Saturday, September 8, 2007

कलंक का अंत 3

- 3 -

अठारह वर्ष का समय बीत गया दिलेर सिंह को गायब हुये।

बम्बई के कालेज का वातावरण रोमांस और चहल-पहल से मुस्कुरा रहा था। कॉलेज-बिल्डिंग के सामने बगीचे में एक नव-युवती के साथ एक एक युवक बातें करता हुआ बैठा था।

"श्यामा, हमें पिताजी से साफ-साफ कह देना चाहिये" युवक ने कहा।

"सतीश, तुम भी बहुत बुद्धू हो। इतना भी नहीं जानते कि मैंने पिताजी से अगर कहा तो वे सुनते ही गुस्से से लाल-पीले होकर मेरा हाथ किसी और के हाथ में दे देंगे। मेरे हाथ पीले हो जावेंगे और तुम हाथ मलते ही रह जावोगे" श्यामा ने मीठी चुटकी ली।

"मैं तो काम की बात कर रहा हूँ और तुम्हें मजाक सूझा है।" सतीश झुँझला कर कहता ही गया, "ऐसा ही था तो मुझे अपनी ओर खींचा क्यों और मेरी ओर खिची क्यों? मैं नहीं जानता था कि हम दोनों के प्रेम के बीच तुम्हारे पिता काँटा बनकर अपनी मूर्खता प्रकट करेंगे।"

"देखो जी, न मेरे पिता मूर्ख हैं और न तुम्हारे पिता ही। इसलिये आज ही घर जाकर तुम अपने पिता से और मैं अपने पिता से साफ-साफ कह दें" श्यामा हँसती हुई बोली।

"कह तो दें पर आगे क्या होगा?" सतीश ने सिर खुजलाते हुये कहा।

"आगे क्या होगा। हम दोनों की शादी। और क्या होगा।" श्यामा ने शरारत भरे स्वर में कहा।
यह तो ठीक है, लेकिन..."

"लेकिन क्या? श्यामा गम्भीर हो गई।

"लेकिन शादी-ब्याह के नियम के अनुसार-"

सतीश की बात काटकर श्यामा तुरन्त बोली, "यही न कि तुम्हारे पिता मेरे पिता के पास लड़की माँगने आवेंगे।"

"नहीं श्यामा, मेरे पिता ऐसा कभी नहीं करेंगे।"

"अच्छा तो मेरे पिता ही तुम्हारे पिता के पास लड़की देने ले लिये आवेंगे। इसमें फर्क ही कौन सा पड़ता है? आखिर हम दोनों के पिता ही तो मिलकर हमारा ब्याह तय करेंगे। अब तो ठीक है न?" कहकर श्यामा मुस्कुराने लगी।

"हाँ, यह ठीक है।" कहते हुये सतीश भी हँसने लगा।

निश्चय यही किया गया कि श्यामा के पिता दूसरे दिन ही सतीश के पिता से मिलें। दोनों उठे। पास ही के एक पौधे से खिला हुआ फूल तोड़कर सतीश ने श्यामा के बालों में खोंस दिया। श्यामा ने भी एक फूल तोड़कर सतीश के कोट में लगा दिया। उन दोनों को ऐसा लग रहा था मानो फूल लमुस्कुरा रहे हों। अपनी भीनी सुगंध से समस्त संसार को बेसुध-से कर रहे हों और उनके जीवन में एक अपूर्व बहार आ गई हो।

- 4 -

पूर्व निश्चित योजना के अनुसार श्यामा ने अपने पिता को सतीश के घर भेजा। जैसे ही वे पहुँचे दरवाजे पर सतीश मिल गया। वह उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाकर अपने पिता को सूचना देने के लिये चला गया।
श्यामा के पिता करमे की एक-एक चीज को ध्यान से देखने लगे। कमरा खूब सजा हुआ था। आधुनिक ढंग के 'फर्नीचर' सुशोभित थे। दीवाल पर कुछ चित्र टंगे थे जो काफी कीमते और कला का उत्कृष्ट नमूना थे। उचित ढंग से सजे हुये 'कोच' थे और एक कोने में पियानो रखा था।
सहसा उनकी नजर छोटी टेबल पर रखे हुये फोटोग्राफ पर पड़ी और अटक कर रह गई। वह सतीश के पिता का चित्र था। नीचे लिखा था - 'भगवानदास'। श्यामा के पिता को बताया गया था कि बम्बई के इने-गने रईसों में से एक भगवानदास ही सतीश के पिता हैं। चित्र को गौर से देखत-देखते श्यामा के पिता के चेहरे का रंग बदलने लगा। पहले वे कुछ गम्भीर हुये। फिर त्यौरियाँ बदलीं, आँखें ऐसी हो गईं मानो चिन्गारियाँ फेंक रही हों किन्तु क्षण भर में ही मुख-मुद्रा संयम के बन्धन में बँध कर सामान्य हो गई।

ठीक इसी समय सतीश के पिता ने कमरे में प्रवेश किया। दरवाजे पर ही वह ऐसा ठिठक गया मानो उसे काठ मार गया हो। दोनों की आँखें एक दूसरे से मिलीं और तभी श्यामा का पिता बोल उठा, " नमस्ते समधी साहब। आपको भगवानदास कहूँ या दिलेर सिंह?"

और सचमुच दिलेर सिंह ही दुनिया की आँखों में डाकू पर अब सतीश के पिता बम्बई का रईस भगवानदास था।

दिलेर सिंह के ओठों पर मुसकान की सरलता झलक उठी और वह बोला, "आपका स्वागत है ठाकुर संग्राम सिंह जी। मैं डाकू दिलेर सिंह भगवानदास के रूप में तुम्हारे सामने हूँ। आप मुझे गिरफ्तार कर सकते हैं।"

और किसी समय दिलेर सिंह को पकड़ने की उमंग में उन्मत्त इंस्पेक्टर संग्राम सिंह श्यामा का पिता था। वह बड़े असमंजस में पड़ गया। उसके सामने दो बातें थीं - पहली यह कि अठारह वर्षों तक गायब रहने के बाद अचानक ही संयोग से मिल जाने वाले दिलेर सिंह को गिरफ्तार कर लेना और दूसरी यह कि अपनी बेटी श्यामा का ब्याह सतीश के साथ कर उसे सदा के लिये आत्मीयता के बन्धन में बाँध लेना। कर्तव्य और पुत्री के प्रति ममता की रस्साकशी के बीच उलझा हुआ संग्राम सिंह विचारों की आँधी में तिनके की तरह उड़ने लगा। उसने सोच विचार कर अपना मार्ग निश्चित किया और बोला, "गिरफ्तारी की बात तो दूर है दिलेर सिंह। यदि तुम चाहो, अर्थात् डाकू दिलेर सिंह चाहे, तो इंस्पेक्टर संग्राम सिंह को अपने घर में अकेला पा कर, जान से मार सकते हो और मैं सदा के लिये तुम्हारे रास्ते से हटाया जा सकता हूँ।"

"किन्तु भगवानदास, सतीश का पिता, ऐसा कभी नहीं करेगा।" दिलेर सिंह ने गम्भीर होकर कहा।
"तो श्यामा का पिता भी अपने होने वाले समधी को कभी गिरफ्तार नहीं कर सकता।" संग्राम सिंह ने कहा।

"देखो संग्राम सिंह, कानून के लिये मुझे अवश्य ही गिरफ्तार कर लो पर सतीश को न मालूम होने पाये कि उसका पिता डाकू है। उसी की नन्ही सी तीन वर्ष की अवस्था ने मुझ में यह परिवर्तन कर दिया जो तुम देख रहे हो। वह डाकू पुत्र होने के कलंक को कभी सहन नहीं कर सकेगा।" कहते-कहते भगवानदास की मुद्रा पर स्पष्ट झलकने लगा कि उसमें समाकर डाकू दिलेर सिंह अब नया और उज्वल जीवन पा चुका है।

"नहीं दिलेर सिंह मैं तुम्हे गिरफ्तार नहीं करूँगा।"

"क्या इससे तुम्हें कलंक नहीं लगेगा? क्या तुम स्वयं कानून भंग नहीं करोगे?" दिलेर सिंह ने आश्चर्य से पूछा।

"नहीं लगेगा। दिलेर सिंह की फाइल एक जमाने से बंद हो चुकी है और इस संसार में बहुत से लोगों की शक्लें एक दूसरे से मिलती हैं। फिर कानून अन्धा और कठोर होता है, उसे मनुष्य हृदय की भावनाओं के चढ़ाव-उतार से कोई सरोकार नहीं। कानून कभी नहीं देखेगा कि तुम क्या थे, किस परिस्थिति में डाकू बने और अब क्या हो।"

दूसरे ही क्षण दिलेर सिंह और संग्राम सिंह एक दूसरे से गले मिल रहे थे। उनकी आँखें प्रेम के आँसुओं से गीली थीं। जान पड़ता था कि डाकू कानून का नहीं अपितु दो पिता हृदय की कोमलता एक दूसरे का आलिंगन कर रही थीं।

सतीश और श्यामा का ब्याह हो गया। किसी पर भी कोई अशुभ छाया नहीं पड़ी। कलंक का अन्त हो चुका था।

Friday, September 7, 2007

कलंक का अंत - 2

रचयिता : स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया

- 2 -

खोह के आन्तरिक भाग में गुफा-द्वार की ओर से छन-छन कर प्रकाश बिखर रहा था। ऊबड़-खाबड़ दीवार पर अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र टंगे थे। उन भीषण आयुधों को देखकर दर्शकों के स्मृति-पटल पर वाल्मीकि का पूर्व जीवन साकार हो उठता था। एक ओर अधखुली आलमारी में से लूट का वैभव झाँक रहा था। दूसरी ओर दूध-सी श्वेत शय्या पर पूर्व परिचिति बालक निद्रावस्था में भी मुस्कुराता-सा सो रहा था। पलंग के पास ही एक बहुमूल्य कुर्सी पर गम्भीर मुद्रा में दिलेर सिंह विचार-मग्न बैठा था।
इस गुफा में दिलेर सिंह ने अपना अड्डा बना रखा था। इस समय उसकी आँखों में विभिन्न भाव उठते-मिटते जा रहे थे। भावों के उतार-चढ़ाव में उसकी मुद्रा कभी गम्भीर, कभी क्रोध से विकराल और कभी घृणा से परिपूर्ण हो जाती थी: मस्तिष्क के अचेतन कक्ष से एक-एक कर उसकी स्मृतियाँ अर्द्धचेतन कक्ष के मार्ग में से होकर चेतन कक्ष में साकार होती जा रही थीं। डाकू बनने से पहले कितना सम्पन्न था दिलेर सिंह और उसका परिवार! पत्नी भी थी और फूल सा नन्हा सा बच्चा। किन्तु-

एक दिन की भयानक रात.........!

रात काली चादर में सिमट कर मौत के सन्नाटे में सो रही थी। तारे अपने झिलमिलाते प्रकाश से रात्रि के भीषण अन्धकार को चीर देने का निष्फल प्रयास कर रहे थे। समस्त संसार प्राण-हीन-सा हो रहा था। दिलेर सिंह पत्नी सहित अपने घर के एक कमरे में चिन्ता-ग्रस्त व्यग्र होकर जाग रहा था। उसके बच्चे की तबीयत अनमनी थी। नींद में भी उसकी अशांति करवटें ले रही थी। सहसा बच्चा हृदय विदारक ध्वनि से रो उठा - रो क्या उठा, कराह ही रहा था। दिलेर सिंह - आज का डाकू और तब का सौजन्य-सुसज्जित सम्भ्रान्त जमींदार - शिशु को उठा, गोद में ले कमरे में इधर-उधर टहलने लगा। उसकी पत्नी आँखों से चुपचाप आँसू बहाती हुई व्याकुल बैठी थी। बच्चे की बेचैन बीमारी उसे अधीर कर रही थी।

धम्म, धम्म, धम्म

तीन नकाबपोश डाकुओं ने खिड़की में से कूद कर कमरे में प्रवेश किया। उनकी पस्तौल की नोक दिलेर सिंह के वक्ष पर थी।

"जो कुछ है वह सब दे दो। सुना है कि तुम इलाके में सबसे बड़े अमीर हो-" डाकुओं में से एक ने कहा।

दिलेर सिंह दिलेर था। डाकुओं की चुनौती पर वह आग-बबूला हो गया। वह अकेले ही तीनों डाकुओं के लिये पर्याप्त था किन्तु परिस्थिति कुछ नाजुक थी। उसके हाथ में उसका फूल-सा नन्हा बीमार बच्चा था, पलंग पर भयभीत थरथराती हुई उसकी पत्नी घबराहट में खोई जा रही थी। वह स्वयं तीन-तीन डाकुओं से घिरा था। फिर भी उसका राजपूती खून उबल पड़ा। शेर की तरह गरज उठा वह, "दुष्टों, शेर की माँद में घुस कर उसे ललकार रहे हो। ठहरो, अभी तुम्हारी लाशें तड़पती नजर आयेंगी।" और उन डाकुओं को पता ही नहीं चल पाया कि कब उसने उछल कर पलंग के पास जा कर बच्चे को पत्नी को सौंपा कैसे दीवार पर टंगी बन्दूक को निकाल कर एक डाकू को धराशायी भी कर दिया। अपने एक साथी की मृत्यु के साथ ही शेष दोनो डाकू सतर्क हो गये। उनमें से एक ने दिलेर सिंह की पत्नी पर गोली चलाई। वह ढेर हो गई। बच्चा उसके हाथ से छूटकर पलंग के पास ही गिर पड़ा। जब तक दिलेर सिंह गोली चलाता तब तक दूसरे डाकू ने बच्चे को कुचल कर रौंद किया। दिलेर सिंह की आँखों के आगे अन्धेरा छा गया। उसके हाथ से पिस्तौल छूट गई और चीख मार कर बेहोश गिर पड़ा। डाकुओं ने अपना काम किया। तिजोरी तोड़ी, गहने और नगद रुपये निकाले और चम्पत हो गये।

जीवन की मुस्कुराती लहरों पर मौत की भयानक शांति छा गई। घर उजड़ गया। चांद सदा के लिये मेघ में छिप गया। आँधी का झोंका महल गिराकर शांत हो गया। सचेत होने पर दिलेर सिंह वह दिलेर सिंह नहीं रहा। उसने पत्नी और बच्चे की लाश तक की चिन्ता न की। उन्हें ज्यों का त्यों छोड़कर वह बीहड़ वन में एक ओर चला गया। उसके हृदय की कोमलता को नैराश्य-जनित कठोरता ने समूल उखाड़ फेंका था।

इसके कुछ दिन बाद ही आसपास के प्रदेश में आतंक छा गया। सम्पन्न दिलेर सिंह अब डाकू दिलेर सिंह था। उसे आततायी डाकू अपना काल समझते थे, धनवान कट्टर शत्रु मानते थे और गरीब जनता उसे भगवान से भी अधिक श्रद्धा का पात्र समझती थी। डाकुओं से वह अपना बदला लेता, पूँजीपतयों से वह घृणा करता और निर्धनों को अपने प्राणों से भी बढ़कर मानते हुये उनकी सहायता करता था - मानो वह आततायी डाकुओं के साथ वह निर्मम पूँजीपतियों का सर्वनाश कर अपनी पत्नी और नन्हे बच्चे की आत्मा की शांति के लिये महायज्ञ कर रहा हो जिसमें देवताओं के स्थान पर जीते-जागते दरिद्र नारायण को यज्ञ भाग दिया जाता हो। उसकी ही विचार-धारा के थोड़े से और लोग उसके साथ आ मिले थे जिससे छोटी सी टोली बन गई थी। दिलेर सिंह - सरकारी बुद्धि के अनुसार डाकू दिलेर सिंह - को जिंदा या मुर्दा पकड़ने में सरकार ने कोई कसर बाकी न रखी। काँटे से काँटा निकालने की परिपाटी के अनुसार संग्राम सिंह, सब-इंसपेक्टर, को दिलेर सिंह के पीछे लगा दिया गया था। वह भी राजपूत और सरकार का वफादार नौकर था। संग्राम सिंह ने अनेक उपाय किये किन्तु दिलेर सिंह ने सभी को निष्फल कर दिया।

दिलेर सिंह के विचारों खोया हुआ ही था कि बच्चे की नींद टूटी। उसके रोने से दिलेर सिंह चौंक उठा। उसे ऐसा लगा मानो बरसों पहले का उसका वही अपना बच्चा रो रहा हो। अतीत जीवन के विचारों के संसार को छोड़ कर वह वर्तमान में आ पहुँचा। दौड़कर उसने बच्चे को हृदय से लगा लिया और स्वयं बालक बन कर उसे दुलारने लगा। गाड़ी में मिले उस बालक ने दिलेर सिंह की कोमल भावनाओं में फिर से जागृति भर दी थी।

कुछ ही काल बाद उस मातृहीन बालक के लिये दिलेर सिंह और दिलेर सिंह के लिये वह बालक सभी कुछ बन कर रह गये।

और एक रात बच्चे को लेकर दिलेर सिंह चुपचाप बिना किसी से कुछ कहे-सुने अपना अड्डा छोड़कर कहीं चला गया। साथ में कीमती वस्तुयें और आवश्यकता से अधिक धन भी उसने साथ ले लिया था। उसकी टोली निराधार होकर टूट गई। साथी इधर-उधर होकर जीविका के अन्य साधनों में लग गये।
अब उस इलाके में न तो "गाड़ियाँ एकदम रोक दो" की कड़कती कर्कश आवाज ही सुनाई देती है और न किसी प्रकार का मार्ग भय ही है। लोग पैदल, छकड़ों और गाड़ियों में बेखटके आते-जाते हैं। सरकार की परेशानी मिट गई है। सब-इंस्पेक्टर संग्राम सिंह दिलेर सिंह के एकाएक गायब हो जाने से हाथ मल कर रह गया। लोगों में तरह-तरह की अफवाह फैल गई। कोई कहता दिलेर सिंह को शेर ने खा डाला, तो कोई कहता वह साधु हो गया।

(कल आखरी किश्त)

Thursday, September 6, 2007

कलंक का अंत

(रचयिता श्री हरिप्रसाद अवधिया)

- 1 -

"गाड़ियाँ एकदम रोक दो।"

गम्भीर और कड़कती हुई आवाज चांदनी रात के वक्षस्थल पर थिरक उठी! समस्त वन-प्रांत गूँज उठा। वह ऊँची-नीची पथरीली पहाड़ी काँप सी गई! पर्वत-मालाओं में गम्भीरतम प्रतिध्वनि हुई!

पहाड़ी मार्ग के दोनों ओर घनघोर घने जंगल थे। विशाल वृक्ष स्तब्ध-से खड़े थे। उनके चौड़े पत्तों पर चन्द्र देव की स्निग्ध मुसकान मचल रही थी। सामने की पहाड़ी में बड़ी-सी खोह मुँह बाये वन को आतंकित कर रही थी। पहाड़ी मार्ग मालाकार पर्वत की परिक्रमा करता हुआ-सा सुदूर तक दृष्टिगत होकर झुरमुट में विलीन सा हो गया था। वन की बीहड़ता का सुनसान मृत्यु की विभीषिका से भी कराल हो रहा था! निशीथ के एकाकीपन में उस वन-खण्ड में जीवन का सर्वथा अभाव सा प्रतीत हो रहा था किन्तु दो बैलगाड़ियाँ मन्थर गति से चली जा रही थीं। उनकी गति शव-यात्रा की भाँति भयावह, सतर्क और गम्भीर थी! गाड़ीवान सतर्क थे कि गाड़ियों की घर्षण ध्वनि अल्पतम ही हो। सतर्क नेत्रों तथा बोझिल हृदय से वे इधर-उधर देख लिया करते थे किन्तु सभी प्रकार की सतर्कता का आश्रय निरर्थक सिद्ध हुआ। जिस बात का डर था वही हो गई। किसी के कर्कश स्वर से वन गूँज उठा- "गाड़ियाँ एकदम रोक दो।" किन्तु प्रभाव कुछ भी न पड़ा। गाड़ियाँ बेतहाशा दौड़ाई जाने लगीं। बैल जी तोड़ कर भागे। गाड़ियाँ असह्य रूप से खड़खड़ाने लगीं। गाड़ीवान बैलों पर कोड़े मार रहे थे। गाड़ी के भीतर के व्यक्ति भी सावधान हो गये थे। हाँफते हुये बैलों के पैरों में पंख लग गये थे।

"गाड़ियाँ रोको नहीं तो पछताओगे।"

फिर वही कड़कती हुई आवाज और वही निरर्थक प्रभाव! गाड़ियों की गति अधिकतम थी। अधिक बढ़ा हुआ हुआ भय कभी-कभी साहस को निःसीम कर देने में सफल होता है। गाड़ियों का बेतहाशा भागना भय-जनित साहस का मूर्तिमान स्वरूप ही था।

ये गाड़ियाँ किस हालत से भी आगे नहीं बढ़ाई जा सकतीं-" कहते-कहते कर्कश गर्जन से गाड़ियों को रोकने का आदेश देने वाले व्यक्ति और उसके साथियों ने खोह द्वार के आसपास वाले वृक्षों की घनी छाया में फैले अन्धकार में से बन्दूक दाग दी।

'धाँय, धाँय, धाँय'

निर्मम रक्त की प्यासी ध्वनि ने वन को कम्पित कर दिया! गोलियों के साथ-साथ उनकी बन्दूकें चिनगारियां उगलने लगीं। उधर गाड़ियाँ रुक गईं और गोलियों का उत्तर गोलियों से दिया जाने लगा। दोनों ओर से गोलियों की बौछारें हो रही थीं। घायल कराह-कराह कर दम तोड़ रहे थे। बैलों ने रस्सियाँ तोड़ डालीं और दूर जा भागे। इधर बन्दूकें दागी ही जा रही थीं और उधर गाड़ी वालों की गोलियाँ शांत हो चुकी थी। यह देखकर इधर वालों ने भी गोली चलाना बन्द कर दिया और पेड़ों की छाया से बाहर निकल कर सिंह की चाल से गाड़ियों की ओर कदम बढ़ाये।

उन लोगों में एक हृष्ट-पुष्ट प्रौढ़ व्यक्ति था किन्तु उसकी प्रौढ़ता भी युवक की सी शक्ति बिखेर रही थी। उसके बल में बाल भर भी बल नहीं पड़ने पाया था। विशाल वक्ष, रोबीला चेहरा, ऐंठी हुई मूछें, चमकीली आँखें, चौड़ा ललाट था उसका। विजय गर्व उसके ओंठों पर मुस्कुरा रहा था। कंधे पर बन्दूकें रखी हुई उसकी टोली दोनो बैलगाड़ियों के पास पहुँची। उसने साथियों से गरज कर कहा, "पहले मुझे देख लेने दो। तब तक कोई कुछ न करे।" फिर उसने चमकती आँखों से देखना प्रारम्भ किया। गाड़ियों के पास पड़ी हुई रक्तरंजित लाशें ऐश्वर्य की चमक बिखेर रही थीं। सभी मृत व्यक्ति धनी जान पड़ते थे। उनके शरीरों पर बेशकीमती कपड़े थे, हाथों में सोने की चेन वाली कलाई घड़ियाँ और उँगलियों में हीरे की अँगूठियाँ थीं। सबके सब मौत की नींद सो रहे थे।

"दिलेर सिंह से मुकाबला करने चले थे। इनको मौत ही इन्हें यहाँ ले आई थी--" कहते हुये वह व्यक्ति मुर्दों को देखने में फिर व्यस्त हो गया। दिलेर सिंह ही उसका नाम था। वह अपनी उस टोली का सरदार था। आसपास के इलाके में डाकू दिलेर सिंह से लोग काल की भाँति डरते थे। साथ ही दिलेर सिंह ने अपने साथियों को भी अनुमति दे दी और वे कीमती वस्तुयें बटोरने में लग गये।

दिलेर सिंह तीन लाशों को देखने के बाद चौथी और अन्तिम लाश के पास पहुँचा। वह एक सुन्दर युवती की लाश थी जिसके घुंघराले बाल, कजरारी आँखें, गोल कपोल और मोहक चिबुक पर मौत की भयानकता गहरी होती जा रही थी। उसके हाथ अब भी बन्दूक को जकड़े हुये थे। स्पष्ट था कि गोली चलाने में वह भी तीनों पुरुषों का साथ दे रही थी और अन्त में उसे भी काल के गाल में समाना पड़ा था।

मृत व्यक्तियों को छोड़कर दिलेर सिंह एक गाड़ी के भीतर घुसा। उसमें दो 'ट्रंक' रखे थे। एक ट्रंक के ऊपर ढाई तीन वर्ष का बालक मूर्छित पड़ा था। दिलेर सिंह ने लपक कर उसे उठा लिया और हृदय से लगाकर बार-बार उसका मुख चूमने लगा। वह भूल सा गया कि बालक बेसुध है। अचानक उसकी बेसुधी की याद आते ही वह उसे लेकर पास ही कल-कल कर बहते हुये झरने के पास गया और शीतल जल के छीटों से उसकी मूर्छा दूर करने का प्रयत्न करने लगा। झरने के चारों ओर स्निग्ध चांदनी में इठलाती हुई प्रकृति मुस्कुरा रही थी। चारों ओर से उन झरने को घेरने वाली पर्वत माला के सन्नाटे में जीवन स्पन्दन का आभास हो रहा था। निर्झर की संगीत-लहरी नव-जीवन का सन्देश दे रही थी। बालक ने धीरे से आँखें खोलीं, चेतना का पुनरागमन हुआ और जीवन लगराने लगा। दिलेर सिंह का दिल खुशी से उछलने लगा। कौन कह सकता था कि कठोर मुद्रा वाले डाकू दिलेर सिंह का हृदय वात्सल्य की कोमलता से लहराता हुआ होगा। चेतना प्राप्त होते ही बालक के कंठ से आकुल स्वर निकला- "माँ!" और अपने आपको अपरिचित की भुजाओं में पाकर वह रोने लगा। दिलेर सिंह उसे चुप कराने में अपने हृदय की कोमलता उंडेल रहा था पर बालक चुप नहीं हुआ। उसे सहलाते हुये दिलेर सिंह उसे उस महिला की लाश के पास ले आया। माता को देखते ही बच्चा चुप होकर उसकी ओर लपकते हुये उतरने का प्रयत्न करने लगा। दिलेर सिंह ने उसे संभाल कर पुचकारते हुये कहा, "बेटा, तेरी माँ सो रही है। चल मेरे साथ। फिर उसके पास आवेंगे। हम तुम्हें दूध देंगे, मिठाई देंगे।"

बालक प्रेम-पूर्ण आश्वासन पाकर बीच-बीच में सिसकियाँ लेते हुये चुप हो गया। उसे क्या पता था कि उसकी जननी चिर निद्रा में निमग्न हो गई है। दिलेर सिंह बालक को लेकर धीरे-धीरे गुफा की ओर चला जा रहा था। उसके साथी स्तब्ध, आश्चर्यचकित किन्तु बालक की भोली अनजान छवि के कारण मुग्ध और प्रसन्न थे।

नभ में धुंघले प्रकाश की मोहक छाया बिखर रही थी। पूर्व में उषा की मुसकान अठखेलियाँ करने लगी थी। कंकुम-सी उसकी लाल साड़ी फहरा रही थी। पवन की सुगन्धित श्वाँस से कलियाँ अलसाकर अधमुंदी आँखों से देख रही थीं। दिलेर सिंह के हृदय में उषा की लालिमा सी आनन्द-लहरियाँ हिलोरें ले रही थीं, फूल की सुगन्ध-सी स्निग्ध भावना थिरक उठी थी। वह बार-बार बालक का गुलाब-सा मुख चूम रहा था।

(क्रमशः)

Wednesday, September 5, 2007

शबरी के बेर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित खण्ड-काव्य)

भारत के दक्षिण भागों में,
फैले थे बीहड़ वन-खण्ड।
दण्डक-वन कहलाते थे वे,
जीव-जन्तु थे वहाँ प्रचण्ड॥1॥

छा कर पत्तों की कुटी वहाँ,
ऋषि-मुनि सुख से रहते थे।
भक्ति तपस्या परमेश्वर की,
निशिदिन सब मिल करते थे॥2॥

बुढ़िया भिल्लिनि भी एक वहाँ,
मुनियों के सँग रहती थी।
बेच-बेच कर लकड़ी वन की,
निज-निर्वाह वह करती थी॥3॥

बतला सकता है क्या कोई,
क्या था उस भिल्लिनि का नाम?
सुनो उसे शबरी कहते थे,
जपती सदा राम का नाम॥4॥

शूद्रा थी, पर भक्त बड़ी थी,
बूढ़ी थी और बाल पके थे।
लटक रही थी मुख पर झुर्री,
युग कपोल भी पिचके थे॥5॥

आश्रम के सब बच्चे उसको,
"नानी-नानी" कहते थे।
बड़े प्रेम से उसकी बातें,
हँसी-खुशी से सुनते थे॥6॥

बूढ़ी होने पर भी उसकी,
ताकत ज्यों की त्यों ही थी।
इसीलिये कामों में उसके,
बिजली की-सी फुर्ती थी॥7॥

सुना एक दिन जब शबरी ने,
'वन में आवेंगे श्री राम।
मुनयों के सँग उसको भी प्रभु,
दर्शन देंगे ललित ललाम'॥8॥

उस दिन से गाया करती थी,
"मेरे घर आवेंगे राम।
सँग में सीता लक्ष्मण होंगे,
साधु वेश में अति अभिराम॥9॥

देखूँगी मैं उनको छक कर,
जन्म सुफल निज जानूंगी।
पूजा करके भोग लगा कर,
पद रज ले सुख मानूंगी"॥10॥

लगी इकट्ठा करने तब से,
वन के मीठे-मीठे बेर।
बड़े प्रेम से प्रभु को देने,
बड़े-बड़े वे सुन्दर बेर॥11॥

बेर तोड़ती थी पेड़ों से,
फिर करती थी सोच-विचार।
"मीठे होंगे या खट्टे ये,
कैसे हो मुझको इतबार?"॥12॥

एक युक्ति झट सोची उसने,
'चख कर क्यों न करूँ पहचान।
चखने से से ही हो सकता है,
खट्टे और मीठे का ज्ञान'॥13॥

बस! फिर क्या था उन बेरों को,
चख कर रखना शुरू किया।
रक्खा मीठे बेरों को ही,
खट्टे को सब फेंक दिया॥14॥

इधर अयोध्या में दशरथ ने,
सोचा-"अब मैं वृद्ध हुआ।
राज्य सौंप दूँ रामचन्द्र को,"
सोच नृपति मन-मग्न हुआ॥15॥

किन्तु कैकेयी ने तिकड़म कर,
माँगे दशरथ से दो वर।
पहले में-'राजा भरत बने-
राज-दण्ड को धारण कर'॥16॥

फिर माँगा वरदान दूसरा-
'निज राज-वेश को तज कर-
राम चला जावे दण्डक वन,
साधु-वेश को धारण कर'॥17॥

लक्ष्मण-सीता सहित राम तब,
पूज्य पिता की आज्ञा से।
रोते सबको त्याग चले वन,
पावन पुरी अयोध्या से॥18॥

छाया गहरा शोक अवध में,
सुख को दुःख ने जीत लिया।
अन्धकार ने पुर-प्रकाश पर,
महा भयानक राज्य किया॥19॥

पर्ण कुटी से सीता जी का,
रावण ने अपहरण किया।
चुरा दुष्ट ने वैदेही को,
प्रभु को दारुण कष्ट दिया॥20॥

लक्ष्मण के सँग सीता जी के,
अन्वेषण में राम चले।
कण्टक-मय पथरीले पथ पर,
सहते दोनों घाम चले॥21॥

समाचार शबरी ने पाये,
आश्रम ढिग आये हैं राम,
दौड़ी आई मारग में झट,
तजकर आश्रम के सब काम॥22॥

लिपट गई पैरों से प्रभु के,
हाँफ रही थी वह प्रति क्षण।
आँसू नयनों से बहते थे,
डूब रहा था सुख में मन॥23॥

उठा लिया झट उसे राम ने,
और अभय वरदान दिया।
रामचन्द्र ने पतित जनों का,
ऐसा पावन मान किया॥24॥

बोली प्रभु से गद् गद होकर,
"प्रभु मैं भिल्लिनि हूँ अति नीच।
किन्तु पुण्य से पूर्व जन्म के,
रहती हूँ मुनियों के बीच॥25॥

दर्शन की आशा से मैंने,
अब तक घट में प्राण रखे।
धन्य-धन्य नयनों को मेरे,
जिनने सुन्दर रूप लखे॥26॥

मेरे आश्रम तक न चलोगे,
क्या जगदीश्वर दीनानाथ?
चल कर पावन कर दो मुझको,
अनुज लखन को लेकर साथ"॥27॥

विहँसे प्रभु लक्ष्मण को लख कर,
लक्ष्मण भी तब मुसकाये।
प्रेम भरे, मीठे, शबरी के,
वचन राम को अति भाये॥28॥

शबरी ले सानन्द राम को,
आ पहुँची निज आश्रम में।
हुआ सफल था जीवन उसका,
मुक्ति मिली थी जीवन में॥29॥

पद-प्रक्षालन कर दोनों के,
बैठा कुश के आसन में।
पूजा की जी भर कर उसने,
ललक-ललक छिन-छिन मन में॥30॥

बोली, "भोग लगाने को मैं,
लेकर आती हूँ कुछ बेर।
चले न जाना, हाँ, देखो तुम,
यदि हो जावे मुझको देर॥31॥

इतना कह कक्ष दूसरे में,
गई तुरत हँसती-हँसती।
और बेर की हाँड़ी लेकर,
आई झट गरती पड़ती॥32॥

पत्तल पर रख दिये बेर वे,
और लगी कहने शबरी-
"मीठे हैं सब खा लो इनको,
आवेदन करती शबरी॥33॥

बोली वह फिर बड़े गर्व से,
"खट्टा इनमें एक नहीं।
देख चुकी हूँ चख कर इनको,
मेरा रहा विवेक सही"॥34॥

खाये राघव ने बेर सभी,
प्रेम-भाव से सने हुये।
आग्रह कर-कर रही खिलाती,
वश में उसके राम हुये॥35॥

खाते-खाते मुसकाते थे,
करते बेरों का गुण-गान।
कैसे मीठे हैं सुन्दर भी,
मन के भावों के हैं दान॥36॥

सौभाग्य उदित था शबरी का,
मिला रंक को सुर-तरु था।
ईश्वर ही वश में थे उसके,
खेल भक्ति का अनुपम था॥37॥

जीवन सार्थक किया राम ने,
नीच भीलनी शबरी का।
मिटे कष्ट सब जन्म-मरण के,
दिव्य रूप था शबरी का॥38॥

बड़े प्रेम से खाते थे प्रभु,
करते सीता जी की याद।
भाव भरे जूठे बेरों में,
मिला उन्हें अमृत का स्वाद॥39॥

खिला-खिला कर बेर उन्हें वह,
फूली नहीं समाती थी।
देख-देख मुख-चन्द्र राम का,
बनी चकोरी जाती थी॥40॥

Tuesday, September 4, 2007

भूमिका

स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित छत्तीसगढ़ का प्रथम आँचलिक उपन्यास 'धान के देश में' के लिये श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी लिखित भूमिका

कुछ वर्षों से छत्तीसगढ़ में हिंदी साहित्य की अच्छी श्री वृद्धि हो रही है। कितने ही तरुण साहित्यकार हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अवतीर्ण हो रहे हैं। यह सच है कि अधिकांश तरुण साहित्यकारों की प्रवृति गद्य रचना की अपेक्षा पद्य रचना की ओर अधिक है। गद्य रचना में भी कथाओं की रचना की ओर अधिकांश नवयुवक जितना ध्यान देते हैं उतना गंभीर विषयों की विवेचना की ओर नहीं। उसका कारण भी है, तारुण्य में कल्पना की जो प्रखरता रहति है वह प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था में नहीं रह जाती। सभी तरुण कल्पना का एक मायाजगत निर्मित कर प्रेम और सौन्दर्य की अनुभूति के लिये व्यग्र रहते हैं। यही कारण है कि अपने प्रारंभिक काल में कितने ही नवयुवक कवता और कहानी की रचना में विशेष उत्साह प्रदर्शित करते हैं। कुछ समय के बाद जब वे संसार के कर्मक्षेत्र में प्रविष्ट होते हैं तब उनमें से अधिकांश का यह उत्साह लुप्त सा हो जाता है। कुछ लोग यह समझते हैं कि ऐसे लेखक जब साहित्य के क्षेत्र से पृथक हो जाते हैं तब साहित्य में एक गतिरोध सा उत्पन्न हो जाता है। पर ऐसी बात नहीं है। जिन्हें साहित्य के प्रति अनुराग होता है उन्हें किसी भी परिस्थिति में रचना के प्रति विरक्ति नहीं होती। महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर जो लोग साहित्य के क्षेत्र में आते हैं उनकी अभीष्ट-सिद्धि न होने पर विरक्ति होना अस्वाभाविक नहीं। आजकल साहित्य के क्षेत्र में भी राजनीति के क्षेत्र की तरह प्रचार की भावना बढ़ती जा रही है। लोग दलबद्ध हो कर प्रचार कार्य करते हैं। उस प्रचार के भीतर एक विशेष महत्वाकांक्षा ही काम कर रही है। पर सच पूछिये तो इससे साहित्य के निर्माण में विशेष लाभ नहीं होता। हम लोग हो-हल्ला मचा कर कुछ समय के लिये कुछ लोगों को भले ही प्रभावित कर लें परन्तु अंत में हम लोगों का यह प्रचार कार्य निष्फल ही होता है। मैंने स्वयं अपने इस जीवनकाल में कितने ही कवियों और कलाकारों का उदय देखा और उनका अस्त भी। अतएव महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर जो लोग साहित्य के क्षेत्र में सस्ती कीर्ति पाने का प्रयत्न करते हैं, उन्हें अंत में हतोत्साह होना पड़ता है। सच्चे साहित्यकारों के लिये जो बात सबसे अधिक मुख्य है वह है उनका अंतःसुख। उसी अंतःसुख के कारण वे साहित्य के क्षेत्र में यश और अपयश की चिंता न कर लिखते ही जाते हैं। जिनमें विशेष रचना-कौशल रहता है उन्हें सफलता भी मिल जाती है। साहित्य के इतिहास में यह देखा गया है कि विषम परिस्थितियों में रह कर जिन साहित्यकारों ने अपूर्व ग्रंथों की रचना की वैसी रचनायें उन्हीं के द्वारा सुख-सुविधा और विलास की परिस्थिति में रह कर नहीं लिखी गई। इसलिये साहित्य को मैं विशुद्ध आनंद का फल मानता हूँ। वही आनंद साहित्यकारों को सच्ची प्रेरणा देता है।

मैं उपन्यासों का प्रेमी पाठक हूँ। बाल्यकाल से ही उपन्यास पढ़ता चला आ रहा हूँ। वृद्धावस्था में हम सब लोगों की अपनी एक विशेष रुचि हो जाती है। फिर भी उपन्यासों में कथा रस का उपभोग करने की क्षमता रहती है। हम उपन्यासों को पढ़ कर उनके माया जगत में ऐसे लीन हो जाते हैं कि हम सचमुच आत्म विस्मृत हो जाते हैं। फिर भी यह सच है कि विशेष स्थिति में विशेष उपन्यास रुचिकर होते हैं। यह सर्वथा सम्भव है कि एक अवस्था में जिन कथाओं को पढ़कर हमें विशेष आनंद हुआ है, उन्हीं से अन्य अवस्था में विरक्ति भी हो सकती है। कुछ ऐसी भी कथायें होती हैं जिन्हें हम कवल एक बार पढ़कर फेंक देते हैं, उन्हें फिर पढ़ने की इच्छा नहीं होती। ऐसे भी उपन्यास होते हैं जिन्हें बार-बार पढ़ने से भी हमें विरक्ति नहीं होती। ऐसे कितने ही उपन्यास हैं जिन्हें मैं पच्चीसों बार पढ़ चुका हूँ और जब मुझे काम करने की व्यग्रता नहीं रहती तब उन्हीं उपन्यासों के द्वारा मुझे साहित्य का विशुद्ध आनंद प्राप्त हो जाता है।

वर्तमान युग छत्तीसगढ़ के लिये नव-जागरण-काल है। अभी तक हिंदी साहित्य-जगत में छत्तीसगढ़ का स्थान उपेक्षणीय-सा था। यह सच है कि पण्डित माधवराव सप्रे, पण्डित लोचनप्रसाद पाण्डेय, पण्डित बनमालीप्रसाद शुक्ल, पण्डित मुकुटधर पाण्डेय तथा बाबू मावली प्रसाद जी ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अच्छी ख्याति अर्जित की परन्तु अभी तक उनकी रचनाओं का कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका है। छत्तीसगढ़ में प्रकाशन संस्था का अभाव होने के कारण कितने ही पुराने लेखकों की भी प्रतिभा के विकास के लिये यथेष्ट अवसर नहीं प्राप्त होते। एक बार एक प्रकाशक ने कहा था कि साहित्य को प्रकाश में लाने वाले हम प्रकाशक हैं। हम लोगों से लेखकों की प्रतिभा प्रकाश में आती है। यह अतिशयोक्ति नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में प्रकाशन का स्थान उपेक्षणीय नहीं होता। रायपुर में रघुवर प्रसाद पटेरिया जी से जब मेरा परिचय हुआ तब उन्होंने प्रकाशन कार्य करने की इच्छा प्रकट की। मैं उनके साथ बम्बई गया। उस समय केशव बाबू और नर्मदाप्रसाद खरे भी मेरे साथ थे। जिस उद्देश्य से हम लोग बम्बई गये थे वह तो सफल नहीं हुआ परन्तु पटेरिया जी का घर मेरे समान लेखकों के लिये एक आश्रम हो गया। वहीं सुन्दरलाल त्रिपाठी और पण्डित रामदयाल तिवारी जी से विशेष परिचय हुआ। अच्छा प्रकाशक रहने से साहित्यकारों का एक दल अपने आप निर्मित हो जाता है और उस प्रकाशक से उनको प्रेरणा भी मिलती है। मैं यह मानता हूँ कि उसी समय से छत्तीसगढ़ में साहित्य के लिये नव-जागरण-काल आया। उस समय श्री घनश्याम प्रसाद 'श्याम' जी ने भी कम काम नहीं किया। स्वराज्य प्रसाद द्विवेदी ने उसी समय अपनी रचनाओं के द्वारा विशेष कीर्ति अर्जित की। रायपुर में हिंदी साहत्य का विकास क्षिप्र गति से होने लगा। श्री गोविन्दलाल वोरा और मधुकर खेर जी से मैं परिचित हुआ। जब कुछ दिनों के लिये मुझे साप्ताहिक महाकोशल में काम करने का अवसर मिला तब मैं विश्वेन्द्र ठाकुर, श्री नारायण लाल परमा, श्री मनहर चौहान जी से परिचित हुआ। तभी श्री हरिप्रसाद अवधिया जी से मेरा घनिष्ठ सम्बंध हुआ।

हरिप्रसाद अवधिया जी की रचनाओं से मैं पहले ही परिचित हो चुका था यद्यपि मुझे उनका दर्शन करने का सौभाग्य तब हुआ जब मैं महाकोशल में काम करता था। उनका जन्म स्थान रायपुर है। सन् 1918 में उनका जन्म हुआ था। सत्रह वर्ष की अवस्था से ही वे कहानियाँ लिखने लगे। उनकी 'नौ पैसे' शीर्षक कहानी पहली रचना है। वह इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली 'नई कहानियाँ' नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। तब से वे आज तक बराबर लिखते जाते हैं। उनकी रचनायें 'सरस्वती', 'माधुरी', 'विशाल भारत', 'नव भारत' और 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में भी प्रकाशित हुई हैं। सन् 1948 में वे एम.ए. हुये और साहित्य के साथ साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी अवतीर्ण हुये। जब मैंने उनकी रचनायें पढ़ीं तब मैंने उन्हें उपन्यास लिखने के लिये कहा। सच तो यह है कि उस समय जो भी तरुण साहित्यकार मेरे पास आते थे, उन सभी को मैं उपन्यास लिखने के लिये प्रेरित करता था। लमनहर चौहान जी ने मुझको अपना एक उपन्यास दिखलाया। उस छोटी अवस्था में भी उनका रचना-कौशल देखकर मैं विस्मित हो गया। विश्वेन्द्र ठाकुर और परमार जी कहानियाँ लिखा करते थे। उनसे भी मैंने छत्तीसगढ़ के जन-जीवन को लेकर उपन्यास लिखने का आग्रह किया। मुझे सबसे बड़ी प्रसन्नता यह है कि अवधिया जी ने "धान के देश में" नाम देकर पहली बार उपन्यास की रचना की है। उपन्यास रचना में उन्हें कितनी सफलता हुई है इसका निर्णय तो सुविज्ञ आलोचक और मर्मज्ञ पाठक ही करेंगे। अवधिया जी पर मेरा विशेष स्नेह है। अपने स्नेह पात्रों की रचनाओं में हम लोग गुण-दोष की विवेचना नहीं करते। मैं तो यही कहूँगा कि उनकी इस प्रथम कृति से मुझे असन्तोष नहीं हुआ है। मुझे यह आशा भी है कि जब वे अन्य उपन्यास लिखेंगे तो उन्हें उत्तरात्तर अधिक से अधिक सफलता प्राप्त होगी।

मुझे तो सबसे बड़ा हर्ष इस बात पर हुआ कि एक "छत्तीसगढ़ प्रकाशन संस्था" से छत्तीसगढ़ के लेखकों की रचनाओं का प्रकाशन आरम्भ हुआ। मेरी तो कामना यही है कि छत्तीसगढ़ की यह प्रकाशन संस्था छत्तीसगढ़ के लेखकों को प्रकाश में लाने के कार्य में सफल हो। पुस्तकों का जितना ही प्रचार होगा उतना ही अधिक लोक शिक्षा का भी प्रसार होगा। अभी तक रायपुर में कुछ लेखकों ने बड़े उत्साह से अपनी रचनाओं का स्वयं प्रकाशन किया परन्तु उनका यथेष्ट प्रचार नहीं हुआ। साहित्य के विकास में लेखकों के साथ साथ प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं को भी मैं महत्व देता हूँ। इसलिये मैं चाहता हूँ कि इस पुस्तक का विशेष प्रचार हो और छत्तीसगढ़ के लिये यह प्रकाशन कार्य एक वरदान हो।

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
राजनाँदगाँव
शनिवार, चैत्र शुक्ल 2, विक्रम संवत् 2022,
दिनांक 3-04-1965

Monday, September 3, 2007

धान के देश में!

'धान के देश में' मेरे पूज्य पिता स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित छत्तीसगढ़ के जन-जीवन का प्रथम आंचलिक उपन्यास है। इस उपन्यास की भूमिका छत्तीसगढ़ के सुविख्यात साहित्यकार डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी ने लिखी थी।

जब तक पिताजी जीवित रहे, अपनी रचनाओं को अत्यंत सहेज कर रखते रहे किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात् उन रचनाओं का ध्यान किसी ने नहीं रखा और दुर्भाग्यवश उनकी समस्त प्रकाशित रचनायें तथा पांडुलिपियाँ नष्ट हो गईं। नौकरी में बाहर होने का बहाना बनाकर मैं स्वयं को आरोप से नहीं बचाना चाहता, मैं स्वयं अनुभव करता हूँ कि उनकी रचनाओं के नष्ट होने में मेरे अनुजों के साथ ही साथ मेरा भी उनके बराबर ही दोष है। अस्तु, अत्यधिक तलाश करने पर जो भी उनकी कुछ रचनायें मुझे मिल पाई हैं उन्हें इस चिट्ठे में पोस्ट करने का मेरा विचार है।

सर्वप्रथम मैं यहाँ श्री हरिप्रसाद अवधिया जी का संक्षिप्त परिचय दूँगा। उसके बाद डॉ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी लिखित 'धान के देश में' की भूमिका को आप लोगों के समक्ष रखूँगा। फिर बारी बारी से उनकी छोटी रचनायें (खण्डकाव्य, कहानियाँ) को प्रकाशित करूँगा। और अंत में उनके उपन्यास 'धान के देश में' को धारावाहिक रूप से पोस्ट करूँगा।

तो प्रस्तुत है श्री हरिप्रसाद अवधिया जी का संक्षिप्त परिचय

श्री हरिप्रसाद अवधिया जी का जन्म 17/11/1918 को हुआ था। सत्रह वर्ष की अवस्था से ही वे कहानियाँ लिखने लग गये थे। उनकी 'नौ पैसे' शीर्षक कहानी पहली रचना है जो कि इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली 'नई कहानियाँ' नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद से वे लगातार लिखते रहे। उनकी रचनायें 'सरस्वती', 'माधुरी', 'विशाल भारत' 'नव-भारत' और 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में प्रकाशित हुईं। सन् 1948 में उन्होंने हिन्दी में एम.ए. किया और साहित्य के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी अवतीर्ण हुये।

1/04/1998 को वे हम सब को छोड़ कर स्वर्गवासी हो गये।