Saturday, October 16, 2010

यूसुफ मियाँ और शबनम की शादी तय

लेखकः आचार्य चतुरसेन

(इससे पहले की कहानी यहाँ पढ़ें - यूसुफ मियाँ और नवाब की शहज़ादी शबनम)

नाश्ते की तैयारी बड़े ठाठ की थी। अगलम-बगलम बहुत-सी चीजें खाने के दस्तरखान पर सजी थीं। नबाव साहब खुद खड़े होकर सब इन्तजाम कर रहे थे। बात-बात पर बिगड़ रहे थे। अब्दुल्ला था कि फिरकी की तरह नाच रहा था। एक तो नवाब साहब का हाथी-सा डीलडौल, दूसरे घनी काली दाढ़ी, तिस पर शेर के गुर्राने की-सी आवाज। बात क्या करते थे - दहाड़ते थे। ज्यों ही मियाँ यूसुफ ने कमरे में कदम रखा और फर्शी सलाम झुकाया कि नवाब साहब ने बादल की गर्ज की तरह अट्टहास करते हुए कहा, “आओ, आओ मियाँ साहबज़ादे, मैंने कहा - आज तो मैं अपने साथ तुम्हें नाश्ता करने को कहूँ। क्या कहूँ, इस कदर मसरूफियत रहती है कि तौबा ही भली। लेकिन मैं समझता हूँ, तुम्हें कोई तकलीफ यहाँ न होगा। और भाई, हो भी तो - तुम्हारा घर है। यह अब्दुल्ला अहमक है। पता नहीं, कैसी खिदमत करता है। बहरहाल भई, घर में ही हो, अरे हाँ, तौबा-तौबा, मैं भी क्या भुलक्कड़ हूँ।” नवाब साहब ने दोनों कान पकड़कर दो तमाचे अपने मुँह पर रसीद किए। फिर पुकारा, “चली आओ बेटी, यहाँ तो सब घर के ही आदमी हैं।” फिर हँसकर कहा, “भई साहबज़ादे, अजब शर्मीली लड़की है। लाख कहा - कि साहबज़ादे का जरा खयाल रखना, घर में उसकी माँ होती तो क्या बात थी। लेकिन….”

नवाब की बात बीच में ही कट गई। इसी वक्त मियाँ यूसुफ की नज़र उस आनेवाली की ओर उठ गई। और शबनम ने कमरे में आकर मियाँ को एक सलाम झुकाई - नीची नज़र किए। गज़ब का सूफियाना बनाव-सिंगार किया था शबनम ने। सफेद लिबास में संगमरमर की एक परी की सूरत-सी लग रही थी। आमतौर पर मुस्लिम लड़कियाँ रंगीन कपड़े पहनती हैं मगर शबनम के मिज़ाज और उसकी तबियत निराली थी। मिस रोज़ की अंग्रेजी तालीम का तो उसपर असर था ही, खुद भी वह सादगी पसन्द थी। नवाब ने कहा, “आओ, आओ बेटी, शर्माओ मत। निहायत नफीस घोड़ी थी। पता ही नहीं लगता। खैर, भई अब्दुल्ला, लाओ, कबाब गरमा-गरम। मियाँ साहबज़ादे, बैठो तुम इधर मेरी बगल में, और तुम बेटी इधर।”

और इस तरह नाश्ता शुरू हुआ। मिस रोज़ ने दस्तरखान कुछ-कुछ अंग्रेजी ढंग पर सजाया था। एक-दो अंग्रेजी जिन्स नाश्ते में तैयार की थी, तथा वह एक कोने में खड़ी सारा इन्तजाम देख रही थी। मियाँ अब्दुल्ला लपक-लपक कर यह ला - वह ला कर रहे थे।

नवाब साहब ने कहा, “भई साहबज़ादे, तुम भी कहते होगे - अच्छे चचा हैं कि इतने दिन घर में रहते हो गए और अभी तक शबनम से जान-पहचान तक न कराई। मगर भई, खुदा झूठ न बुलवाए, इसकी दुनिया तो ये किताबें हैं। बस, मिस रोज़ है और यह हर वक्त या तो इल्मी बहस या कसीदा। बातें करती है तो अंग्रेजी में। यही देख लो, पर्दा और झालर, इसी ने बनाई है।”

“सुभान अल्लाह, खुदा बुरी नज़रों से बचाए, बहुत ही नफ़ीस दस्तकारी है।”

यूसुफ ने  तारीफ करके झेंपी-सी नज़रों से शबनम की ओर देखा। वह भी मुस्कुराती हुई कनखियों से उन्हें देख रही थी। नवाब साहब ने पुलाव की रकाबी की ओर इशारा करके कहा, “बेटी, जरा यह पुलाव साहबज़ादे को दो।”

इस पर यूसुफ ने कहा, “जी मैं तो दो मर्तबा ले चुका हूँ, तकलीफ न कीजिए।”

नवाब मीठी हँसी हँसकर बोले, “भई, तकल्लुफ की दाद नहीं, लो यह शीरमाल तो जरा चखो। शबनम ने अपने हाथ से बनाया है। बस, यही कमाल है मेरी बेटी में, वह अव्वल तो खाना पकाती नहीं, और कभी पकाती है तो बस - वही चीज लाजवाब होती है।”

यूसुफ मियाँ ने शीरमाल चखकर कहा, “जवाब नहीं है इसका हुजूर, एक टुकड़ा और दीजिए।”

“हाँ, हाँ, बेटी देना जरा, अमाँ साहबज़ादे तकल्लुफ न करो, जरा हाथ दिखाओ। वल्लाह जवान आदमी हो।”

“खा रहा हूँ हुजूर।”

इसी वक्त मिस रोज़ ने गर्मागर्म कहवे के प्याले पेश किए। शबनम ने अपने हाथ से प्याला उठाकर पहले नवाब साहब को, फिर यूसुफ मियाँ को पेश किया। नवाब साहब ने कहवा पीते हुए कहा, “भई, मिस रोज़ भी हमारी माशाअल्ला कहवा बनाने में यकता है।”

यूसुफ ने मिस रोज़ की ओर देखकर कहा, “खुदा उन्हें सलामत रखे।”

इस पर नवाब साहब ने एक फर्माइशी कहकहा लगाया और कहा, “भई साहबज़ादे, यह तो मानना पड़ेगा कि अंग्रेजों के तौर-तरीके हैं ला-जवाब। यही मिस रोज़ को देखिए - महज़ किताबें ही नहीं रटातीं, यह भी खयाल रखती हैं कि किस वक्त कैसा लिबास पहना जाए! खाना किस तरह खाया जाए! बैठने, उठने, बात करने, गरज हर तरीके में करीना।”

मियाँ यूसुफ ने कनखियों से मिस रोज़ की ओर देखते हुए कहा, “वाकई हुजूर, यही बात है। मगर लिबास उन लोगो् का कुछ अजीब-सा है, उसे पहनकर तो दस्तरखान पर बैठना ही मुश्किल है।”

“तो क्या जरूर है कि अंग्रेजी लिबास पहनो और दस्तरखान पर बैठो। उनका लिबास पहनकर तो फिर मेज-कुर्सी पर बैठकर खाना खाओ। अमाँ, हमने देखा है, बड़े-बड़े रईस अब दस्तरखान पर खाना नहीं खाते।”

“तो हुजूर, अपने मुल्क का लिबास ही क्या बुरा है? आखिर हिन्दुस्तानी लोग क्यों अंग्रेजी लिबास पहनें?”

“यह न कहो मियाँ साहबज़ादे, अंग्रेजी लिबास में चुस्ती तो खूब आती है। हाँ, जरा भोंडा जरूर है, खड़े-खड़े हाजत रफा करनी पड़ती है।”

“सुना है वैतुलफा जाते हैं तो वहाँ पानी का इस्तेमाल भी नहीं करते।”

“भई, सर्द मुल्क के रहने वाले ठहरे। पानी के नाम पर उनकी नानी मरती है।”

यह बात मिस रोज़ ने सुन ली। उसने हँसकर कहा, “नानी नहीं मरती है, नवाब साहब! सफाई का खयाल है। हिन्दुस्तानियों की गन्दी आदतें तो हुजूर बखूबी जानते हैं।”

“लेकिन भई, यह खुश्क सफाई तो जरा मेरी मोटी अक्ल में कम ही बैठती है - और छुरी-काँटे से खाना?”

“तौबा, तौबा, खुदा बचाए। एक बार मैं फँस गया, जनाब चीफ कमिश्‍नर साहब बहादुर ने दावत दी थी। मिस रोज़ ने एक हफ्ते तक छुरी-काँटे से खाने की मश्क कराई मगर बेकार, खुदा की पनाह - मुँह काँटे से छिलकर छलनी हो गया। लुत्फ यह कि जिस चीज को उठाना चाहें वह काँटे में बिंधकर प्लेट ही में रह जाए, हाथ पल्ले खाक नहीं पड़े। भूखे ही आए दावत से। तौबा-तौबा।” नवाब साहब ने दोनों कान पकड़कर गालों पर तमाचे जड़ लिए।

मियाँ यूसुफ ने कहा, “हुजूर अपनी-अपनी तहजीब है, अंग्रेजी लिबास भी सलीके से पहना जाए तो बुरा नहीं जँचता।”

“तो मियाँ साहबज़ादे, आज एक सूट सिलवाता हूँ तुम्हारे लिए। क्यों मिस रोज़, कैसा फबेगा इन पर अंग्रेजी सूट?”

“क्या कहने हैं हुजूर, मगर पहले इन्हें टाई बाँधना सीखना होगा।” मिस रोज ने मुस्कुराकर कहा।

“तो वह तुम सिखा देना। साहबज़ादे, मिस साहिबा टाई बाँधने में बहुत मश्शाक हैं। मुझे भी सिखाया था, पर मैं तो न सीख सका। मगर ये रोज़ तो इस सफाई से फन्दा डालती है कि देखते ही बनता है। मेरे लिए भी एक सूट इन्होंने सिलवाया था, जब कमिश्‍नर साहब से मिलने जाता हूँ तो वही लिबास पहनता हूँ, मगर टाई बाँधती हैं मिस रोज़, लेकिन कयामत यह है कि खोलती भी यही हैं दूसरे दिन।”

“तो रात-दिन आप टाई बाँधे रहते हैं?”

“क्या किया जाए, हमसे वह फन्दा न लगाते बनता है न खोलते, अब तुम जरा सीखना।”

“बस हुजूर मुझे तो बख्शा ही जाए। हमारा यह हिन्दुस्तानी लिबास क्या बुरा है?”

इसी वक्त अब्दुल्ला ने पानों का तश्त पेश किया और नवाब साहब ने तपाक से दो बीड़े पान लिए। एक यूसुफ को पेश किया, दो अपने मुँह में ठूँसे और नाश्ते का सिलसिला खत्म किया।

अलसुब्बह मिस रोज़ मुस्कुराती हुई आई और मियाँ यूसुफ से कहा, “मियाँ साहबज़ादे, सुबह का सलाम मुबारक हो।”

“खुदा खैर करे, यह मुबारकबादी सुबह-सुबह?”

“मुँह मीठा कराइये तो खुशखबरी सुना दूँ।”

“आपका मुँह तो वल्लाह खुद ही मीठा है।”

“चलिए बातें न बनाइए, साहबज़ादी नाश्ते पर आपको बुला रही हैं, तशरीफ ले चलिए।”

“इस कदर ज्यादती! दावत तो कल हो चुकी। अब हस्बमामूल यहीं नाश्ता भिजवा दीजिए।”

“कल तो नवाब साहब ने दावत दी थी।”

“और आज?”

“हस्बमामूल अब नाश्ता और खाना आप वहीं खाया कीजिए।”

“यह आपका हुक्म है?”

“जी नहीं, साहबज़ादी साहिबा का हुक्म है।”

“नवाब साहब से अर्ज़ कीजिए…..”

“जी, नवाब साहब नहीं हैं, सहारनपुर तशरीफ ले गए हैं।”

“खैर, तो इतनी मोहलत दीजिए, जरा कपड़े बदल लूँ।”

यूसुफ मियाँ ने आबेरखा का अंगरखा और जामदानी की नीमास्तीन पहनी, पैरों में ढीला पायजामा।

शबनम ने मुस्कुराते हुए कहा, “खुश आमदीद।”

“आपने नाहक तकलीफ की, नाश्ता मैं वहीं कर लेता।”

“यहाँ आने में क्या ज्यादा तकलीफ हुई?”

“तकलीफ कैसी? राहत हुई।”

“माशाअल्लाह बड़े नेक मालूम होते हैं आप।”

“माफ कीजिए, नेक तो चुगद होते हैं।

“खूब, दाद देती हूँ आपकी खुशमज़ाकी की। लिल्लाह तशरीफ रखिए!”

“नवाब साहब कहाँ तशरीफ ले गए हैं?”

“सहारनपुर गए हैं, खालाजान को सलाम करने।”

“यह खालाजान कौन हैं?”

“फिरंगी कमिश्‍नर साहब बहादुर।”

“क्या जरूर था सलाम करना?”

“जी, फिरंगी का हुक्म और हिन्दुस्तानी टाल दे!”

“तो गोया आप भी कायल है फिरंगियों की इस आदत की!”

“क्यों नहीं, अब्बा हुजूर का चौहद्दी में डंका बजता है। पर फिरंगी की सूरत देखकर उनकी भी पिंडली काँपती है।”

“यह तो मैं पहली मर्तबा ही सुन रहा हूँ।”

“खुदा करे, सुनते-सुनते कान न पक जाएँ आपके। माशाअल्लाह अभी आप बच्चे जो ठहरे।”

“सुनकर तसल्ली हुई। बच्चों पर तो आपकी हमेशा ही नज़रे इनायत रहती है।”

“अब जनाब शायरी फरमा रहे हैं।”

“जी नहीं, एक आरज़ू है…..”

“खैर, यह आरज़ू अपनी जगह दुरुस्त है। लीजिए ये गुर्दे, कैसे बने हैं, जरा चखिए, मुई उँगलियाँ जला डालीं आज मैंने इनको बनाने में।”

“कमाल के बने हैं। लेकिन क्या जरूर है, आप बनाएँ और उँगलियाँ जलाएँ?”

“क्या खूब बने हुए हैं आप!”

“जी क्या फरमाया आपने?”

“जी, लिबास आप पर फूट निकला है, माशा अल्लाह, दर्जी ने सिया खूब है। सिवैयाँ तो लीजिए।”

“लेकिन आप भी कुछ लेंगी या बातों से ही पेट भरेंगी?”

“कानों में चुभने लगीं न, खैर साहब, अब न बोलेंगे।”

“सुभान अल्लाह, खैर, एक बात पूछूँ, बशर्तें कि आप शर्माने का इरादा न करें।”

“खैर, आप पूछिए।”

“शुक्रिया, मैं सिर्फ यह जानना चाहता हूँ कि आपने तसव्वुर में अब तक किस खुशनसीब ने जगह पाई है?”

“जी नहीं।”

“देखिए, सच बोलिए!”

“सच बोलने का वायदा तो मैंने किया नहीं।” शबनम ने शरारत भरी नज़रों से यूसुफ को देखा।

“अर्ज़ करता हूँ कि मैं आज दुनिया का सबसे बड़ा खुशनसीब आदमी हूँ। आप मुझे मुबारकबाद दे सकती हैं!”

“मुबारक हो साहब!” शबनम ने निहायत संज़ीदगी से कहा। यूसुफ ने तश्त से एक डली बर्फी उठाकर कहा, “तो साहब, जरा मुँह मीठा कर लीजिए।” और उन्होंने बर्फी का वह टुकड़ा शबनम के मुँह में ठूँस दिया। बर्फी मुँह में रखकर शबनम एक तितली की भाँति वहाँ से भाग गई। यूसुफ मियाँ ठगे से खड़े रह गए।

……..

और कुछ दिन बीते। नवाब साहब अब ढूँढ-ढूँढ कर शबनम और यूसुफ मियाँ को ऐसे अवसर दे रहे थे, कि दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह समझ-बूढ लें। यूसुफ मियाँ भी अब घर जाने का खयाल भुला बैठे थे। घर के बूढ़े दीवान के खत-रुक्के आते, बुलावा आता, मगर यूसुफ मियाँ अब खुद ही जाने का मौका टाल जाते। मुज़फ्फरनगर में रहते अब उन्हें अरसा चार माह का हो चुका था। आखिर एक दिन उन्होंने नवाब साहब से फिर अर्ज़ की कि घर से दीवान साहब का रुक्का आया है। कम्पनी सरकार की मालगुजारी अदा करनी है - मेरा जाना जरूरी है।

नवाब ने कहा, “साहबज़ादे! मेरा मन तो अभी तुम से भरा नहीं, खैर, तुम शबनम से रुखसत ले लो। वह इजाजत दे दे तो चले जाना। यूसुफ मियाँ ने शबनम से बातें कीं। बातें बड़ी लम्बी-चौड़ी थीं। परन्तु अन्त में शबनम से उन्हें इजाजत मिल गई, और यूसुफ मियाँ की रुखसती की घड़ी आ ही पहुँची।

वही सुरंग घोड़ी नए साज में सजाकर लाई गई। नवाब ने कहा, “मियाँ साहबज़ादे! तुम्हारी घोड़ी न मिली न सही! यह घोड़ी भी एक नायाब जानवर है - इसी पर सवार होकर चले जाओ।”

यूसुफ मियाँ मन की हँसी रोककर घोड़ी पर सवार हुए। एक बार चिलमन पर नज़र फेंकी और चल दिए।

घर जाकर उन्होंने घोड़ी नवाब साहब को वापस भेज दी, एक रुक्का भी लिख दिया। और नवाब साहब की दरियादिली, मेहरबानी और मेहमाननवाजी का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया।

लेकिन घोड़ी नवाब ने नहीं रखी। रुक्के का जवाब दिया, “घोड़ी मैंने वापस करने नहीं भेजी थी। अब इसे तुम्हीं रखो। और जरा हमारे पास दीवान साहब को भेज दो।”

बूढ़े दीवान पुराने नवाब के कारिन्दे थे। उन्होंने आकर नवाब से बातें कीं - बातों का अभिप्राय शबनम के साथ यूसुफ की शादी का तय होना था। सब बातें तय हो गईं। और शादी का पैगाम लेकर बूढ़े दीवान घर लौटे। यूसुफ मियाँ भी मतलब समझ गए थे। अब सुना तो खिल उठे। बारात की तैयारी होने लगी। मेहमानों को रुक्के लिखे गए। नवाब जबर्दस्त खां ने शादी में सबसे ज्यादा दिलचस्पी ली। और आखिर वह मुबारक दिन आया, जब बल्लभगढ़ से बारात मुज़फ्फरनगर रवाना हुई।

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास “सोना और खून” का अंश)

Friday, October 15, 2010

यूसुफ मियाँ और नवाब की साहबज़ादी शबनम

लेखकः आचार्य चतुरसेन

(इससे पहले की कहानी - चोर डकैतों के सरदार नवाब)

शबनम नवाब साहब की सबसे छोटी साहबज़ादी थी। साहबज़ादी की उम्र अठारवाँ बसन्त छू रही थी। नर्म सुनहरे बालों का अम्बार सिर पर, शरारतभरी बादाम जैसी आँखें, पतले-पतले गुलाबी होंठों पर थिरकती हुई मुस्कुराहट की लहर। जब हँसती थी खिलखिलाकर - तो हजारों रुपहली घंटियाँ बज उठती थीं। पर्दे की साहबजादी को परवाह न थी। नवाब की लाडली बेटी। चोरों के गुरुघंटाल की साहबज़ादी, मगरूरी और शोखी आँखों और चाल में भरकर जब देखने वालों की आँखों के सामने आती थी, तो वे देखते रह जाते थे। साहबज़ादी की वजातराशी और बरहदरी में जो कुछ थोड़ी-बहुत कमी थी, वह इन बातों से पूरी हो गई थी - कि नवाब साहब ने एक क्रिस्तान अधगोरी मिस को उनकी गार्जियन बना दी थी। पिछली बार जब नवाब साहब कलकत्ता तशरीफ ले गए थे तो वहीं से इस मिसिया को किराये पर ले आए थे। यह मिसिया अब डेढ़ बरस से मुस्तकिल तौर पर नवाब साहब के घर रह रही थी, और साहबज़ादी को तालीम तथा अंग्रेजी एटीकेट-तहज़ीब सिखा रही थी। इसके अतिरिक्त उसने नवाब साहब के घर को भी अंग्रेजी ढंग से सजा दिया था और अब वह इस जुगत में थी कि नवाब साहब और साहबज़ादी दोनों टेबुल पर बैठकर छुरी-काँटे से खाना खाना सीख जाएँ और इस तरह आहिस्ता-आहिस्ता ईसाई बन जाएँ, जैसा कि उन दिनों अक्सर होता रहता था। मिस साहिबा को इस काम में अभी इतनी सफलता मिल चुकी थी कि नवाब साहब के यहाँ बजाय नाश्ता-पानी के छोटी-बड़ी हाज़री और खाने की जगह लंच और डिनर लफ्ज़ इस्तेमाल होने लगा था, हालाँकि टेबुल-कुर्सी की जगह अभी दस्तरखान ही का इस्तेमाल होता था। मगर मिस साहिबा ने एक कमरे में मेज-कुर्सी सजाकर उसे अंग्रेजी ढंग का डिनर रूम बना दिया था। लेकिन इसका इस्तेमाल गाहे-बगाहे तभी होता था जब कोई भूला-भटका अंग्रेज हाकिम-हुक्काम उधर आ निकलता था।

मिस साहिबा की उम्र थी बीस-बाइस साल। रंग गोरा था या जर्द, इस सम्बन्ध में नवाब साहब और उनकी साहबज़ादी की दो राएँ थीं। नवाब साहब उन्हें गोरी-चिट्टी कहते थे परन्तु शबनम उसे पीले रंग की बताती थी। हकीकत तो यह थी कि शबनम का खिलता हुआ गोरा गुलाबी रंग वह करामात रखता था कि उसके सामने ऐसी सौ मिसियाँ फीकी जँजती थीं। सूरत-शक्ल मिस साहिबा की न ऐसी अच्छी ही थी कि उन्हें परी कहा जाए, पर उसे बुरा भी नहीं कहा जा सकता था। लेकिन थी वह बहुत खुशमिज़ाज, हँसमुख और फुर्तीली, वह उर्दू बहुत सलीस बोल लेती थी। हकीकत यह थी कि उनकी माँ एक तालीमयाफ्ता मुसलमानी थी, जो एक आरमीनियन सौदागर की बीबी थी, बेवा होने पर इसने एक अधेड़ उम्र के अंग्रेज सैनिक से शादी कर ली थी, जो अंग्रेजी सेना में कप्तान के पद पर था। उसी से मिस साहिबा का जन्म हुआ था, और यही कारण था कि वह अंग्रेजी और उर्दू जबान पर एक साथ ही अधिकार रखती थी और  दोनों भाषाएँ बखूबी उम्दगी से बोल लेती थी। इसके अतिरिक्त उन्हें अंग्रेजी एटीकेट का जैसा ज्ञान था वैसा ही मुस्लिम शिष्टाचार का भी ज्ञान था। इसीलिए मिस साहिबा इस घर में हर-दिल अज़ीज हो रही थी।

मिसिया का नाम था रोज़। गज़ब की औरत थी मिस रोज़। हरदम गुनगुनाती और किसी न किसी काम में लगी रहती। उदासी उसके चेहरे पर देखने को न थी। एक आनन्ददायी मुस्कान से सदा उसका चेहरा खिला रहता था। कभी साहबज़ादी को पढ़ाती, कभी कमरे को सजाती, कभी साहबज़ादी के बाल दुरुस्त करती, कभी उनके लिबास पर एक लेक्चर देती। कभी खानसामा के सिर पर सवार। उनके छोटे से छोटे नुक्स को वह बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। उन्हें तरह-तरह के अंग्रेजी खाने बनाने बताती। कभी माली से जा उलझती - कहाँ क्यारी में कौन फूल लगाना चाहिए - ये सब बातें मिस रोज़ मालियों को बताती न थकती थी। धोबी का तो मारे नाक में दम था। कपड़े पर इस्त्री करने में जरा लापरवाही हुई, एक सल भी रह गई कि कपड़ा फेंक मारा धोबी के मुँह पर। बेचारा थरथर काँपता था - मिस को देखते ही। ऐसी थी मिस रोज़ जिसने इस घर की काया पलट दी थी और जिसकी तालीम और सोहबत में साहबज़ादी साहिबा नये जीवन की अभ्यस्त हो रही थी, और पर्दा तोड़कर खुलेआम आती-जाती थी। जिन पर नवाब की कोई रोक-टोक न थी।

नौकर-चाकरों को अंग्रेजी ढंग की तहज़ीब, अदब-कायदे तथा बोलियाँ समझा दी गई थीं। अब वे सब उनसे पढ़-सीखकर कहते - हुजूर, गुस्ल लगा दिया है, हुजूर हाज़िरी लगा दी है। और अब वह बड़े यत्न से साहबज़ादी को छुरी-चम्मच का प्रयोग सिखा रही थी। ज्योंही साहबज़ादी रोटी का टुकड़ा सालन में डुबोती, वह कहती - “ना साहबज़ादी, ना! सालन में हाथ न डुबाइये। काँटा लीजिए।” अक्सर काँटा साहबज़ादी के मुँह में चुभ जाता, निवाला वापस प्लेट में गिर जाता, तो साहबज़ादी गुस्सा करती, झुंझलाकर काँटा-छुरी फेंक देती और निवाला हाथ में ले ज्यों ही सालन की ओर बढ़ाती तो तत्काल मिस रोज़ कहती - “ना साहबज़ादी, ना। ऐसा नहीं। काँट लो, चम्मच लो।” मिस रोज़ ने बड़ी बारीकी से शबनम को समझाया था, कि मछली खाने के छुरी-काँटे जुदा होते हैं और गोश्त खाने के जुदा। एक बार शबनम ने गुर्दा खाने के लिए चम्मच जो उठाया, तो तड़ाक से मिस रोज़ ने कहा, “हाय, क्या गज़ब करती हैँ साहबज़ादी, कहीं गुर्दा चम्मच से खाते हैं?” बस, ऐसी चाक-चौबन्द और शीन-काफ से दुरस्त थी मिस रोज़, जो नवाब साहब के घर की गवर्नेस भी थी, और शबनम की उस्तानी या एटीकेट टीचर भी। शबनम कुछ तो अपनी तबियत से और जहीन होने के कारण, तथा कुछ मिस रोज़ की सोहबत और शिक्षा से बाहरी और भीतरी तौर-तरीके में ऐसी निखर गई थी और इस कदर सलीका सीख गई थी कि उससे उसके हुस्न में चार चाँद लग गए थे।

……..

घोड़ी के सिलसिले में मियाँ युसुफ, बल्लभगढ़ के नए नवाब, जो मुज़फ्फरनगर आए तो यहीं फँस गए। नवाब साहब उन्हें रुखसत करते ही न थे। मियाँ भोंपू आदमी थे। बार-बार इसरार करते शर्माते थे। फिर भी जब जाने का कसद करते और नवाब साहब की खिदमत में अर्ज़ करते - तो नवाब साहब अपने दोनों कान पकड़ गालों में तमाचा जड़ कहते, “म्याँ लाहौल पढ़ो। बस, जाने का नाम न लो।” मियाँ कहते, “हुजूर कपड़े गलीज़ हो गए हैं इज़ाज़त मिल जाती तो अच्छा था।”

तब नवाब साहब जरा बिगड़कर कहते, “तो क्या यहाँ के सब धोबी और दर्जी मर गए? म्याँ, अपने पहनो तो धोबी हाजिर और मेरे पहनो तो दर्जी हाजिर, फिर जाने की क्या बात? बस, जाने-आने का कल्मा जबान पर न लाना।”

और मियाँ को जाने की इज़ाज़त मिली ही नहीं। एक दर्जन पोशाक तैयार होकर मियाँ के पास आ गईं। इसी बीच एक दिलचस्प बात हो गई। जिस कमरे में मियाँ यूसुफ का डेरा था, उसी के सामने वाले कमरे में कुछ खास हलचल नज़र आने लगी। मिस रोज़ और शबनम दोनों दिन भर सजाने में जुटी रहीं। कहाँ किस तरह सजाया जाए, इस पर थोड़ी-थोड़ी देर में बहस भी होती जाती थी। शबनम को एकाध बार मियाँ ने दूर से देखा था, पर आज उसे अच्छी तरह देखने का मौका मिल गया। उन्होंने अपनी निशस्त कुछ इस तरह बनाई कि वे खिड़की की राह चुपचाप उधर के सब हालात देखते भी रहें और किसी को मालूम भी न हो। शीघ्र ही उन्हें ज्ञात हो गया कि अब यही कमरा इन दोनों अल्हड़ बछेड़ियों का अखाड़ा बन गया अर्थात् उनका स्टडीरूम बन गया। कहने को मिस रोज़ उस कमरे में रहने लगीं और शबनम वहाँ पढ़ने को आने-जाने लगी। लेकिन पढ़ने पर ही क्या मौकूफ था, दिन के बारह घंटों में सौ काम निकलते, और शबनम उसी कमरे में पहुँच जाती। दोनों विविध विषयों पर हुज्जत करतीं, हँसतीं - चुहल करतीं और नये-नये शगूफे खिलातीं।

एक ही दिन में मियाँ को मालूम हो गया कि वे लाख छिपकर बैठें पर ये खेल सब हो रहे हैं उन्हीं को दिखाने-देखने के लिए। अब अक्सर यूसुफ मियाँ भी अपने कमरे में टहलने लगे। कभी किसी किताब को हाथ में लेकर, कभी चूड़ीदार पायजामा और शेरवानी पहने। कभी जालीदार कुर्ती पर विलायती तनजेब का ढीला कुरता और ढीला पायजामा। वसली का जूता। कभी बाल उलझाए मजनूँ बने, कभी माँग पट्टी से लैस। मकसद सिर्फ यह कि अपने दिखाएँ और उनको देखें। और हकीकत थे कि कुछ उधर से भी ऐसा ही डौल बँधा था। फर्क इतना था - वे दो थीं और मियाँ बेचारे अकेले।

और एक दिन बात जरा बढ़ चली। उस दिन आसमान पर बदली छा रही थी। मौसम पुरलुफ्त था। हवा ठण्डी बह रही थी। यूसुफ मियाँ देर से कमरे में टहल रहे थे - मगर दूसरे कमरे में यह मनहूसियत का सन्नाटा। इतने में मिस रोज़ और शबनम हाथ में किताब लिए हँसती हुई अपने कमरे में आईं। यूसुफ मियाँ के मुँह से हठात् निकल गया, “खुश आमदीद।”

कहा तो था उन्होंने होंठों ही में, पर आवाज वहाँ पहुँच गई। चारों आँखें पहले इधर को उठीं, फिर एक हुईं और तब एक मीठी मुस्कान दोनों लड़कियों के होंठों पर फैल गई, और लीजिए अब दूसरी दुनिया का दौर चला।

उस दिन की बात यहीं खत्म हुई। मियाँ यूसुफ शिकार पर चले गए। शाम को जब लौटे - तो देखते क्या हैं - उनके कमरे में ताजा फूलों के दो गुलदस्ते निहायत खुशनुमा रखे हैं। उनका पलंग भी अब अपनी जगह से खिसका दिया गया है, और समूचे कमरे का नक्शा बदला हुआ है।

लौटकर नक्शा देखा तो हैरान रह गए। नवाब साहब ने मियाँ को एक खिदमतगार दिया हुआ था। निहायत खुर्राट। नाम था अब्दुल्ला। बातचीत में मश्शाक, मशहूर किस्सागो, रईसों की आँखें देखे हुए। जात का नाई था। मालिश और चम्पी में उस्ताद। मियाँ की खिदमत यही अब्दुल्ला करता था। शिकार से मियाँ लौटे और कमरे के नक्शे को बदला देखा तो अब्दुल्ला को बुलाकर कहा, “वाकई आज तो तुमने काबिले इनाम काम किया। कमरे का नक्शा ही बदल दिया। माशाअल्ला बड़े ही वजहदार आदमी हो।”

“हुजूरेवाला, मुग़ालते में न रहिए, जो वजहदार हैं, उन्हीं से फर्माइये।”

“क्या मतलब?”

“बन्दानिवाज, कान पकड़कर अर्ज़ करता हूँ कि यह सब अदल-बदल आज मिस साहिबा ने की है। मैंने टोका, तो कहा - साहबज़ादी का हुक्म है। बस मैं चुपका हो रहा।”

“खुदा खैर करे। तो मिस साहिबा के सब्ज कदम इस कमरे में पढ़ चुके?”

“अये-हये हुजूर! यह क्या कलमा जबाने शरीफ से कहा। खुदा झूठ न बुलवाए। कयाफा शनाशी का कुछ-कुछ इस गुलाम को भी शौक है। अगर मेरा कयाफा सही है, तो हुजूर, कुछ और ही रंग खिलने वाला है, मिठाई और इनाम का बन्दा भी मुस्तहक है।”

“कैसी मिठाई? अमाँ क्या कहना चाहते हो, साफ-साफ कहो, पहेलियाँ न बुझाओ।”

“खैर, तो हुजूर फिलहाल यही समझ लें कि उधर से इधर का शौक जनून की हद तक पहुँच चुका है।”

“क्या? म्याँ क्या बकते हो?”

“माशाअल्ला, हमारी साहबज़ादी भी लाखों में एक हैं। खुदा गवाह है, दोनों की जोड़ी खूब रहेगी।”

“अब तुम पिट जाओगे अब्दुल्ला मियाँ।”

“जैसी हुजूर की मर्जी, मगर मैं तो मिठाई का ही उम्मीदवार हूँ!”

यूसुफ मियाँ हँस दिए। हकीकत तो यह थी कि इस वक्त उनका दिल बाँसों उछल रहा था। उन्होंने कहा, “मुँह धो रखो म्याँ।”

“हुजूर, हमारी साहबज़ादी जब बात करती है, मुँह से फूल झड़ते हैं। हँसती हैं तो घुँघरू बजते हैं। चलती है तो बसन्त छा जाता है। बन्दानेवाज, ऐसी हैं हमारी साहबज़ादी!”

“होंगी भई, खुदा उन्हें सलामत रखे।”

“और पढ़ने-लिखने की बेहद शौकीन, माशाअल्ला, याददाश्त भी गज़ब की है उनकी!”

“तो मेरा सर क्यों खाते हो?”

“यह बात नहीं किबला, कभी आप उनसे बात कीजिए, तो मेरी बात पर यकीन आए।”

“लेकिन यह क्या जरूरी है कि हम साहबज़ादी से बात करें। और क्यों करें? वो हैं परदानशीन शरीफज़ादी!”

“तो हुजूर, क्या मुजाइका है। आप भी रईस हैं। उनके मेहमान हैं। वे आपकी मेज़बान हैं। अब यही देखिए कि उनके हुक्म से ही मिस रोज़ ने आपके कमरे में कदम रंजा फरमाया है। तभी तो मैंने कहा - कुछ और ही गुल खिलने वाला है।”

“देखा जाएगा, फिलहाल तो यह शिकार बावर्चीखाने में पहुँचा दो।”

“या साहबज़ादी की नज़र करूँ?”

यूसुफ मियाँ को हँसी आ गई। बोले, “जो ठीक समझो वही करो - और खुदा के लिए मुझे थोड़ी देर के लिए निजात दो। बहुत थका हूँ, जरा सोउँगा।”

“तो अभी हाजिर होता हूँ। बदन दबाकर तमाम थकान उतार दूँगा।”

और वह शिकार लेकर जनानखाने की ओर चल दिया। यूसुफ मियाँ के मुँह से आप ही निकल पड़ा - खुश आमदीद।

……..

अब तो रोज ही फूलों के गुलदस्ते आने लगे। नये-नये तोहफे भी आने लगे। बावर्चीखाने से जब खाना आता तो साथ ही भीतर से एक स्पेशल मीठी तश्तरी भी आने लगी। यह साहबज़ादी की ओर से दावत होती रहती थी। और एक दिन सुबह-सुबह जब यूसुफ मियाँ नहा-धोकर नाश्ते की तैयारी कर रहे थे - हाथों में एक बड़ा-सा गुलदस्ता लिए मिस रोज़ आ बरामद हुईं। हँसती हुई शीरी जबन में और मिठास पैदा करती हुई बोली, “साहबज़ादा साहब, सुबह की सलाम दोपहर से जरा पहले ही अर्ज़ करती हूँ।”

यूसुफ मियाँ के मुँह से बेसाख्ता निकल गया, “खुश आमदीद, मिस साहिबा, लेकिन अभी तो आठ ही की गजर बजी है। अभी दोपहर कहाँ?”

“खैर, तो आप नाश्ता नोश फरमाने की तैयारियों में हैं। ये फूल साहबज़ादी ने आपके लिए भेजे हैं।”

“बहुत-बहुत शुक्रिया और सलाम मेरा अर्ज़ कर दीजिए, साहबज़ादी साहिबा से। बहुत करम फरमाया इस नाचीज़ यतीम पर।”

“माई गॉड, आप और यतीम? तौबा-तौबा। बड़े सरकार सुनेंगे तो क्या कहेंगे भला?”

“कुछ गलती हुई हो तो माफी का खास्तगार हूँ। मैंने तो जो ठीक बातें थीं वही अर्ज़ कर दीं।”

“बातें बनाने में तो माशाअल्ला आपको कमाल हासिल है। बहरहाल मैं साहबज़ादी से अर्ज़ कर दूँगी - माफी देनी होगी तो देंगी - सजा देंगी तो भुगतिएगा।”

“लेकन माफी तो मैं आपसे माँग रहा हूँ मिस साहिबा, खुदा न करे कि आप इस नाचीज़ से बदज़न हो जाएँ तो फिर बन्दा कहीं का न रहेगा।”

“तौबा-तौबा, बड़े शरीफ हैं आप साहबज़ादा साहब, खामख्वाह मुझे लपेटते हैं।”

“मुझे अफ़सोस है, खैर, तो अब क्या हुक्म है?”

“अर्ज़ करती हूँ, कल के शिकार के सिलसिले में यह फूल साहबज़ादी ने भेजे हैं, साथ ही शुक्रिया।”

“तो मेरा सलाम अर्ज़ कर दीजिए और कहिए - भला इनी क्या ज़रूरत थी!”

“खैर, कहना-सुनना जो हो, वह आप ही कह-सुन लीजिए।”

“क्या मतलब आपका?”

मिस साहिबा ने आँखों में शरारत भरकर कहा, “मतलब यह है कि जोड़ी अच्छी है।”

“यह आप क्या कह रही हैं?”

“वही, जो नवाब साहब को कहते सुना, बस न रत्ती कम, न ज्यादा।”

“आप मुझे बना रही हैं।”

“जी नहीं, बने-ठने तो खुद ही बैठे हैं। मैं तो एक बात कह रही हूँ। अच्छा सलाम।”

मिस रोज़ जाने लगीं, तो यूसुफ मियाँ ने उन्हें रोककर कहा, “खुदा के लिए जरा सुनए तो।”

“फरमाइए।”

“मैंने कहा - मैने कहा - जरा सुनिए तो।”

“बाबा, सुन तो रही हूँ कान खोलकर।”

“देखिए मिस साहिबा, मैं कहता हूँ आप कभी-कभी अजीब बातें करने लगती हैं।”

“बस, कभी-कभी ही न? लेकिन आप शायद ठीक कहते हैं, नवाब साहब जो कुछ फरमा रहे थे - भला क्या जरूर था कि मैं आपसे कहती? लेकिन हज़रत, वे बातें काफी तूल पकड़ गई हैं।”

“आखिर कौन सी बातें, कुछ कहोगी भी।”

“अब गिलहरी रंग लाई। खैर नवाब साहब से अर्ज़ कर देती हूँ कि अब शादी कर ही दी जाए! साहबज़ादा को मंजूर है?”

“तौबा-तौबा, खुदा के वास्ते यह गज़ब न कर बैठना। आपको शायद शक हुआ है।”

“कैसा शक?”

“कि मैं भी इधर कुछ दिलचस्पी रखता हूँ।”

“चेखुश, शक के क्या मानी साहब, कामिल यकीन है। अब मैं जाकर नवाब साहब से भी अर्ज़ किए देती हूँ और साहबज़ादी साहिबा से भी।”

“बड़ी शरीफ हैं आप मिस साहिबा, बात का बतंगड़ बनाने में तो आप यकता हैं।”

“जी ठीक फरमा रहे हैं आप। खैर, तो जरा तशरीफ ले चलिए।”

“कहाँ?”

“नवाब साहब आपको याद फर्मा रहे हैं।”

“बेहतर, तो मैं नाश्ता लेकर आता हूँ।”

“नाश्ता भी वहीं नोश फर्माइए।”

यह कहकर जरा मुस्कुराकर तिरछी चितवन की तीर फेंकती हुई मिस रोज़ चली गई। यूसुफ मियाँ जल्दी-जल्दी कपड़े पहन नवाब साहब की बारहदरी की ओर चल खड़े हुए।

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास “सोना और खून” का अंश)

Thursday, October 14, 2010

चोर-डकैतों के सरदार नवाब

लेखक - आचार्य चतुरसेन

(इसके पहले की कहानी यहाँ पढ़ें - चोरों का अद्भुत मेला)

मुज़फ्फरनगर के नवाब इकरामुल्लाखां का नाम सुनकर उन दिनों अच्छे-अच्छों की पंडली काँप जाती थी। नवाब की उम्र अब साठ को पार कर गई थी, पर उनके दमखम अभी वैसे ही बने थे। वे बड़े डीलडौल के आदमी थे। रियासत भर में उनकी सवारी के लायक कोई घोड़ा न था। इसलिए वे हाथी पर ही सवार होते थे। उनका चेहरा भी भयानक था और आँखें हमेशा सुर्ख रहती थीं। तन्दुरुस्ती निहायत अच्छी थी। जात के पठान रुहेले थे। हेस्टिंग्ज के जमाने में जब रुहेलों पर तबाही आई तो इनकी सारी जागीर चौपट हो गई। अब यहाँ मुज़फ्फरनगर में इनकी छोटी-सी जमींदारी थी। मगर रुआब उनका दूर-दूर तक था। हकीकत तो यह थी कि वे अब डाके का धन्धा करते थे। सैकड़ों डाकू अलग-अलग गिरोहों में दूर-दूर तक डाके डालते और माल उनके कदमों पर ला डालते थे। वह जमाना ही ऐसा था, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत थी।

नवाब अपनी कचहरी में बैठे थे। मुसाहिब लोग भी साथ थे। नवाब मोढ़े पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। एक शागिर्द ने आगे बढ़कर कहा, “सरकार, सुरंग घोड़ी है, बहुत नफीस! इस गिर्दनवा में वैसी घोड़ी न होगी।”

“कहाँ है वह?”

“हुजूर, एक लौंडा उसपर सवार है। वह सहारनपुर जा रहा है।”

“कौन है वह?”

“यह तो मालूम नहीं सरकार, उसके साथ सिर्फ दो प्यादे हैं। बस इत्तला देने को दौड़ा आ रहा हूँ।”

नवाब एकदम गुस्से में गरज उठे। उन्होंने कहा, “तो बदबख्त, तू सिर्फ हमें इत्तला देने को ही आया है, घोड़ी अभी तक गैर के ही ताबे में है?”

“हुजूर!”

नवाब फिर गरजे। उन्होंने कहा, “हुजूर के बच्चे, आधे घण्टे में घोड़ी हमारे हुजूर में हाजिर ला।”

शागिर्द सलामें झुकाता हुआ चला गया और आधे घण्टे के अन्दर ही घोड़ी नवाब साहब के अहाते में आ गई।

घोड़ी को देखकर नवाब साहब खुश हो गए। यह उनका शौक था, घोड़ा, घोड़ी, बैल, रथ या कोई भी चीज, जो उम्दा से उम्दा, जहाँ नज़र पड़े नवाब की होनी ही चाहिए। नवाब के आदमी जो शागिर्द कहाते थे और पेशा डकैती करते थे, नवाब की यह तबीयत पहचानते थे। बस, जहाँ कोई उम्दा चीज़ नज़र आई कि वह नवाब की होकर रही। किसी की मज़ाल थी कि उनके इस शौक में हारिज हो!

घोड़ी अभी दाना-पानी खा ही रही थी कि उसका मालिक वह लड़का भी नवाब की ड्यौढ़ी पर आ हाजिर हुआ। उम्र उसकी कोई अठारह साल की होगी, सुन्दर और छरहरा बदन। इत्तला पाकर नवाब ने उसे बुलाया। उसने आकर नवाब को सलाम झुकाया।

नवाब ने कहा, “कौन हो, साहबज़ादे?”

“क्या हुजूर ने पहचाना नहीं?”

“अफसोस साहबज़ादे, लेकिन आँखें बहुत कमजोर हो गई हैं। ठीक तौर पर देख नहीं पाता। याद नहीं आता कि कहाँ देखा है तुमको।”

“हुजूर ने जन्नतनशीन नवाब मुज़फ्फरबेग का नाम सुना होगा?”

“क्या नवाब बल्लभगढ़? हो-हो, अमाँ वे तो मेरे मुरब्बी थे। वाह, क्या फरिश्ता आदमी थे! मगर हाय-हाय, क्या बेरहम मौत पाई। अल्ला-अल्ला।”

नवाब ने कान पकड़कर अपने मुँह पर दो तमाचे जड़े। फिर गहरी साँस लेकर बोले, “नवाब मुज़फ्फरबेग, हाँ तो फिर?”

“मैं हुजूर, उनका नवासा हूँ। मेरा नाम यूसुफ है।”

“अरे वाह साहबज़ादे, इतनी देर से क्यों नहीं कहा! मैं भी कैसा अहमक हूँ, तुम्हें इतनी देर खड़ा रखा। अल्ला-अल्ला। उन्होंने फिर कान पकड़े और फिर दो तमाचे अपने मुँह पर जड़े। फिर मोढ़े से उठकर युवक को अंक में भर लिया।

“बैठो, बैठो साहबज़ादे, देखकर आँखें ठण्डी हो गईं। वाह, वही खसलत पाई है। खुदा ने चाहा तो तुम नवाब साहब का नाम रोशन कर लोगे।” इसके बाद उन्होंने पुकारकर कहा, “कोई है, साहबज़ादे के लिए नाश्ता लाओ।”

युवक ने कहा, “एक अर्ज़ करने को हाज़िर हुआ था।”

“देखो साहबज़ादे, धांधली की सनद नहीं। पहले नाश्ता करो, फिर इत्मीनान से बातें होंगी।”

खिदमतगार एक गिलास दूध और पराँठे दे गया। नौजवान ने नाश्ता किया। नवाब ने हुक्के पर नई चिलम चढ़ाकर कश लिया। फिर बोले, “क्या करते हो साहबज़ादे?”

“हुजूर, फिरंगियों के स्कूल में पढ़ रहा हूँ।”

“अच्छा करते हो। भई, सच तो यह है कि ये अंग्रेज हैं औलिया, देख लेना कुछ दिनों में हिन्दुस्तान कि काया पलट कर रख देंगे। खैर, अब कहो, क्या काम है?”

“हुजूर, मैं सहारनपुर जा रहा था कि बदमाशों ने मेरा पीछा किया और मेरी घोड़ी छीन ली। मेरे आदमियों को भी ज़ख्मी कर दिया।”

“अरे, कब, कब? बड़ी खराब बात है।”

“हुजूर, बस कोई एक घण्टा हुआ। मैंने सोचा, आप के ही हुजूर में अर्ज करूँ। अब और कहाँ फरियाद करता?”

“अच्छा किया, साहबज़ादे, तुम मेरे पास चले आए। आजकल शरीफों का राह-बाट में निकलना ही मुश्किल है। घोड़ी कैसी थी?”

“सुरंग थी, हुजूर।”

नवाब ने आवाज दी, “कोई है?”

वही शागिर्द आ हाज़िर हुआ। लड़के ने डाकू को पहचान लिया। उसने आती बार घोड़ी को बँधे दाना खाते भी देख लिया था। पर उसने ऐसा भाव बनाया कि जैसे न वह घोड़ी को पहचानता है, न डाकू को।

नवाब ने शागिर्द से कहा, “सुना तुमने, साहबज़ादे का किस्सा?”

“हुआ क्या सरकार?”

“हुआ क्या? दिन-दहाड़े डाका पड़ गया। मियाँ को अकेला जानकर बदमाश घोड़ी लेकर यह जा, वह जा।”

“बड़ी खराब बात है हुजूर।”

“खराब? मैं कहता हूँ जब तक दो-चार को गोली से न उड़ाया जाएगा, ये वारदातें बन्द नहीं होंगी। और फिर मेरे ही हल्के में! कितनी बदनामी और शर्म की बात, तौबा-तौबा।” उन्होंने फिर दोनों कान पकड़कर गालों पर तमाचे जड़ दिए।

शागिर्द सिर झुकाए खड़ा रहा।

नवाब ने कहा, “खड़े-खड़े क्या देखते हो? घोड़ी का पता लगाओ।”

“हुजूर …”

“बस-बस, मै एक लफ़्ज नहीं सुनना चाहता। चाहे आसमान में उड़ जाओ, या धरती फोड़कर उसमें घुस जाओ। घोड़ी मिलनी चाहिए, जाओ।” इतना कहकर नवाब साहब ने यूसुफ मियाँ से कहा, “तब तक साहबज़ादे तुम आराम करो। घोड़ी मिल जाएगी। खातिर जमा रखो।”

“हुजूर का इकबाल ही ऐसा है।”

नवाब साहब ने मियाँ यूसुफ के ठहरने, आराम करने और शिकार-तफरीह का पूरा बन्दोबस्त कर दिया। यूसुफ मियाँ मजे से चोरों के शहनशाह की मेहमान नवाजी का लुत्फ लेने लगे।

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास “सोना और खून” का अंश)

Wednesday, October 13, 2010

चोरों का अद्भुत मेला

लेखक – आचार्य चतुरसेन

मेरठ, मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर, बिजनौर के जिले और उसके आसपास का इलाका उन दिनों गूजरवाड़ा के नाम से विख्यात था। इसका दूसरा नाम चोरों का इलाका भी था क्योंकि वास्तव में यह चोरो् और डाकुओं का गढ़ था। इस भू-भाग पर राजा, नवाब, जमींदार और रियाया जो भी थी, सभी का मुख्य पेशा चोरी या राहजनी था। यह चोरी विविध प्रकार की होती थी। जानवरों की चोरी, नकबज़नी, डाके, राहजनी और इसी किस्म की दूसरी वारदातें। मुज़फ्फरनगर के नवाब इकरामुल्ला खां इन चोरों और डाकुओं के सबसे बड़े मुखिया और सरदार थे। उनकी रियासत में पाँच गाँव उनके थे। ये सब मशहूर चोरों के गाँव थे। मुज़फ्फरनगर में उनकी गढ़ी थी – हवेली थी, जहाँ खुद नवाब साहब रहते थे।

मुज़फ्फरनगर आज तो एक सम्पन्न जिला है, जिले का सदर मुकाम है, अच्छा-खासा शहर है। अनाज और गुड़ की वहाँ बड़ी भारी मण्डी है, मगर उन दिनों वह महज एक गाँव था, जहाँ पक्की हवेली केवल नवाब साहब की ही थी, जो दुमंजिला थी। उसके चारों ओर बहुत-सी जमीन घेरकर कच्ची मिट्टी का एक बहुत मोटा परकोटा बना था – जो गढ़ी कहाता था। इसके भीतर नवाब के जानवर, जिसकी संख्या हजारों में होती थी और जो प्रायः दूर-दूर से चोरी करके लाए जाते थे, रखे जाते थे। इन जानवरों में एक से एक बढ़कर घोड़े, उम्दा नस्ल की घोड़ियाँ, नागौरी और हरियाने के बैल, गायें, भैसें आदि होती थीं। गढ़ी के भीतर ही नवाब साहब के शागिर्द पेशा लोग रहते थे, जो नवाब साहब के अत्यन्त विश्वस्त नामी-गिरामी चोर होते थे, और बड़े-बड़े साहसिक अभियान करते थे। उनके कच्चे-पक्के छोटे-बड़े घर बेतरतीब से नवाब साहब की हवेली के चारों ओर फैले हुए थे। नवाब साहब के पाँचों गाँवों की सब जमीन भी ये शागिर्द पेशा लोग ही जोतते-बोते थे। इन शागिर्द पेशा लोगों में नामोगिरामी चोर तो होते ही थे – खोजी भी ऐसे  मार्के के थे – कि चोरी का पता लगाने में यकता थे। चोर का जरा सा सुराग मिल जाए, कहीं उसके पैर का निशान, हाथ की छाप, उसके कपड़े का टुकड़ा या ऐसी ही कोई चीज, तो उसी के सहारे वे पचास-पचास मील में चोर का पता लगा लेते थे। कोई अजीब विद्या थी इन लोगों की, और वे आसपास में दूर-दूर तक मशहूर थे, तथा दूर-दूर के रईस जमींदार – जब उनके घर चोरी होती थी – नवाब साहब के खोजियों का सहारा लेते थे। नवाब साहब में एक करामात दाद देने के काबिल यह थी कि उनके यहाँ चाहे जितना भी कीमती माल चोरी का आ गया हो, यदि माल का स्वामी नवाब की ड्यौड़ी पर आ गया तो उसे वापस कर देते थे। वापस करने का ढंग शानदार होता था। असल बात यह थी कि नवाब मुज़फ्फरनगर के सभी ठाठ, सभी ढंग निराले होते थे। उन बातों को यद्यपि अभी सौ ही वर्ष बीते हैं, पर वे सब बातें ऐसी गायब हो गई हैं कि उनपर आज मुश्किल से विश्वास किया जा सकता है। हाँ इतना जरूर है कि गूजरवाड़े का यह इलाका आज भी नामी-गिरामी चोरों का इलाका है।

मुज़फ्फरनगर में हर दीवाली को चोरों का मेला लगता था। मेला बड़ी धूम-धाम का होता था। मेले में गूजरवाड़े के छोटे-बड़े चोर इकट्ठे होते थे। यह मेला एक सप्ताह तक लगता था। जैसे होली के बाद मेरठ की नौचन्दी की धूम थी वैसी ही मुज़फ्फरनगर के इन चोरों के मेले की थी जो दीवाली का मेला कहाता था। इस मेले में हजारों चोर इकट्ठे होते थे। इनमें से बहुत से तो बड़े भारी नामी-गिरामी चोर होते थे। इन सब चोरों को आठ दिन तक नवाब के लंगर में खाना मिलता था। नवाब की गढ़ी ही नहीं, हवेली तक उनके स्वागत में आठ दिन तक खुली रहती थी। हकीकत तो यह थी, कि ये गूजरवाड़े के चोर नवाब साहब को केवल अपना सरदार  ही नहीं मानते थे, वे उन्हें पीर-औलिया-गुरु, जो कहिए, मानते थे। मेले में जब ये चोर आते तो हर एक छोटा-बड़ा चोर अपनी औकात के अनुसार भेंट-सौगात नवाब की नज़र करता था। खासकर नये-नौसिखिए चोर तो अधिक श्रद्धा से नज़र गुजार कर नवाब के मुरीद बनते, और यहाँ से लौटकर अपने चोरी के पेशे का श्रीगणेश करते थे। इन चोरों की एक पारिभाषिक भाषा होती थी, कुछ गूढ़ संकेत होते थे नकबज़नी के, गला काटने के, चुराए हुए पशु का रूप-रंग बदलने के बड़े-बड़े विचित्र गुप्त तरीके होते थे जो नये शागिर्दों को तभी बताए जाते थे, जब वे बाकायदा नज़र-भेंट देकर नवाब साहब के मुरीद बन जाते थे। फिर इनसे किसी बात का दुराव-छिपाव नहीं होता था।

बड़े-बड़े चोर अपने नये-नये हथकण्डे, नई-नई आविष्कृत नीतियाँ – चोरी और नकबज़नी  की – दूसरों को बताते थे। मेले में परस्पर ऐसी बातें आम चर्चा का विषय होती थीं। इन आगन्तुक चोरों में भी जो नामी-गिरामी होते थे, वे बहुधा जत्थाबन्द होते थे, इसका मतलब यह था कि उनके शागिर्द पेशा लोगों की भी एक जमात होती थी, और वे अपनी जमात के साथ धूमधाम से मेले में आते थे। परन्तु ये सब जीवट के चोरों के सरदार भी नवाब साहब को अपना उस्ताद मानते थे और उन्हें नज़र-भेंट करते थे। वे चोरी करने के नये-नये गुर नवाब साहब को बताते और जो चोरी की नई-नई विधियाँ, नकबज़नी की रीतियाँ वे आविष्कृत करते, वे नवाब साहब से कहते। मेले के अन्त में नवाब साहब ऐसे लोगों को भारी-भारी इनाम-इकराम देते थे।

मेले में बहुत से भांड, बाजीगर, सपेरे, जनखे, रंडियाँ और कलावन्त आते। वे अपने करतब चोरों को दिखाकर इनाम-इकराम लेते, गाने-बजाने, मुज़रे-जल्सों की धूम रहती। गरज, आठ दिन मुज़फ्फरनगर में मेले की वह धूमधाम होती कि जिसका नाम! आखिरी दिन नवाब साहब का दरबार होता, जिसमें सब रंडियाँ, कलावन्त आते, रात भर गाना-बजाना, मुज़रा होता और दिनभर भाँति-भाँति के तमाशे होते। तब नवाब साहब सबको इनाम-इकराम देकर विदा करते। मगर चोरों के इस अद्भुत मेले में, जो एक सबसे ज्यादा अद्भुत बात होती थी वह यह कि किसी की एक सुई भी चोरी नहीं होती थी।

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास “सोना और खून” का अंश)

Tuesday, October 12, 2010

कितना अजीब लगता है जब....

आज दिनांक 12-12-10 को सुबह 10.20 बजे चिट्ठाजगत के डिफॉल्ट हॉट लिस्ट में हमने देखा कि डॉ टी.एस. दराल जी का पोस्ट "आज एक सवाल ---लोग पीपल के पेड़ की पूजा क्यों करते हैं?" पहले नंबर पर है किन्तु चिट्ठाजगत के धड़ाधड़ पठन वाले हॉटलिस्ट में वही पोस्ट नीचे से चौथे नंबर अर्थात् 37वें नंबर पर है। मजे की बात यह है कि दराल जी के उस पोस्ट में चिट्ठाजगत ने 43 पाठक भेजे और उस पोस्ट में टिप्पणियों की संख्या भी 43 ही है। अब ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि चिट्ठाजगत से गए सभी पाठकों ने उस पोस्ट पर टिप्पणी की हो। हमने स्वयं भी उस पोस्ट में जाकर टिप्पणी की है किन्तु हम वहाँ चिट्ठाजगत के माध्यम से नहीं गए थे।

हमारे संकलक, जिनका मुख्य उद्देश्य पोस्टों में पाठक भेजना है, अपने द्वारा भेजे गए पाठकों की संख्या से अधिक पोस्ट में की गई टिप्पणियों की संख्या को आखिर क्यों ज्यादा महत्व देते हैं? क्या सचमुच संकलकों के द्वारा भेजे गए पाठकों की संख्या, जिसे कि बढ़ाना संकलकों का मुख्य कार्य ही होता है, का महत्व टिप्पणियों की संख्या के सामने कुछ भी नहीं है? खैर, हिन्दी ब्लोग्स के संकलक निजी हैं और उनके स्वामियों को अधिकार है कि वे जो चाहें करें, हम उनके कार्य में दखल देने वाले कौन होते हैं?

चिट्ठाजगत के दोनों ही हॉटलिस्ट इस प्रकार हैं:

क्र.धड़ाधड़ टिप्पणियाँहॉटलिस्ट धड़ाधड़ पठन हॉटलिस्ट
1आज एक सवाल ---लोग पीपल के पेड़ की पूजा क्यों करते हैं? [43]बृ्हस्पति, शुक्र के अस्तकाल में विवाहादि शुभ कार्य वर्जित क्यों ? [88]
2सुनामी की बाहों में ..... [34]उम्मीद का दामन.. [81]
3दायरे.... [33]सचिन का डंका [78]
4एक और आईडिया....... [30]देवालयों की रक्षार्थ शेखावत वीरों का आत्मोत्सर्ग [77]
5कदहीन मगर आदमकद भीड़ ... [26]अटके हुए पल [70]
6पर्दा धूप पे [26]कुत्ते कितने समझदार और संवेदनशील होते हैं [69]
7भ्रूण हत्या बनाम नौ कन्याओं को भोजन ?? [24]अब हँसने के लिए जोग हैं .... [67]
8दुर्नामी लहरें [22]चुम्बन चुम्बन पर लिखा होगा मरने वाले का नाम [63]
9किताबों की दुनिया - 39 [22]कई अनुत्तरित प्रश्नों को छोड़ गयी वर्धा में आयोजित संगोष्ठी [63]
10वो छाँव बनकर छुप गयी [22]कंट्रोल सी + कंट्रोल वी …फ़िर ले के आए झाजी …..जस्ट झाजी स्टाईल ..चर्चा नहीं ..पोस्ट झलकियां .. [62]
11नाम सोचा ही न था! [19]सिलसिला गुलज़ार कैलेन्‍डर का: पांचवां भाग--'याद आते हैं वो सारे ख़त मुझे' [60]
12साप्ताहिक काव्य – मंच ---- 20 (चर्चा-मंच --- 304 )……….संगीता स्वरुप [19]भ्रूण हत्या बनाम नौ कन्याओं को भोजन ?? [60]
13"बन्दर की व्यथा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक") [18]जो उनकी तमन्ना है बर्बाद हो जा....राजेन्द्र कृष्ण और एल पी के साथ मिले रफ़ी साहब और बना एक बेमिसाल गीत [58]
14आज पढने के बदले सुन लें कहानी...."कशमकश" [18]क्या बाज़ार ही भाषा को भ्रष्ट करता है? [बाज़ारवाद-3] [57]
15क्या द ग्रैंड डिज़ाइन स्टीफन हाकिंस ने चोरी की है? [18]क्या द ग्रैंड डिज़ाइन स्टीफन हाकिंस ने चोरी की है? [56]
16बारात, ब्लॉगिंग और प्रेरणा। [18]Sale - Vendita - बिक्री [56]
17ख़ामोशी! [17]कार्टून:- हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है ... [55]
18एक पोस्टकार्ड [17]सर्पदंश का शिकार पीठासीन अधिकारी की स्थिति गम्भीर मतदान अधिकारी की मौत [54]
19The ultimate way for women दुनिया को किसने बताया की विधवा और छोड़ी हुई औरत का पुनर्विवाह धर्मसम्मत है ? - Anwer Jamal [15]सूरज, चंदा, तारे, दीपक, जुगनू तक से ले रश्मि-रेख [53]
20वृत्त [15]येदुरप्पा सरकार पर संकट बरक़रार, राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन कि शिफारिश की. [53]
21कितने साबुत और बचा क्या [14]The ultimate way for women दुनिया को किसने बताया की विधवा और छोड़ी हुई औरत का पुनर्विवाह धर्मसम्मत है ? - Anwer Jamal [50]
22In search of the truth सच का नश्तर - Ejaz [13]हिन्दू महा सभा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की !! [50]
23न जाने ये रात इतनी तन्हा क्यूँ है, हमें [13]एक और आईडिया....... [49]
24कुछ रिश्ते बन जाते हैं.. [13]सचिन का ४९ वाँ शतक !! [48]
25ये नाम जो है तेरा.....!! [12]आईये दुआ करें [48]
26लम्हों को दोहरा लेना [11]दायरे.... [47]
27भिलाई में मिले ब्लॉगर ---- ललित शर्मा [11]बिहार चुनाव:- राजद की पांचवीं सूची जारी. [46]
28अब हँसने के लिए जोग हैं .... [11]मक्खी मार रहे हैं दारू दुकान वाले [46]
29काश ! दर्पण मुझमें समा जाता..... [11]सचिन तेंदुलकर ने 14 हज़ार रन पूरे किये !! [45]
30जानां [10]मिथिला का उच्चैठ शक्तिपीठ. [45]
31बृ्हस्पति, शुक्र के अस्तकाल में विवाहादि शुभ कार्य वर्जित क्यों ? [10]खुदा 'महफूज़' रखे हर बला से .... हर बला से !! [44]
32कदहीन मगर आदमकद भीड़--ब्लॉग4वार्ता--ललित शर्मा [10]योगिनी का अमोनियम नाइट्रेट : पिन कोड 273010, एक अधूरा प्रेमपत्र - 33 [44]
33आज के विजेता रहे डॉ रूपचंद्र शास्त्री जी 'मयंक' ..बधाई 'मयंक' जी ! अगली स्पर्धा ग़ज़ल के लिए होगी [10]राजस्थान रॉयल्स और पंजाब आईपीएल से बाहर !! [44]
34उम्मीद का दामन.. [9]कदहीन मगर आदमकद भीड़ ... [43]
35कार्टून:- हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है ... [9]सुनामी की बाहों में ..... [43]
36तलाश निकले थे कुछ दूर हम, आज़ाद पंछी की तरह, मिल [9]लालू नितीश के बीच आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला जारी !! [43]
37कई अनुत्तरित प्रश्नों को छोड़ गयी वर्धा में आयोजित संगोष्ठी [9]आज एक सवाल ---लोग पीपल के पेड़ की पूजा क्यों करते हैं ? [43]
38जो उनकी तमन्ना है बर्बाद हो जा....राजेन्द्र कृष्ण और एल पी के साथ मिले रफ़ी साहब और बना एक बेमिसाल गीत [9]माईएसक्यूएल डाटाबेस का बैकअप कैसे लें [42]
39बस ... मुझसे मेरा हाल ना पूछा ...!! [8]अनमाप, अनियंत्रित भ्रष्टाचार के सागर में आशा की किरणें भी हैं [42]
40घर [8]भाषाई मर्यादा [42]

Monday, October 11, 2010

मक्खी मार रहे हैं दारू दुकान वाले

शाम होते ही जहाँ दारू दुकानों के सामने जो भीड़ इकट्ठी हो जाती थी वह अब देखने को भी नहीं मिल रही है। बार की रौनक भी नज़र नहीं आ रही है।  माता दुर्गा जो विराजमान हो गई हैं नौ दिनों के लिए! माता के प्रति लोगों की श्रद्धा ने ही शराबियों से नौ दिन तक शराब तक को भी छुड़वा दिया है। राष्ट्रीय पर्वों में तो सरकार दारू दुकान बन्द करवा देती है फिर भी लोग छुप-छुपाकर पीने की व्यस्था कर ही लेते हैं और नवरात्रि में आलम यह है कि छुपने-छुपाने की कोई आवश्यकता नहीं है फिर भी लोगों ने पीना बन्द कर दिया है। छत्तीसगढ़ी में एक हाना (लोकोक्ति) है - "सिखोवन बुद्धि उपजारन माया"! अर्थात् सिखाने से बुद्धि नहीं आती और उपजाने से माया नहीं उपजती। इसी प्रकार दारू दुकान बन्द करवा देने से लोग पीना नहीं छोड़ देते। पीना छोड़ने के लिए तो अपने भीतर से ही आदेश मिलना चाहिए और नवरात्रि में माँ दुर्गे लोगों के भीतर से अनायास ही आदेश दिलवा देती हैं न पीने के लिए। माँ नवदुर्गा के नवों रूपः
  1. शैलपुत्री
  2. ब्रह्मचारिणी
  3. चन्द्रघंटा
  4. कुष्मांडा
  5. स्कंधमाता
  6. कात्यायिनी
  7. कालरात्री
  8. महागौरी
  9. सिद्धिदात्री
समस्त जनों का कल्याण करे!

Sunday, October 10, 2010

प्रतिभा तो छिपाए नहीं छिप सकती

कुछ बातें ऐसी होती हैं कि दबाए नहीं दब पातीं। खून हो जाए और खूनी के बारे में सुन-गुन न लगे, खैर वाला पान खाएँ और होठ लाल ना हो, मन में खुशी हो और मुख पर प्रसन्नता न झलके, किसी से बैर हो जाए पर किसी को पता न चले या फिर मद्य का सेवन हो और कदम तथा जबान न लड़खड़ाएँ ऐसा हो ही नहीं सकता; इसीलिए तो रहीम कवि ने कहा हैः

खैर खून खाँसी खुसी बैर प्रीत मदपान।
रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान॥


ऐब और गुण भी ऐसी ही चीजें हैं जो छिपाए नहीं छिपतीं। हम श्री राहुल सिंह जी से मिलने के लिए छत्तीसगढ़ राज्य के संस्कृति विभाग में गए तो वहाँ छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के दस वर्ष पूर्ण होने पर एक थीम सांग बनने की चर्चा जोरों पर चल रही थी। इधर चर्चा चल ही रही थी और उधर उसी विभाग में कार्यरत श्री राकेश तिवारी एक कागज पर कुछ लिखने में व्यस्त थे। यह जानकर हम दंग रह गए कि महज पाँच-सात मिनट के भीतर ही उन्होंने छत्तीसगढ़ी में एक थीम सांग की रचना कर डाली जो इस प्रकार हैः

दस साल के छत्तीसगढ़ ह, देस मँ नाम कमावत हे।
बिकास के झण्डा ल, गाँव-गाँव फहरावत हे॥
दस साल के.....

बमलेसरी महमाई संवरी दन्तेसरी के माया हे़।
कोरबा भेलई बईलाडीला संग देवभोग के छाया हे॥
हरियर छत्तीसगढ़ धान कटोरा चाँदी के दोना कहावत हे
दस साल के.....

गावय ददरिया महानदी शिवनाथ बजावय मोहरी।
इन्द्रावती चिला फरा अरपा झड़कय देहरवरी॥
खिल खिल खिल खिल छत्तीसगढ़ी भाखा ह मुसकावत हे
दस साल के.....

सरगुजिया बस्तरिहा खुस हे चहकत जसपुरिया रायगढ़िया।
दुगिया रायपुरिया हाँसय संग संग नंदगइया बेलासपुरिया॥
नोनी-बाबू लइका-सियान बुढ़ुवा घलो मेछरावत हे
दस साल के.....


श्री राकेश तिमारी जी की उपरोक्त रचना को पढ़कर हमें आश्चर्ययुक्त प्रसन्नता हुई। उनके विषय में और जानकारी पाने के
लिए हम उत्सुक हो गए तो हमें पता चला कि वे एक लोक संगीतज्ञ हैं तथा उन्होंने अनेक लोकधुनों का निर्माण किया है। रायपुर के नगरघड़ी के निर्माण के सन्दर्भ में उनका नाम लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में दर्ज है। उन्होंने लेड़गा ममा, जय महामाया, बंधना आदि छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अभिनय किया है। लगभग 20 टेलीफिल्मों सहित 5 फीचर फिल्मों में गीत लेखन का कार्य किया है तथा चर्चित नाटक "राजा भोकलवा", जिसका पूरे देश में अब तक 73 बार मंचन हो चुका है, का लेखन तथा निर्देशन भी किया है।

ऐसे प्रतिभाशाली श्री राकेश तिवारी जी से हमने अपना ब्लोग बनाने का अनुरोध किया तो उन्होंने हमारा अनुरोध मान लिया और शीघ्र ही वे हमारे बीच होंगे।