Saturday, December 4, 2010

क्या हम अपने अतीत से शिक्षा लेते हैं?

सन् 712 में मोहम्मद-बिन-कासिम बिलोचिस्तान की विस्तृत मरुभूमि को पार करके सिन्ध तक चला आया। केवल बीस वर्ष आयु वाले उस लुटेरे के मात्र छः हजार घुड़सवारों के समक्ष सिन्ध के राजा दाहिर के दस हजार अश्वारोही और बीस हजार पैदल सैनिकों की सेना टिक न सकी और राजा दाहिर मारा गया। उस दुर्दान्त लुटेरे ने न केवल भारत-भूमि को पदाक्रान्त किया बल्कि वह भारत से सत्रह हजार मन सोना, छः हजार ठोस सोने की मूर्तियाँ, जिनमें से एक मूर्ति तीस मन की थी, और असंख्य हीरे-मोती-माणिक्य लूट कर ले गया।

सन् 1000 से 1027 के बीच गज़नी के महमूद ने 17 बार आक्रमण किया और भारत भूमि को रौंदता रहा। सन् 1000 में प्रथम बार पंजाब में राजा जयपाल पर आक्रमण करने के बाद निरन्तर उसका साहस बढ़ते रहा तथा सन् 1025 में गुजरात के सोमनाथ मंदिर की अकूत धन-सम्पदा को वह लूट ले गया।

चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। तैमूर केवल पन्द्रह दिन भारत में रहा और लूट-खसोट और कत्ले-आम करके लौट गया।

इसके कोई सवा सौ वर्ष बाद बाबर ने आक्रमण किया। यद्यपि मुगलों द्वारा भारत को ही अपना घर बना लेने के कारण भारत की सम्पत्ति उनके काल में भारत में ही रही, किन्तु लूटा तो उन्होंने भी हमें।

भारत की अकूत धन-सम्पदा ने सदैव ही लुटेरों को आकर्षित किया किन्तु अनेक बार लुटने के बावजूद भी भारत माता की अकूत धन-सम्पदा में किंचित मात्र भी कमी नहीं आई। सोने की चिड़िया कहलाती थी वह! दूध-दही की नदियाँ बहती थीं उसकी भूमि में! रत्नगर्भा वसुन्धरा थी उसके पास! शाहजहाँ और औरंगजेब का जमाना आने तक भारत भूमि न जाने कितनी बार लुट चुकी थी पर उसकी अपार सम्पदा वैसी की वैसी ही बनी हुई थी। इस बात का प्रमाण यह है कि दुनिया का कोई भी इतिहासज्ञ शाहजहाँ की धन-दौलत का अनुमान नहीं लगा सका है। उसका स्वर्ण-रत्न-भण्डार संसार भर में अद्वितीय था। तीस करोड़ की सम्पदा तो उसे अकेले गोलकुण्डा से ही प्राप्त हुई थी। उसके धनागार में दो गुप्त हौज थे। एक में सोने और दूसरे में चाँदी का माल रखा जाता था। इन हौजों की लम्बाई सत्तर फुट और गहराई तीस फुट थी। उसने ठोस सोने की एक मोमबत्ती, जिसमें गोलकुण्डा का सबसे बहुमूल्य हीरा जड़ा था और जिसका मूल्य एक करोड़ रुपया था, मक्का में काबा की मस्जिद में भेंट की थी। लोग कहते थे कि उसके पास इतना धन था कि फ्रांस और पर्शिया के दोनों महाराज्यों के कोष मिलाकर भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे। सोने के ठोस पायों पर बने हुए तख्त-ए-ताउस में दो मोर मोतियों और जवाहरात के बने थे। इसमें पचास हजार मिसकाल हीरे, मोती और दो लाख पच्चीस मिसकाल शुद्ध सोना लगा था, जिसकी कीमत सत्रहवीं शताब्दी में तिरपन करोड़ रुपये आँकी गई थी। इससे पूर्व इसके पिता जहांगीर के खजाने में एक सौ छियानवे मन सोना तथा डेढ़ हजार मन चाँदी, पचास हजार अस्सी पौंड बिना तराशे जवाहरात, एक सौ पौंड लालमणि, एक सौ पौंड पन्ना और छः सौ पौंड मोती थे। शाही फौज अफसरों की दो हजार तलवारों की मूठें रत्नजटित थीं। दीवाने-खास की एक सौ तीन कुर्सियाँ चाँदी की तथा पाँच सोने की थीं। तख्त-ए-ताउस के अलावा तीन ठोस चाँदी के तख्त और थे, जो प्रतिष्ठित राजवर्गी जनों के लिए थे। इनके अतिरिक्त सात रत्नजटित सोने के छोटे तख्त और थे। बादशाह के हमाम में जो टब सात फुट लम्बा और पाँच फुट चौड़ा था, उसकी कीमत दस करोड़ रुपये थी। शाही महल में पच्चीस टन सोने की तश्तरियाँ और बर्तन थे। वर्नियर कहता है कि बेगमें और शाहजादियाँ तो हर वक्त जवाहरात से लदी रहती थीं। जवाहरात किश्तियों में भरकर लाए जाते थे। नारियल के बराबर बड़े-बड़े लाल छेद करके वे गले में डाले रहती थीं। वे गले में रत्न, हीरे व मोतियों के हार, सिर में लाल व नीलम जड़ित मोतियों का गुच्छा, बाँहों में रत्नजटित बाजूबंद और दूसरे गहने नित्य पहने रहती थीं।

कालान्तर में भारत की इस अकूत धन-सम्पदा को पुर्तगालियों, फ्रांसिसियों और अंग्रेजों ने भी लूटा। सही मायनों में तो भारत माता को इन फिरंगियों ने ही लूटा और इस अकूत धन-सम्पदा की स्वामिनी को दरिद्रता की श्रेणी में लाकर रख दिया।

आखिर हमारी किस कमजोरी ने हमें हजार से भी अधिक वर्षों तक परतन्त्रता की बेड़ियाँ पहनाए रखी थीं?

हमारी कमजोरी थी हममें राष्ट्रीय भावना की कमी! कभी हम वैष्णव, शाक्त, तान्त्रिक, वाममार्गी, कापालिक, शैव और पाशुपत धर्म जैसे सैकड़ों मत-मतान्तर वाले बनकर बड़ी कट्टरता से परस्पर संघर्ष करते रहे तो कभी जाति भेद के आधार पर आपस में लड़ते रहे। सम्राट हर्षवर्धन के बाद अर्थात् ईसा की सातवीं शताब्दी के मध्य से लोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक लगभग नौ सौ वर्ष के समय में कोई सशक्त राजनीतिक शक्ति ऐसी न उत्पन्न हो पाई, जो समस्त भारत को एक सूत्र में बाँध सके। इन नौ सौ सालों में भारत छोटी-बड़ी, एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने वाली रियासतों के युद्ध का अखाड़ा बना रहा।

आज भी क्या हममें राष्ट्रीयता की भावना का उदय हो पाया है? क्या आज भी हम बोली-भाषा-प्रान्तीयता आदि के आधार पर आपस में लड़ नहीं रहे हैं? क्या आज भी हमारी गाढ़ी कमाई को विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ लूटकर विदेशों में पहुँचा रहे है? क्या हमारे ही देश के स्वार्थी तत्व हमारी सम्पदा को स्विस बैंकों में जमा नहीं कर रहे हैं?

क्या हमने कभी अपने अतीत से शिक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न किया है?

(इस पोस्ट में आँकड़े तथा विचार आचार्य चतुरसेन की कृतियों से लिए गए हैं।)

Thursday, December 2, 2010

कितनी तेजी से बदला है जमाना

अधिक नहीं, मात्र चालीसेक साल पहले हमारे समाज में स्टील के बर्तनों में खाना खाने को अकरणीय माना जाता था। जहाँ सम्पन्न परिवारों में सोने-चाँदी के बर्तनों का चलन था वहीं सर्वसाधारण लोग फूलकाँस के बर्तनों का प्रयोग किया करते थे। स्टील और अल्यूमीनियम के बर्तनों को हिकारत की नजर से देखा जाता था। आज फूलकाँस के बर्तन गाँवों में तो शायद कहीं दिखाई दे जाएँ किन्तु नगरों में तो ये विलुप्तप्राय हो चुके हैं। शहरों में ये बर्तन यदि कहीं दिखाई देते भी हैं तो विवाहादि समारोहों में जहाँ पर परम्परा के अनुसार कन्या को पाँच बर्तन दहेज के रूप में दिए जाते हैं।

सिर्फ पारम्परिक बर्तन ही नहीं बल्कि खाना पकाने की पारम्परिक विधि भी आज समाप्त हो चुकी है। आज मिट्टी के चूल्हे पर मिट्टी के बर्तन में खाना पकाने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। मिट्टी के चूल्हे पर मिट्टी की हांडी में चाँवल, मिट्टी के ही बर्तन में, जिसे छत्तीसगढ़ में कुरेड़िया कहा जाता है, सब्जी और पीतल की बटलोई में दाल पका कर मेरी माँ मुझे परसा करती थी उस खाने के लिए आज भी मेरा मन तरसता है।

Wednesday, December 1, 2010

गद्य की विधाएँ - उपन्यास

उपन्यास हिन्दी गद्य की विधाओं में से एक प्रमुख विधा है। उपन्यास का अर्थ है प्रस्तुत करना। उपन्यास लेखक अपने उपन्यास के पात्रों के चरित्र-चित्रण के बहाने तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, सास्कृतिक तथा आर्थिक वातावरण का प्रस्तुतीकरण करता है।

हिन्दी उपन्यासों का प्रारम्भ भारतेन्दु युग से हुआ। भारतेन्दु युग के प्रमुख उपन्यास हैं बाबू देवकीनन्दन खत्री रचित "चन्द्रकान्ता" और "चन्द्रकान्ता सन्तति", बालकृष्ण भट्ट रचित "नूतन ब्रह्मचारी" हरिऔध रचित "अधखिला फूल" और "ठेठ हिन्दी का ठाठ", अम्बिकादत्त व्यास रचित "आदर्श-वृत्तान्त" आदि।

बाद में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का उदय हुआ जिन्होंने विषय, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से उपन्यास विधा में उल्लेखनीय परिवर्तन किया। प्रेमचंद के प्रमुख उपन्यास हैं - गोदान, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि आदि। प्रेमचन्द के काल में जयशंकर 'प्रसाद', आचार्य चतुरसेन, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, विश्वम्भर नाथ कौशिक, वृन्दावन लाल वर्मा आदि लेखकों ने उपन्यास विधा के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। "कंकाल", "वैशाली की नगरवधू", "सोमनाथ", "चित्रलेखा", "तितली", "मृगनयनी" आदि उस युग के श्रेष्ठतम उपन्यास हैं।

हिन्दी के अन्य उपन्यासकारों में यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणु', रांगेय राघव, धर्मवीर भारती, विष्णु प्रभाकर, हिमांशु जोशी, भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, शिवानी आदि नाम उल्लेखनीय हैं।

Tuesday, November 30, 2010

क्या आर्य जाति ने सिन्धु घाटी सभ्यता पर आक्रमण करके उसे विनष्ट किया था?

पश्चिमी विद्वानों का मत है कि आर्यों का एक समुदाय भारत मे लगभग 2000 इस्वी ईसा पूर्व आया। इन विद्वानों की कहानी यह है कि आर्य इण्डो-यूरोपियन बोली बोलने वाले, घुड़सवारी करने वाले तथा यूरेशिया के सूखे घास के मैदान में रहने वाले खानाबदोश थे जिन्होंने ई.पू. 1700 में भारत की सिन्धु घाटी की नगरीय सभ्यता पर आक्रमण कर के उसका विनाश कर डाला और इन्हीं आर्य के वंशजों ने उनके आक्रमण से लगभग 1200 वर्ष बाद आर्य या वैदिक सभ्यता की नींव रखी और वेदों की रचना की।

इस बात के सैकड़ों पुरातात्विक प्रमाण हैं कि सिन्धु घाटी के के लोग बहुत अधिक सभ्य और समृद्ध थे जबकि इन तथाकथित घुड़सवार खानाबदोश आर्य जाति के विषय में कहीं कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। आखिर सिन्धु घाटी के लोग इनसे हारे कैसे? यदि यह मान भी लिया जाए कि वे घुड़सवार खानाबदोश अधिक शक्तिशाली और बर्बर थे इसीलिए वे जीत गए तो सवाल यह पैदा होता है कि इस असभ्य जाति के लोग आखिर इतने सभ्य कैसे हो गए कि वेद जैसे ग्रंथों की रचना कर डाली? और यह स्वभाव से घुमक्कड़ जाति 1200 वर्षों तक कहाँ रही और क्या करती रही। दूसरी ओर यह भी तथ्य है कि आर्यो के भारत मे आने का कोई प्रमाण न तो पुरातत्त्व उत्खननो से मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानो से। मजे की बात यह भी है कि उन्हीं आर्यों द्वारा रचित वेद आदि ग्रंथों में भी आर्यों के द्वारा सिन्धु घाटी सभ्यता पर आक्रमण करने का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। आर्य शब्द तो स्वयं ही कुलीनता और श्रेष्ठता का सूचक है फिर यह शब्द असभ्य, घुड़सवार, घुमन्तू खानाबदोश जाति के लिए कैसे प्रयुक्त हो सकता है?

वास्तविकता यह है कि उन्नीसवीं शताब्दी में एब्बे डुबोइस (Abbé Dubois) नामक एक फ्रांसीसी पुरातत्ववेत्ता भारत आया। वह कितना ज्ञानी था इस बात का अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रलय के विषय में पढ़कर प्रलय को नूह और उसकी नाव के साथ जोड़ने का प्रयास किया था जो कि एकदम मूर्खतापूर्ण असंगत बात थी। एब्बे की पाण्डुलिपि आज के सन्दर्भ में पूरी तरह से असामान्य हो चुकी है। इन्हीं एब्बे महोदय ने भारतीय साहित्य का अत्यन्त ही त्रुटिपूर्ण तथा कपोलकल्पित वर्णन, आकलन और अनुवाद किया जिस पर जर्मन पुरातत्ववेत्ता मैक्समूलर ने, जो कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के नाक के बाल बने हुए थे, अपनी भूमिका लिखकर सच्चाई का ठप्पा लगा दिया। मैक्समूलर के द्वारा सच्चाई का ठप्पा लग जाने ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आर्यों के द्वारा सिन्धुघाटी सभ्यता पर आक्रमण की कपोलकल्पित कहानी को इतिहास बना दिया।

Monday, November 29, 2010

हम ब्लोगर इसलिए हैं क्योंकि हममें लेखन प्रतिभा है

ईश्वर ने हमें अपने विचारों को लेखनीबद्ध करने कि प्रतिभा दी है इसीलिए हम ब्लोगर हैं। जाने कितने ही लोग हैं जो चाहकर भी अपने विचारों को कागज पर उतार नहीं सकते। तीनेक साल पहले तक मैं भी स्वयं को लेखन प्रतिभा से विहीन समझता था किन्तु अभ्यास करके मैंने इस प्रतिभा को अपने भीतर विकसित कर लिया। और मुझमें जब अपने विचारों को लेखनीबद्ध करने की योग्यता आ गई तो मैं ब्लोगर बन गया।

मनुष्यमात्र का यह स्वभाव है कि वह अपनी प्रतिभा का उपयोग करता है। यह उपयोग या तो सदुपयोग हो सकता है या दुरुपयोग हो सकता है या फिर महज एक उपयोग ही हो सकता है। जब कोई अपनी योग्यता का उपयोग करता है और उस उपयोग से समाज का, राष्ट्र का या अन्य अनेक लोगों का कल्याण होता है, राष्ट्र, समाज और लोगों तक उसकी योग्यता के माध्यम से कोई सार्थक सन्देश पहुँचता है तो योग्यता का यह उपयोग निःसन्देह सदुपयोग ही होता है और यदि इसके विपरीत होता है तो दुरुपयोग। किन्तु किसी की प्रतिभा से यदि किसी का न तो कल्याण होता है और न ही राष्ट्र, समाज और लोगों को किसी प्रकार की हानि ही पहुँचती है तो यह योग्यता का महज उपयोग हुआ।

कई बार मेरे मन में प्रश्न उठता है कि मैं अपनी प्रतिभा का उपरोक्त तीन प्रकार के उपयोगों में से किस प्रकार का उपयोग कर रहा हूँ? स्वयं को ही लगने लगता है कि मैं अपनी प्रतिभा का महज उपयोग मात्र कर रहा हूँ। और शायद वह भी इसलिए क्योंकि अपनी प्रतिभा का प्रयोग करने के लिए मुझे ब्लोगर रूपी मुफ्त मंच (free plateform) मिल गया है। जी हाँ, यह सही है कि यदि मुझे ब्लोगर बनने के लिए अपनी जेब से रुपये खर्च करने पड़ते तो मैं कदापि ब्लोगर न बना होता।

मैं जानता हूँ कि जिनमें लेखन की यह प्रतिभा नहीं है वे दूसरों को पढ़ना पसन्द करते हैं। किन्तु वे लोग मुझे पढ़ने के लिए लालायित कभी नहीं होते क्योंकि मैं अपनी प्रतिभा का महज उपयोग कर रहा हूँ, सदुपयोग नहीं।

यदि कभी मैं अपनी इस प्रतिभा से राष्ट्र, समाज, भाषा तथा अन्य लोगों का किंचित मात्र भी भला कर पाया तो मैं स्वयं को धन्य मानूँगा।

Sunday, November 28, 2010

गद्य की विधाएँ - कहानी

अंग्रेजी में जिसे 'शार्ट स्टोरी' कहते हैं उसी का प्रचलन हिंदी में कहानी के नाम से हुआ। बंगला में इसे गल्प कहा जाता है। कहानी ने अंग्रेजी से हिंदी तक की यात्रा बंगला के माध्यम से की। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा उपन्यास से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है।

मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार-नारद', 'गंगावतरण', 'श्रृंग', 'नहुष', 'ययाति', 'शकुन्तला', 'नल-दमयन्ती' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं।

प्राचीनकाल में सदियों तक प्रचलित वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस, समुद्री यात्रा, अगम्य पर्वतीय प्रदेशों में प्राणियों का अस्तित्व आदि की कथाएँ, जिनकी कथानक घटना प्रधान हुआ करती थीं, भी कहानी के ही रूप हैं। 'गुणढ्य' की "वृहत्कथा" को, जिसमें 'उदयन', 'वासवदत्ता', समुद्री व्यापारियों, राजकुमार तथा राजकुमारियों के पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य है, प्राचीनतम रचना कहा जा सकता है। वृहत्कथा का प्रभाव 'दण्डी' के "दशकुमार चरित", 'वाणभट्ट' की "कादम्बरी", 'सुबन्धु' की "वासवदत्ता", 'धनपाल' की "तिलकमंजरी", 'सोमदेव' के "यशस्तिलक" तथा "मालतीमाधव", "अभिज्ञान शाकुन्तलम्", "मालविकाग्निमित्र", "विक्रमोर्वशीय", "रत्नावली", "मृच्छकटिकम्" जैसे अन्य काव्यग्रंथों पर साफ-साफ परिलक्षित होता है।

इसके पश्‍चात् छोटे आकार वाली "पंचतंत्र", "हितोपदेश", "बेताल पच्चीसी", "सिंहासन बत्तीसी", "शुक सप्तति", "कथा सरित्सागर", "भोजप्रबन्ध" जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ ही साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और धर्म पर अधर्म की विजय दिखाई गई हैं।

किन्तु वर्तमान कहानियों पर सर्वाधिक प्रभाव अमेरिका के कवि-आलोचक-कथाकार 'एडगर एलिन पो' का है जिनके अनुसार एक सफल कहानी में एक केन्द्रीय कथ्य होता है जिसे प्रभावशाली और सघन बनाने के लिये कहानी के सभी तत्वों - कथानक, पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल, उद्देश्य - का उपयोग किया जाता है। श्री पो के अनुसार कहानी की परिभाषा इस प्रकार हैः

"कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्‍त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो।"


हिंदी कहानी को सर्वश्रेष्ठ रूप देने वाले 'प्रेमचन्द' ने भी श्री पो के विचारों को स्वीकारते हुये कहानी की परिभाषा इस प्रकार से की हैः

"कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।"


कहानी के तत्व

रोचकता, प्रभाव तथा वक्‍ता एवं श्रोता या कहानीकार एवं पाठक के बीच यथोचित सम्बद्धता बनाये रखने के लिये सभी प्रकार की कहानियों में कमोबेस निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण हैं:

कथावस्तु: किसी कहानी के ढाँचे को कथानक अथवा कथावस्तु कहा जाता है। प्रत्येक कहानी के लिये कथावस्तु का होना अनिवार्य है क्योंकि इसके अभाव में कहानी की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कथानक के चार अंग माने जाते हैं - आरम्भ, आरोह, चरम स्थिति एवं अवरोह।
  • 'आरम्भ' में कहानीकार कहानी के शीर्षक तथा प्रारमंभिक अनुच्छेदों के द्वारा पाठक को कथासूत्र से अवगत कराता है जिससे कि वह कहानी के प्रति आकर्षित होकर उसमें रमने लगे। सफल आरम्भ वह होता है जिसमें कि कहानी शुरू करते ही पाठका का मन कुतूहल और जिज्ञासा से भर जाये।
  • कहानी के विकास की अवस्था को कहानी का 'आरोह' कहते हैं। आरोह में कहानीकार घटनाक्रम को सहज रूप में प्रस्तुत करता है और पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का उद्‍घाटन करता है।
  • जब कहानी पढ़ते-पढ़ते पाठक कौतूहल की पराकाष्ठा में पहुँच जाये तो उसे कहानी की 'चरम स्थिति' कहते हैं।
  • पाठक को जब कहानी के उद्‍देश्य का प्रतिफल प्राप्त होता है उसे कहानी का 'अवरोह' अथवा 'अंत' कहते हैं। कहानी के अवरोह में संक्षिप्तता तथा मार्मिकता पर अधिक जोर दिया जाता है।
पात्र अथवा चरित्र-चित्रण: कहानी का संचालन उसके पात्रों के द्वारा ही होता है तथा पात्रों के गुण-दोष को उनका 'चरित्र चित्रण' कहा जाता है। जब पात्रों का चरित्र चित्रण कहानीकार के द्वारा किया जाता है तो उसे 'प्रत्यक्ष' चरित्र चित्रण कहते हैं और जब पात्रों का चरित्र चित्रण संवादों के द्वारा होता है तो उसे 'अप्रत्यक्ष' अथवा 'परोक्ष चरित्र' चित्रण कहा जाता है। परोक्ष चरित्र चित्रण को अधिक उपयुक्‍त माना जाता है।

कथोपकथन अथवा संवाद: कहानी के पात्रों के द्वारा किये गये उनके विचारों की अभिव्यक्‍ति को संवाद अथवा कथोपकथन कहते हैं। संवाद के द्वारा पात्रों के मानसिक अन्तर्द्वन्द एवं अन्य मनोभावों को प्रकट किया जाता है।

देशकाल अथवा वातावरण: कहानी में वास्तविकता का पुट देने के लिये देशकाल अथवा वातावरण का प्रयोग किया जाता है। यदि किसी कहानी में शाहजहाँ और मुमताज महल को आधुनिक कार में घूमते हुये बताया जाता है तो उसे हास्यास्पद ही माना जायेगा।

भाषा-शैली: कहानीकार के द्वारा कहानी के प्रस्तुतीकरण के ढंग को उसकी भाषा शैली कहा जाता है। प्रायः अलग-अलग कहानीकारों की भाषा-शैली भी अलग-अलग होती है।

उद्देश्य: कहानी केवल मनोरंजन के लिये ही नहीं होती, उसे एक निश्‍चित उद्देश्य लेकर लिखा जाता है।