था उन्होंने। मन में विचार आया कि क्यों न एक हिन्दी ब्लोग बनाकर पिताजी के उपन्यास "धान के देश में" को नेट में डाला जाये। बस बना डाला अपना ब्लोग पिता जी के उपन्यास के नाम पर ही। पिताजी के उपन्यास के पूरा हो जाने पर उनकी अन्य कविता कहानियों को डालने लगा पर धीरे-धीरे वे सब भी मेरे ब्लोग में डल गईं। अब कहाँ से कोई पोस्ट लाता मैं? मजबूर होकर कुछ कुछ लिखने लगा। विश्वास नहीं था कि कोई पसंद करेगा मेरे लिखे को। पर आप लोगों का स्नेह मुझे मिलने लगा और मैंने लिखना जारी रखा। अब तो थोड़ी सी पहचान भी बन गई है मेरी।

इस हिन्दी लेखन के चक्कर में कमाई तो बहुत कम हो गई और रोज हिन्दी लिखने की एक लत अलग से लग गई याने कि "आये थे हरि भजन को और ओटन लगे कपास"

चलते-चलते

धर्मार्थ अस्पताल में डॉक्टर से एक व्यक्ति ने आकर कहा, "मोशन क्लियर नहीं हो रहा है डॉ. साब।"

डॉक्टर ने दवा दे दी।

दूसरे दिन फिर वह आ गया और बोला, "आज भी मोशन क्लियर नहीं हुआ।"

डॉक्टर ने पिछले दिन से अधिक स्ट्रॉग दवा दी।

तीसरे दिन फिर वह आ गया और बोला, "आप की दवा ने आज भी असर नहीं किया।"

डॉक्टर ने और अधिक स्ट्रॉग दवा दी।

चौथे दिन फिर वह आ पहुँचा और बताया कि अभी भी दवा ने असर नहीं किया।

डॉक्टर ने झल्ला कहा, "अरे यार, तुमको मैंने कल जो जुलाब दिया था उसको घोड़े को भी खिला दो तो उसकी टट्टी निकल जाये! आखिर तुम हो क्या बला? करते क्या हो तुम?"

"मैं हिन्दी ब्लोगर हूँ साहब।"

सुनकर डॉक्टर साहब कुछ नरम पड़े और जेब से बीस का एक नोट निकाल कर उसे देते हुए कहा, "ये बीस रुपये लो और जाकर खाना खा लो, कल जरूर मोशन क्लियर हो जायेगा।"

Wednesday, December 2, 2009

हाँ चोर हूँ मैं ... दूसरों के मैटर चुराता हूँ

जी हाँ, दूसरों के मैटर चुराता हूँ मैं। चुराता हूँ क्या अभी कल ही एक मैटर चुराया है मैंने और ऊपर से तुर्रा यह कि जिनका मैटर चुराया है उन्हें मेल करके बता भी दिया कि मैंने उनका मैटर चुराया है याने कि "एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी"!

मैं बात कर रहा हूँ 'श्री सुरेश चिपलूनकर' जी के लेख "साइट पर विज्ञापन/खबरें देखिये, पैसा कमाईये…" की जिसे कि कुछ फेरबदल करके मैंने अपने ब्लोग "इंटरनेट भारत" में "कमाई करें साइट पर विज्ञापन/खबरें देखकर" नाम से पोस्ट कर दिया।

पर मैं चोर नहीं कलाकार हूँ। मैं अपनी इस चोरी को चोरी न कह कर कलाकारी का नाम दूँगा क्योंकि चोरी करना चौंसठ कलाओं में से एक है - "चौर्यकला"। चाणक्य की राजनीति में भी चौर्यकला को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। संस्कृत के प्रसिद्ध नाट्यों में चौर्यकला को यथोचित स्थान दिया गया है। महाकवि 'विशाखदत्त' रचित संस्कृत नाट्य "मुद्राराक्षस" में राक्षस की मुद्रा अर्थात् अंगूठी को चाणक्य का एक शिष्य चोरी कर के ही लाता है। 'शूद्रक' रचित संस्कृत नाट्यकाव्य "मृच्छकटिकम" के आधार पर अभिनेता शशिकपूर जी ने फिल्म "उत्सव" बनाया था जिसमें "चौर्यकला" को महत्व देने के लिये एक चोर की भी भूमिका थी। 'स्व. श्री हबीब तनवीर' जी का नाटक "चरणदास चोर" का नायक "चौर्यकला" का उत्कृष्ट प्रदर्शन करता है!

इंटरनेट के वर्तमान युग में तो चौर्यकला सबसे महत्वपूर्ण कला हो गई हैं। कुछ भी लिखना है, खासकर अंग्रेजी में, तो गूगल सर्च कीजिये। चार-पाँच लेखो से अलग-अलग पैराग्राफ को कॉपी करके पेस्ट कर दीजिये और हो गया आपका लेख तैयार। याने कि "हींग लगे न फिटकिरी और रंग आये चोखा"! आप चाहें तो किसी एक लेख को ही कॉपी पेस्ट कर सकते हैं किन्तु ऐसी स्थिति में उसे रीराइट कर लेना बेहतर होता है।

हमारे पाठकों में से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने अपने जीवन में कभी कोई चीज चुराई न हो। मतलब कि "हम सब चोर हैं" और यह तो आप जानते ही हैं कि "चोर चोर मौसेरे भाई" होते हैं। मैं मान कर चल रहा हूँ कि आप सब मेरे मौसेरे भाई हैं, इसीलिये मैंने इस पोस्ट को लिखा है।

चलते-चलते

हाँ या ना में जवाब दो।

"क्या तुमने चोरी करना छोड़ दिया?"

Tuesday, December 1, 2009

मेरा "अवधिया चाचा" से दूर से भी कोई सम्बन्ध नहीं है

ललित शर्मा जी से फोन पर मेरी बात हुई तो उन्होंने शंका जाहिर की कि कहीं "अवधिया चाचा" मेरा छद्मनाम तो नहीं है? यह भी पता चला कि बहुत से लोग ऐसा ही समझते हैं। इस पोस्ट के माध्यम से मैं स्पष्ट कर देना उचित समझता हूँ कि मेरा इस "अवधिया चाचा" से दूर-दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं है। अभी मेरे इतने बुरे दिन नहीं आये हैं कि मुझे कोई छद्मनाम रखना पड़े और मेरा विश्वास है कि कभी मेरे बुरे दिन आयेंगे भी नहीं। मैं तो किसी भी बात को खुल्लमखुल्ला कहने में ही विश्वास रखता हूँ, नाम बदल कर परोक्ष रूप से कुछ कहना मेरी आदत नहीं है। अतः बन्धुओं! यदि आपको भी इस प्रकार की भ्रान्ति है तो आशा करता हूँ कि इस पोस्ट को पढ़ने के अपनी इस भ्रान्ति को दिल से निकाल देंगे।

यह तो हुआ स्पष्टीकरण।

अब आते हैं उस बात पर जिसे मैं आज अपने पोस्ट में बताना चाहता था। आप हिन्दी के अनेक ऐसे शब्दों को जानते होंगे जिसके अन्त में 'ज' या 'जा' आता है, जैसे कि पंकज, नीरज, गिरिजा, तनुजा इत्यादि।

तो क्या है यह 'ज'? वास्तव में 'ज' एक प्रत्यय है। जब किसी शब्द के अन्त में एक या एक से अधिक अक्षरों को जोड़कर एक नया शब्द बना दिया जाता है तो अन्त में जोड़े गये अक्षरों को प्रत्यय कहते हैं। जैसे कि "प्राचीन" शब्द के अन्त में 'तम' लगा दें तो नया शब्द "प्राचीनतम" बन जाता है।

तो अन्त में लगने वाले ज प्रत्यय का अर्थ क्या होता है?

'ज' प्रत्यय संस्कृत के "जायते" शब्द से बना है और इसका अर्थ होता है जन्म लेना। जिसने 'पंक' अर्थात 'कीचड़' से जन्म लिया वह 'पंकज' याने कि 'कमल'। जिसने 'गिरि' अर्थात् 'पर्वत' से जन्म लिया वह 'गिरिजा' याने कि 'पार्वती'।

'ज' प्रत्यय वाले शब्दों में "द्विज" एक विशिष्ट शब्द है। 'द्वि' अर्थात दो बार तथा "द्विज" याने कि "जिसने दो बार जन्म लिया"। द्विज ब्राह्मण को कहते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों का पहला जन्म माता के गर्भ से होता है और दूसरा जन्म उपनयन संस्कार होने पर होता है। द्विज पक्षियों को भी कहते हैं क्योंकि पक्षी का एक बार जन्म अण्डे के रूप में होता है और दूसरी बार पक्षी के रूप में।

अब जब आपने प्रत्यय को जान लिया है तो उपसर्ग को भी जान लें। उपसर्ग प्रत्यय का ठीक उलटा होता है। जब किसी शब्द के आरम्भ में एक या एक से अधिक अक्षरों को जोड़कर एक नया शब्द बना दिया जाता है तो आरम्भ में जोड़े गये अक्षरों को उपसर्ग कहते हैं। जैसे कि "प्रभात" के पहले 'सु' जोड़ दिया तो नया शब्द बन गया "सुप्रभात"।

चलते-चलते

इमरजेंसी के दिनों में ऑफिस के अटैन्डेन्स रजिस्टर में देर से ऑफिस आने का कारण बताने के लिये एक कॉलम और बनाया गया था। जो भी देर से आता वह देर होने का कारण भी लिखता था जैसे कि रास्ते में सायकल पंचर हो गई, ट्रैफिक जाम में फँस गया आदि। शुरू-शुरू में तो हर आदमी अपने-अपने देर से आने का कारण लिखता था पर कुछ महीने बीत जाने पर कुछ ऐसा रवैया बन गया कि सबसे पहले देर से आने वाला कोई कारण लिख देता था और उसके बाद वाले सिर्फ उसके नीचे यथा (डिटो) का निशान (-do-) बना दिया करते थे।

एक दिन सबसे पहले देर से आने वाले ने ऑफिस में देर से आने का कारण लिखा "मेरी पत्नी ने जुड़वें बच्चों को जन्म दिया" और उसके बाद आने वाले सारे लोगों ने आदत के अनुसार उसके नीचे यथा (डिटो) का निशान (-do-) बना दिया।