टेसू के पेड़ों ने अपने पत्र-पल्लव के वस्त्रों को त्याग कर रक्तवर्ण पुष्प-गुच्छों से अपना श्रृंगार कर लिया है। सेमल के गगनचुम्बी वृक्षों पर भी पत्तों के स्थान पर केवल लाल-लाल फूल ही दृष्टिगत होने लगे हैं। खेतो ने सरसों के पीतवर्ण फूलों से स्वयं को आच्छादित कर लिया है। आसमान भी पीले-पीले पतंगों से सुसज्जित हो गया है। जिस तरफ भी दृष्टि जाती है, वसन्त की छटा ही दिखाई पड़ती है। वसन्त का यह सौन्दर्य समस्त संज्ञायुक्त तथा संज्ञाहीन चर-अचर प्राणियों को अपनी मर्यादा त्याग कर काम के वशीभूत होने के लिए विवश कर रहा है। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं हैं और नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं हैं। जहाँ प्रेमी-युगल अति प्रसन्न हैं वहीं एक विरहन, जिसका प्रिय परदेस में है, अपनी व्यथा से व्यथित हैः
नींद नहि आवै पिया बिना नींद नहि आवै।
मोहे रहि-रहि मदन सतावै पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि लागत मास असाढ़ा, मोरे प्रान परे अति गाढ़ा,
अरे वो तो बादर गरज सुनावै, परदेसी बलम नहि आवै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि सावन मास सुहाना, सब सखियाँ हिंडोला ताना,
अरे तुम झूलव संगी-सहेली, मैं तो पिया बिना फिरत अकेली।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि भादों गहन गंभीरा, मोरे नैन बहे जल-नीरा,
अरे मैं तो डूबत हौं मँझधारे, मोहे पिया बिना कौन उबारे।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि क्वाँर मदन तन दूना, मोरे पिया बिना मन्दिर सूना,
अरे मैं तो का से कहौं दुःख रोई, मैं तो पिया बिना सेज ना सोई।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि कातिक मास देवारी, सब दियना बारै अटारी,
अरे तुम पहिरौ कुसुम रंग सारी, मैं तो पिया बिना फिरत उघारी।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि अगहन अगम अंदेसू, मैं तो लिख-लिख भेजौं संदेसू,
अरे मैं तो नित उठ सुरुज मनावौं, परदेसी पिया को बुलावौं।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि पूस जाड़ अधिकाई, मोहे पिया बिन सेज ना भाई,
अरे मोरे तन-मन-जोबन छीना, परदेसी गवन नहि कीन्हा।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि माघ आम बौराए, चहुँ ओर बसंत बिखराए,
अरे वो तो कोयल कूक सुनावै, मोरे पापी पिया नहिं आवै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि फागुन मस्त महीना, सब सखियन मंगल कीन्हा,
अरे तुम खेलव रंगे गुलालै, मोहे पिया बिना कौन दुलारै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
मोहे रहि-रहि मदन सतावै पिया बिना नींद नहि आवै॥
पिया बिना नींद नहि आवै॥
नींद नहि आवै पिया बिना नींद नहि आवै।
मोहे रहि-रहि मदन सतावै पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि लागत मास असाढ़ा, मोरे प्रान परे अति गाढ़ा,
अरे वो तो बादर गरज सुनावै, परदेसी बलम नहि आवै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि सावन मास सुहाना, सब सखियाँ हिंडोला ताना,
अरे तुम झूलव संगी-सहेली, मैं तो पिया बिना फिरत अकेली।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि भादों गहन गंभीरा, मोरे नैन बहे जल-नीरा,
अरे मैं तो डूबत हौं मँझधारे, मोहे पिया बिना कौन उबारे।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि क्वाँर मदन तन दूना, मोरे पिया बिना मन्दिर सूना,
अरे मैं तो का से कहौं दुःख रोई, मैं तो पिया बिना सेज ना सोई।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि कातिक मास देवारी, सब दियना बारै अटारी,
अरे तुम पहिरौ कुसुम रंग सारी, मैं तो पिया बिना फिरत उघारी।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि अगहन अगम अंदेसू, मैं तो लिख-लिख भेजौं संदेसू,
अरे मैं तो नित उठ सुरुज मनावौं, परदेसी पिया को बुलावौं।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि पूस जाड़ अधिकाई, मोहे पिया बिन सेज ना भाई,
अरे मोरे तन-मन-जोबन छीना, परदेसी गवन नहि कीन्हा।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि माघ आम बौराए, चहुँ ओर बसंत बिखराए,
अरे वो तो कोयल कूक सुनावै, मोरे पापी पिया नहिं आवै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
सखि फागुन मस्त महीना, सब सखियन मंगल कीन्हा,
अरे तुम खेलव रंगे गुलालै, मोहे पिया बिना कौन दुलारै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥
मोहे रहि-रहि मदन सतावै पिया बिना नींद नहि आवै॥
पिया बिना नींद नहि आवै॥