Saturday, July 31, 2010

चार लाइन!

कविता करनी आती नहीं मुझे, फिर भी प्रयास कर के चार लाइन लिख ही लियाः

आकांक्षा का दुर्ग ढह गया,
भग्नावशेष ही शेष रह गया;
आशा का आकाश गिर गया,
जीवन में बस क्लेश रह गया।

लगा कि मैं भी, कविता ना सही, तुकबंदी तो शायद कर ही सकता हूँ। कुछ और प्रयास किया तो यह भी लिख गयाः

एक दिन हमारी साली ने,
हमें सिद्धांत की ये बात समझाई
कि कुछ बनने के लिए,
कुछ पाने के लिए,
परिश्रम करना ही पड़ता है भाई।

हमने कहा साली जी,
बिल्कुल गलत कहती हैं आप,
मौसी बनने के लिये भला आपको,
क्या मेहनत करनी पड़ी जनाब?

अपने सिद्धांत की बात
आप अपने पास ही रहने दीजिये,
और हमें अब आप
सिर्फ कड़ुआ सच ही कहने दीजिये।

लाठी जिसके हाथ में हो, भैंस उसी की होती है,
हमेशा अनाज उसका नहीं होता, जिसने खेत जोती है।

सदियों से इस संसार में, बस यही होता चला आता है,
मजा गिरधारी करते हैं और धक्का बेचारा पुजारी खाता है।

कहते हैं कि प्रेम का प्रसिद्ध स्मारक.
ताज महल,
शाहजहाँ ने बनाया था,
पर क्या उसे बनाने के लिये
उसने एक ईंट भी उठाया था?
उल्टे
उसे बनाने वालों के हाथ भी
उसने कटवाया था।

निष्कर्ष यह कि गुणवान शिल्पियों का हाथ कटता है,
और निर्माता के रूप में,
अपना झूठा नाम जोड़ देने वाले का,
जमाना नाम रटता है।

देश की आजादी के लिये,
कितने ही क्रांतिकारियों ने,
क्रांति की,
लहू बहाया,
जानें गवाँई।
पर हमें पढ़ाया जाता है कि
आजादी अहिंसा से आई।

इस देश में क्रान्तिकारी वीर हिंसक कहलाते हैं,
और मार खाकर भी जिनका स्वाभिमान न जागे,
ऐसे लोग,
देशभक्त बन जाते हैं।

निष्कर्ष यह कि क्रान्तिकारी (हिंसक) बन कर मत मरो,
अहिंसक होने का स्वांग भरो,
सुख भोगो और राज करो।

कपड़े के मिल में काम करने वाला मजदूर
लाखों थान कपड़े बनाता है,
पर स्वयं तथा अपने परिवार के तन ढँकने लायक
कपड़ा भी कभी पाता है?
मजदूर भूखा मरता है
और मालिक हलुवा उड़ाता है,
क्योंकि मिल में वह अपना परिश्रम नहीं,
अपनी पूँजी लगाता है।

निष्कर्ष यह कि परिश्रम का फल कड़ुआ होता है।

Friday, July 30, 2010

अपना हिन्दी ज्ञान परखिये

पिंटू, जो कि मेरे छोटे भाई के समान है, ने एक प्रतियोगी परीक्षा दी है और उसने मुझे अपना प्रश्नपत्र देते हुए कहा, "भैया इस प्रश्नपत्र के जितने भी सही उत्तर आप बता सकते हैं, मुझे बतायें ताकि मैं जान सकूँ कि मैंने कितने सवालों का सही हल किया है।"

प्रश्नपत्र में अधिकतर प्रश्न हिन्दी और सामान्य ज्ञान से सम्बन्धित देखकर मैंने सोचा कि इसमें से कुछ अच्छे प्रश्नों को अपने ब्लोग में पोस्ट कर दिया जाये ताकि मेरे पाठक लोग भी अपने ज्ञान को परख सकें।

तो प्रस्तुत हैं प्रश्नः

दिये गये वाक्यों में रेखांकित शब्दों के पर्याय (समानार्थक शब्द) के लिये चार-चार विकल्प दिए गए हैं। उचित विकल्प चुनियेः

1. स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना प्रगति के लिये आवश्यक होती है।

(क) जोड़-तोड़

(ख) दाँव-पेंच

(ग) प्रतिस्पर्धा

(घ) क्षिप्रता


2. वैचारिक संकीर्णता असहिष्णुता का प्रमुख कारण होती है।

(क) अस्थिरता

(ख) संकुचितता

(ग) अनियमितता

(घ) उदीयता

3. हरेक भारतीय से अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य दो-तीन भाषाओं का कामकाजी ज्ञान रखने की अपेक्षा की जाती है।

(क) संचालनीय

(ख) व्यवहारिक

(ग) प्राथमिक

(घ) कार्यसाधक

निम्नलिखित वाक्यों में रेखांकित शब्दों के विलोम के लिये चार-चार विकल्प दिए गए हैं। उचित विकल्प चुनियेः

4. प्राकृतिक चिकित्सा में कायिक उपचार एक महत्वपूर्ण अंग है।

(क) मानसिक

(ख) बौद्धिक

(ग) हार्दिक

(घ) दैहिक

5. अनावृष्टि से किसानों का भविष्य अधर में लटका है।

(क) अतिवृष्टि

(ख) अवृष्टि

(ग) न्यूनवृष्टि

(घ) असामयिकवृष्टि

6. शहरों के प्रदूषित वातावरण से दूर प्रकृति का आकर्षण सभी का मन लुभाता है।

(क) घृणा

(ख) जुगुप्सा

(ग) पलायन

(घ) विकर्षण

7. विश्व समुदाय में भारतीयों का अभ्युदय चतुर्दिक चर्चा का विषय बन गया है।

(क) अधःपतन

(ख) पूर्णोदय

(ग) पराजय

(घ) अंतोदय

निम्नलिखित लोकोक्तियों/मुहावरों के चार-चार वैकल्पिक अर्थ दिए गए हैं। सही अर्थ चुनियेः

8. ज्यों-ज्यों भीजे कामरी त्यों-त्यों भारी होय

(क) कामरी भीगने पर भारी हो जाती है।

(ख) जैसे-जैसे कामरी भीगती जाती है वह भारी होती जाती है।

(ग) कर्ज चुकाते रहना चाहिये नहीं तो वह चढ़ता जाता है।

(घ) कामरी को भीगने से बचाना चाहिए।

9. कौवा चला हंस की चाल।

(क) छोटों द्वारा बड़ों की नकल

(ख) छोटा मुँह बड़ी बात

(ग) अपनी झूठी प्रशंसा करना

(घ) मूर्ख द्वारा बुद्धिमानी का प्रदर्शन

10. नौ दिन चले अढ़ाई कोस।

(क) ऊँची चढ़ाई चढ़ना

(ख) बहुत सुस्ती से काम करना

(ग) चक्करदार रास्ते से जाना

(घ) गड़बड़ी से काम करना

11. घर में नहीं दाने बुढ़िया चली भुनाने।

(क) झूठा आडम्बर करना

(ख) अधिक दिखावा करना

(ग) डींग हाँकना

(घ) मुश्किल से गुजारा करना

12. काम का न काज का दुश्मन अनाज का।

(क) बेकार के काम करना

(ख) स्वार्थी होना

(ग) बेकार का आदमी

(घ) किसी उपयोग लायक न होना

निम्नलिखित वाक्यों में उपयुक्त शब्द द्वारा रिक्त स्थान की पूर्ति के लिये चार-चार विकल्प दिए गए हैं। सही विकल्प चुनियेः

13. भारतीय परंपरा में ............. को सौन्दर्य का प्रतीक माना गया है।

(क) यति

(ख) शची

(ग) रति

(घ) इन्द्राणी

14. सूर्य की ............. किरणें और भी अधिक पीड़ित कर रही थीं।

(क) संतप्त

(ख) तेजस्वी

(ग) प्रखर

(घ) दुष्कर

15. उसके हाथों ............. का खजाना लग गया।

(क) गन्धर्व

(ख) कुबेर

(ग) यक्ष

(घ) प्रजापति

16. बड़ों से बात करने का ............. तुम्हें सीखना चाहिए।

(क) शिष्टाचार

(ख) सदाचार

(ग) आचरण

(घ) हौसला

निम्नलिखित वाक्यों में रेखांकित शब्दों के विलोम रूप के लिये चार-चार विकल्प दिए गए हैं। उचित विकल्प चुनिएः

17. सिदार्थ जितना संसार में अनुरक्त होने की चेष्टा करते, मन उतना ही ............. होता जाता था।

(क) सशक्त

(ख) विरक्त

(ग) अशक्त

(घ) कोमल

18. वे जितना तटस्थ होने की चेष्टा करते उतना ही ............. होने का आरोप उनके सिर मढ़ दिया जाता।

(क) पक्षपाती

(ख) क्रूर

(ग) निर्भय

(घ) संयमी

19. अदालत में वादी व ............. दोनों पक्षों के वकील उपस्थित थे।

(क) संवादी

(ख) विवादी

(ग) प्रतिवादी

(घ) विपक्षी

20. प्रेमचंद साहित्य में यथार्थ और ............. का अच्छा संतुलन है।

(क) स्वप्न

(ख) उड़ान

(ग) आदर्श

(घ) कल्पना

निम्नलिखित मुहावरों तथा लोकोक्तियों के अर्थ के लिये चार-चार विकल्प दिए गए हैं। उचित विकल्प चुनिएः

21. पल्ला छुड़ाना

(क) दल बदलना

(ख) अपना पक्ष बलवान होना

(ग) छुटकारा पाना

(घ) अधिक विपत्ति में पड़ना

22. कान खड़े होना

(क) गलत बात पर जल्दी विश्वास करना

(ख) चुगली करना

(ग) ऊब जाना

(घ) चौकन्ना होना

23. सिर उठाना

(क) विद्रोह करना

(ख) आदर देना

(ग) आधिपत्य जमाना

(घ) चुगली करना

24. उल्टी गंगा बहना

(क) लोक रीति के विरुद्ध काम करना

(ख) पवित्र कार्य में लगना

(ग) धार्मिक अनुष्ठान

(घ) पाप धोना

25. ऊधो का लेना न माधो का देना

(क) भक्तिभाव प्रबल होना

(ख) निर्लिप्त भाव से रहना

(ग) उधार पैसे लेकर आनन्द मनाना

(घ) निराहार रहना

निम्नलिखित वाक्यों में रेखांकित शब्द की वर्तनी के लिये चार-चार विकल्प दिए गए हैं। उचित विकल्प चुनिएः

26. घायल व्यक्ति के शरीर से बहुत अधिक मात्रा में रक्तसार्व हो रहा था।

(क) रकतसार्व

(ख) रक्तस्राव

(ग) रक्तस्त्राव

(घ) रक्तसाव

27. पाण्डवों में केवल अभिमन्यु ही चर्कव्यूह का भेदन जानता था।

(क) चक्रव्यूह

(ख) चकृव्यूह

(ग) चक्रव्युह

(घ) च्रकव्यूह

28. "उसने कहा था" कहानी का शीषर्क अत्यन्त उपयुक्त है।

(क) शीर्षक

(ख) शीर्शक

(ग) शिर्षक

(घ) शीषर्क

29. "मृगनयनी" एक एतिहासिक उपन्यास है।

(क) ऐतीहासिक

(ख) ऐतिहासिक

(ग) ऐतिहासीक

(घ) एतीहासीक

30. बच्चे की आक्रति अपने पिता से मिलती है।

(क) आकर्ति

(ख) आकृति

(ग) आक्रर्ति

(घ) आकृती

प्रश्नों के सही उत्तर जानने के लिये क्लिक यहाँ करें - अपना हिन्दी ज्ञान परखिये : प्रश्नों के सही उत्तर

Thursday, July 29, 2010

वे गरीब आदमी हैं, मगर इज्जतदार तो हैं

असल मुगल खून! मोती के समान रंग! उम्र अस्सी के पार, लम्बे पट्ठे, बगुला के पर जैसे सफेद! बड़ी-बड़ी आँखें - प्यार ‌और शान को निमन्त्रण देती हुईं! कद लम्बा, दाढ़ी खसखसी, मखमली ऊदी कामदार टोपी .....

यह थे मिया खुरशैद मुहम्मदखां, रईस बड़ा गाँव।

सुना जाता था कि मियाँ का घराना दिल्ली के शाही खानदान से भी कुछ सम्बन्ध रखता था। बादशाह उनका आदर करते और कभी-कभी उन्हें लालकिले में बुलाते थे। मियाँ की उम्र बादशाह सलामत की उम्र से भी अधिक थी। इसी से बादशाह कभी-कभी दर्बारे-तख्लिया और कभी-कभी शाही दस्तरखान पर भी मियाँ को बुलाकर उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाते थे। इसी से रईस-रियाया सभी पर उनका दबदबा था।

सर्दी के दिन, सुबह का वक्त। अभी पूरी धूप नहीं खिली थी, कोहरा छाया था, मियाँ खेतों से वापस लौट रहे थे। कल्लू भंगी अपनी झोपड़ी के आगे आग ताप रहा था और हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। मियाँ ने घोड़ी रोक दी। बोले, "कल्यान मियाँ, सर्दी बहुत है।"

कल्लू, घबरा कर, हुक्का छोड़ उठ खड़ा हुआ। उसने जमीन तक झुक कर मियाँ को सलाम किया। और हाथ बाँधकर कहा, "हाँ सरकार!"

"अमां, तुम्हारे पास तो कुछ ओढ़ने को भी नहीं है। लो, यह लो।"

उन्होंने अपनी कमर से लपेटा हुआ शाल उतारकर भंगी के ऊपर डाल दिया। भंगी ने घबराकर कहा, "सरकार, यह क्या कर रहे हैं, इतनी कीमती शाल यह गुलाम क्या करेगा? न होगा तो मैं गढ़ी में हाजिर हो जाऊँगा। कोई फटा-पुराना कपड़ा बख्श दीजियेगा।"

लेकिन मियाँ ने भंगी की बात सुनी नहीं। उन्होंने कहा, "अमां, कल्यान, तुम्हारी लड़की की शादी कब हो रही?"

इसी चौथे चाँद की है सरकार!"

"देखना, बारात की तवाज़ा ज़रा ठीक-ठाक करना, ऐसा न हो भई, गाँव की तौहीन हो। तुम जरा लापरवाह आदमी हो। समझे?"

"समझ गया सरकार!"

"जिस चीज की जरूरत हो छुट्टन मियाँ से कहना।"

"जो हुक्म सरकार!"

मियाँ ने घोड़ी बढ़ाई। और कल्लू भंगी को सिर से लपेटते हुए दूर तक मियाँ की रकाब के साथ गया।

यह है प्रसिद्ध इतिहासज्ञ उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन जी की कृति "सोना और खून" से लिया गया सारांशित अंश। मुझे उनके उपन्यास अच्छे लगते हैं! आप लोगों को यदि अच्छा लगा हो तो आगे .....

मियाँ ने घोड़ी साईस के हवाले की और दीवानखाने में आ मसनद पर बैठ गये।

मियाँ के सनद पर बैठते ही मुहम्मद, उनके साहबजादे, ने आकर कहा, "अब्बा हुज़ूर, मियाँ अमज़द और वासुदेव पण्डित बड़ी देर से बैठे हैं।"

"किसलिए?"

"वही, कर्जा माँग रहे हैं। मियाँ अमज़द को जो कम्पनी बहादुर को मालगुजारी भरनी है, उसका वारंट लेकर कम्पनी का आदमी दरवाजे पर डटा बैठा है। अमज़द पिछवाड़े की दीवार फाँदकर आया है। कहता है, घर रोना-पीटना मचा है। कम्पनी के प्यादे बरकन्दाज़ एक ही बदजात होते हैं। बहू-बेटियों की बेहुर्मती करना तो उनके बायें हाथ का खेल है।"

"बहुत खराब बात है। कितने रुपये चाहिये उसे?"

"चार सौ माँगता है।"

"और वासुदेव महाराज?"

"उनकी लड़की की शादी है। कहते हैं, जहर खाने को भी पैसा नहीं है। बिरादरी में नाक कट गई तो जान दे देगा।"

"म्याँ, गैरतमन्द आदमी है। उसे कितना रुपया चाहिये?"

"वह छः सौ माँगता है।"

"इस वक्त तहवील में तुम्हारे पास कितना रुपया है?"

"वही एक हजार है, जो चौधरियों के यहाँ से कर्ज आया है।"

"तब तो दोनों का काम हो जायेगा। दे दो।"

"मगर अब्बा हुज़ूर, वह तो हमने सरकारी लगान अदा करने के लिये कर्ज लिया है।"

"उस पाक परवरदिगार की इनायत से हमें कर्जा अभी मिलता है। दे दो, ये गर्जमन्द हैं। पीछे देखा जायेगा।"

"लेकिन हुज़ूर, हम मालगुजारी कहाँ से अदा करेंगे? ये फिरंगी के प्यादे और अमीन तो बादशाह तक की छीछालेदर करने में दरेग नहीं करते हैं। कल ही आ धमकेंगे ड्योढ़ियों पर, और हुज़ूर की शान में बेअदबी करेंगे तो मैं उन्हें गोली से उड़ा दूँगा। पीछे चाहे जो हो।"

"लेकिन ऐसा होगा क्यों? मालगुजारी दे दी जायेगी।"

"कहाँ से दी जायेगी?"

"चौधरी तो हमारे दोस्त हैं। वे क्या कभी नाही कर सकते हैं? वे भी खानदानी जमींदार हैं। इज्जत की इज्जत बचाना वे जानते हैं।"

"तो यह भी खूब रही। कर्जा लिये जाइये और दूसरों को बाँटे जाइये। ये ही क्यों नहीं जाते चौधरी के पास?"

"बेटा, वे गरीब आदमी हैं, मगर इज्जतदार तो हैं। फिर यह तो गाँव की इज्ज़त का सवाल है। हमारे गाँव का आसामी गैर के सामने हाथ पसारेगा तो हमारी इज्ज़त कहाँ रही!"

"लेकिन हुज़ूर, सारी रियासत तो रेहन हो गई। अब कर्जा भी न मिलेगा तब क्या होगा?"

"जो ख़ुदा को मंजूर होगा। जाओ, दे दो बेटे, बहुत देर से बैठे हैं वे, न जाने उनके घर पर क्या बीत रही होगी! पाजी बरकन्दाज़ बड़े बदतमीज़ होते हैं।"

........

........

........

कल्यान मेहतर आसपास के भंगियों का चौधरी और सरपंच था। उसकी बड़ी इज्ज़त थी। इसलिये उसकी लड़की के ब्याह की धूमधाम भी साधारण न थी। चालीस गाँव के भंगियों को न्योता गया था। बारात आनेवाली थी लखनऊ से। बेटे का बाप भी नवाब का मेहतर था। उसका भी बड़ा रुआब-दबदबा था। बारात में वह लखनऊ की तवायफ़ें, बनारस के भांड, जौनपुर की आतिशबाजी और मिर्जापुर के कव्वाल लाया था ....

कल्यान बफरे शेर की तरह दहाड़ता हुआ आया, और आते ही बड़े मियाँ के सामने पैर फैलाकर बैठ गया। उसने कहा, "सरकार चाहे मारें चाहे बख़्शें, मगर मैं नखलऊ के नकटे को बेटी नहीं देने का।"

"क्यों, क्या हुआ? इस कदर बिगड़ क्यों रहे हो?"

"बस हुज़ूर, मर्द का कौल है। बस, हुक्म दीजिये बज्जातों को गाँव से बाहर किया जाये।"

"आखिर बात क्या है? कुछ कहोगे भी।"

"हुज़ूर, छोटी मुँह बड़ी बात! कहता है, समधी की मिलनी सरकार से करूँगा। सरकार जब यहाँ बैठे हैं तो वे ही लड़की के बाप हैं।"

"तो झूठ क्या कहता है? लड़की का बाप तो मैं ही तो हूँ। तुम्हारी ही क्या गाँव भर की लड़कियों का बाप मैं ही हूँ।"

"आप तो सरकार हमारे भी माई-बाप हैं, सरकार तो परमेसुर के रूप हैं। मेहतर की जाजम पर आकर आप बैठ गये। पर उस साले भंगी के बच्चे की यह ज़ुर्रत कि सरकार से समधी की मिलनी करेगा!"

"बस या और कुछ भी?"

"साला, चोट्टा, नखलऊ जाकर सारी बिरादरी में शेखी बघारेगा कि बड़े गाँव की बेटी ब्याह लाया हूँ, सरकार ने खुद समधी की मिलनी दी है।"

"वह कहाँ है?"

"वह क्या गुड़गुड़ी मुँह में लगाये बैठा है चोट्टा!"

"तो उसे बुलाओ कल्यान मियाँ।"

"हुज़ूर, वह आपके सामने बेअदबी कर बैठेगा तो नाहक खून हो जायेगा। बस हुक्म दीजिये, झाड़ू मारकर गाँव से बाहर करूँ।"

"उसे यहाँ बुलाओ।"

"लेकिन सरकार ....."

"हमारा हुक्म तुमने सुना नहीं कल्यान!"

कल्यान का और साहस नहीं हुआ। जाकर समधी को बुला लाया। उसके आते ही बड़े मियाँ दुशाला छोड़कर खड़े हो गये। दोनों हाथ फैलाकर कहने लगे, "आओ चौधरी, मिलनी कर लें। यह मैं अपनी बेटी तुम्हें दे रहा हूँ, भूलना नहीं।"

लखनऊ का मेहतर मूँछों में हँसता हुआ आगे बढ़ा। सारे भंगी दंग रह गये। चारों ओर भीड़ आ जुटी। कल्यान मोटा लट्ठ लेकर मियाँ और लखनऊ वाले के बीच खड़ा हो गया। उसने जोर से चिल्लाकर कहा, "नहीं हो सकता, जान से ही मार डालूँगा चौधरी जो आगे कदम बढ़ाया। अबे भंगी के बच्चे, तेरी यह मज़ाल, कि तू हमारे बादशाह की मिलनी लेगा, जो लालकिले के शहनशाहे हिन्द के रिश्तेदार हैं!"

..........
..........
.........

कभी न देखा-सुना दृश्य सामने था, जाजम पर चौरासी बरस के बड़े मियाँ, जिनकी रियासत और बड़प्पन की धूम दिल्ली के लालकिले तक थी, जो बाईस गाँवों का राजा था, शान्त-प्रसन्न मुद्रा में दोनों बाँहें पसारे खड़ा था, मेहतर से बगलगीर होने के लिये। उन्होंने प्रसन्नमुद्रा से कहा, "आओ चौधरी आगे बढ़ो। और तुम कल्यान, मेरे पास आओ, लाठी फेंक दो।"

कल्यान ने नीचे सिर झुका लिया। वह चुपचाप चौधरी के पीछे आ खड़ा हुआ। सहमते-सहमते लखनऊ का मेहतर आगे बढ़ा - और बड़े मियाँ ने दोनों बाँहों में उसे बाँध लिया।

..........
..........


(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोना और खून से सारांशित अंश)

चलते-चलते

आचार्य चतुरसेन जी ने शोध करके विक्रम संवत 1862 में रसद के क्या दाम थे पता किया और अपने उपन्यास "सोना और खून" में उल्लेखित किया हैः

".... साहू पूरा घाघ है। बहुत समझाने-बुझाने से यह रसद देने को राजी हुआ है, मगर भाव बहुत महँगे बताता है ......"

"क्या भाव बहुत महँगे हैं?"

"जी, गेहूँ रुपये का ढाई मन और चना साढ़े तीन मन के हिसाब से देगा।"

"गुड़ और शक्कर?"

"गुड़ सवा मन और शक्कर छत्तीस सेर देता है।"

"धान बाजरा और माश भी चाहिये।"

"धान रुपये का सवा दो मन, बाजरा साढ़े तीन मन और माश रुपये का पौने दो मन देता है।"

Wednesday, July 28, 2010

क्या करने आयें हिन्दी ब्लोग्स में?

कल चौक में मुहल्ले के कुछ युवा आपस में बतिया रहे थे। हमें पता है कि इन लोगों का अधिकतर समय आर्कुट और फेसबुक में विचरण करते हुए ही व्यतीत होता है। हमने सोचा कि ये लोग रोज नेट में सर्फिंग करते ही हैं तो क्यों ना इन्हें हिन्दी ब्लोग्स के प्रति आकर्षित किया जाये? यही सोचकर हम भी उनकी मण्डली में पहुँच गये। उम्र में बड़े होने के कारण वे सब हमें भैया सम्बोधित करते हैं। उन्होंने सम्मानपूर्वक हमें आसन दे दिया।

हमने पूछा, "तुम लोग सारा दिन नेट पर बैठते हो तो हिन्दी ब्लोग्स में क्यों नहीं आते?"

"दो-चार बार गये तो हैं भैया हिन्दी ब्लोग्स में, पर हमें कुछ जँचा नहीं।" महेन्द्र ने हमारे प्रश्न का उत्तर दिया।

हमने फिर पूछा, "क्या नहीं जँचा?"

इस पर कृष्ण कुमार ने कहा, "अब आप ही बताइये भैया क्या करने जायें हम हिन्दी ब्लोग्स में? यह जानने के लिये कि कहाँ पर बस और ट्रक की भिड़ंत हो गई है और कितने लोग मर गये हैं या घायल हो गये हैं? या यह जानने के लिये कि कहाँ पर खिलाड़ियों का कोटा कितना हो गया है? जिन बातों को हम दिन में पच्चीस बार टीव्ही में देख चुके होते हैं उन्हों को हिन्दी ब्लोग्स में फिर से पढ़ने आयें क्या?"

कृष्ण कुमार की बात पूरी होते ना होते पिंटू बोल उठा, "या यह पढ़ने के लिये कि कोई ब्लोगर यात्रा कर रहा था तो उसके कपड़े चोरी हो गये? कब और कहाँ पर कितने ब्लोगर आपस में मिले? ब्लोगर मीट में नाश्ते में परोसे गये समोसे कुरकुरे और स्वादिष्ट थे? गाय-भैंस, कुत्ते- बिल्ली के पिल्लों आदि के चित्र देखने आयें क्या?"

महेन्द्र ने बताया, "एक ब्लोग में मैं गया था तो उसमें इतनी जोरदार फिलॉसफी थी कि सिर से ऊपर ही ऊपर से गुजर गई। एक दो पैरा पढ़ने के बाद आगे पढ़ना दुश्वार हो गया।"

किसी ने कहा, "हमें क्या पड़ी है कि किसका जन्मदिन कब है जानने की? और किसने अपना जन्मदिन कैसे मनाया इससे भी हमें क्या मतलब है?"

एक और ने कहा, "भैया, मैं प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा हूँ और ये किशन फलाँ विषय में शोधकार्य कर रहा है। आप बताइये कि क्या हेल्प मिल सकता है हमें हिन्दी ब्लोग्स से?"

एक दक्षिण भारतीय युवक भी था वहाँ पर। उसने कहा, "भैया, मैं कामचलाऊ हिन्दी बोल जरूर लेता हूँ पर मुझे ठीक से हिन्दी नहीं आती। मैं हिन्दी सीखना चाहता हूँ। आप मुझे ऐसा ब्लोग बतायें जहाँ जाकर मैं हिन्दी सीख सकूँ!"

अब हम क्या कह सकते थे? वहाँ से खिसक लेने में ही हमने अपनी भलाई समझी और चुपचाप खिसक आये।

Tuesday, July 27, 2010

बस मुझमें ईमान नहीं है!

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

हट्टा-कट्टा मेरा तन है,
तन के भीतर चंचल मन है,
बहुत बड़ा परिवार है मेरा
घर में भी काफी ज्यादा धन है।

शिक्षा की कमी नहीं मुझमें,
डिग्री बहुत बढ़ा ली है,
हर शिक्षा संस्था में मैंने,
अपनी टांग अड़ा दी है।

राजनीति में भी अपनी ही,
तूती बोला करती है,
भोले-भाले लोगों का मन,
बुद्धि हमारी हरती है।

पंचों में मैं सरपंच बड़ा,
न्यायालय का कानूनी कीड़ा,
जनता की सेवा करने का,
उठा लिया है मैंने बीड़ा।

लोगों की नजरों में मैं हूँ,
बड़ा आदमी इस युग का,
सारे लोग कहा करते हैं,
धर्मवीर मुझे कलियुग का।

सभी दृष्टि से पूरा हूँ मैं,
पर मेरा सम्मान नहीं है, क्योंकि-
केवल एक कमी है मुझमें,
बस मुझमें ईमान नहीं है!

(रचना तिथिः शनिवार 27-11-1983)

Monday, July 26, 2010

गुरू पूर्णिमा? .... गुरूजी गुरूजी चाम चटिया ....

आज के ग्लैमर के जमाने में "गुरु पूर्णिमा" का महत्व ही भला क्या रह गया है। अधिकतर लोगों को तो यह भी पता नहीं होगा कि गुरु पूर्णिमा कब है क्योंकि आज के लोग अंग्रेजी तारीख को जानते हैं तिथि को नहीं। वैसे भी गुरु-शिष्य परम्परा आज रह ही कहाँ गया है? वह तो प्राचीनकाल में हुआ करती थी जब शिष्य को गुरु के आश्रम में जाकर विद्याअध्ययन करना पड़ता था। आज तो विद्यार्थी पब्लिक स्कूलों में पढ़ाई करते हैं जहाँ गुरूजी नहीं 'सर जी' और 'मैडम जी' हुआ करते हैं। गुरूजी नामक शब्द ही शेष रह गया है आज, वास्तव में गुरूजी तो किसी जमाने से ही दिवंगत हो चुके हैं, शायद इसीलिये कहा गया हैः

गुरूजी गुरू जी चाम चटिया गुरूजी मर गये उठा खटिया...

गुरु ज्ञान दिया करते थे इसीलिये उन्हें सर्वोच्च स्थान दिया गया था, उनका स्थान ब्रह्मा, विष्णु, महेश यहाँ तक कि परमात्मा से भी ऊपर थाः

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्‍वरः।
गुरुः साक्षातपरंब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः॥


और

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारीगुरु आपकी गोविन्द दियो मिलाय।।


किन्तु सर जी और मैडम जी शिक्षण और प्रशिक्षण देते हैं जो विद्यार्थी को यंत्रवत बनाते हैं। उनके शिक्षण और प्रशिक्षण का ही प्रभाव है कि आज आदमी मशीन के जैसे कार्य करता है धन कमाने के लिये।  और धन कमाने के साथ ही साथ वह बीपी, डायबिटीज, हाइपरटेंशन आदि बीमारी भी कमा लेता है। किसी ने सही ही कहा है किः

"Education makes machines which act like men and produces men who act like machines."

अर्थात् शिक्षा ऐसे यंत्र बनाती है जो मनुष्यवत कार्य करते हैं और ऐसे मनुष्यों का निर्माण करती है जो यंत्रवत कार्य करते हैं।


शायद कबीरदास जी ने भी इसी अर्थ में कहा रहा होगाः

जाको गुरु है आंधरा, चेला खरा निरंध।
अंधे अंधा ठेलिया, दोनो कूप पड़ंत॥


चलते-चलते

कबिरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहि ठौर॥

गुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि- गढ़ि काढय खोट।
अन्तर हाथ-सहार दय, बाहर- बाहर चोट॥

सब धरती कागद करूं, लेखनि सब बन राय।
सात समुद की मसि करूं गुरु गुन लिखा न जाए॥

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥

Sunday, July 25, 2010

वृष्टि पड़े टापुर-टुपर

टिपिर टिपिर.... टिपिर टिपिर.... टिपिर टिपिर....

दमकती हुई दामिनी! कड़कते हुए मेघ! झमाझम बरसती बरखा!

चहुँओर जल ही जल! पूरा रायपुर जलमय हो गया है! खारून नदी अपने उफान पर आ गई है, उसकी वेगवती धारा मानो सभी कुछ को बहा ले जाना चाहती है। जहाँ पर उच्छृंखल धारा चट्टान से टकराती है वहाँ पर की शुभ्रता मन को मोह लेती है।

कंक्रीट के पक्के मकानों की छतों के पाइप से गिरते हुए पानी से विचित्र प्रकार का नाद उत्पन्न हो रहा है पर एक समय था जब खपरैल वाले मकानों के छत से लगातार गिरने वाले पानी की ध्वनि एक मधुर संगीत के जैसी प्रतीत हुआ करती थी और खपरैलों से निकलने वाली मिट्टी की सुवास हृदय को विभोर कर दिया करती थी। बिसराम बूढ़ा उच्च स्वर में आल्हा गाया करता था "बड़े लड़ैया महोबेवाला जिनके बल को वार न पार ..."! उसकी आवाज पूरे मुहल्ले में गूँजा करती थी। झमाझम बारिश की परवाह ना करते हुए भुट्टे बेचने वाला चौक के बीच आकर अपना ठेला खड़ा कर दिया करता था और भुने जाने वाले भुट्टों की सोंधी महक अपनी ओर बरबस खींचने लगती थी। बरसते बरसात में निकलने की जरा भी इच्छा ना होने के बावजूद लोग छाता लेकर उसके ठेले तक पहुँच जाया करते थे भुट्टा खरीदने। नीबूरस, नमक और मिर्च लगे हुए भुने हुए भुट्टे खाने का अपना अलग ही मजा हुआ करता था।

गरजत बरसत सावन आयो रे ....

सावन!

ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसके मन में सावन की झमाझम बरसात किसी भी प्रकार का भाव उत्पन्न ना करे। सावन की रिमझिम बरखा हर किसी के मन में किसी ना किसी भाव को जगा देती है। जहाँ प्रेमी-युगल को उल्लासित करता है वहीं विरही-विरहन को घोर वेदना देता है यह सावन।

सावन के रिमझिम फुहार को देखकर कवि के हृदय में भाव स्वयमेव ही उठने लगते हैं! जहा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर बरबस ही गुनगुना उठते हैं "वृष्टि पड़े टापुर-टुपुर ..." वहीं रीतिकालीन कवि सेनापति की लेखनी कागद पर मसि से लिखने लग जाती हैः

दामिनी दमक, सुरचाप की चमक, स्याम
घटा की घमक अति घोर घनघोर तै।
कोकिला, कलापी कल कूजत हैं जित-तित
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तै॥
सेनापति आवन कह्यों हैं मनभावन, सु
लाग्यो तरसावन विरह-जुर जोर तै।
आयो सखि सावन, मदन सरसावन
लग्यो है बरसावन सलिल चहुँ ओर तै॥