Saturday, May 14, 2011

कुछ रोचक वैज्ञानिक तथ्य

  • प्रकाश की गति 186,000 मील प्रति सेकंड है।
  • सूर्य से पृथ्वी तक आने में प्रकाश को 8 मिनट 17 सेकंड लगते हैं।
  • पृथ्वी अपनी धुरी पर 1000 मील प्रति घण्टे की गति से घूमती है और अन्तरिक्ष में 67,000 मील प्रति घण्टे की गति से चक्कर लगाती है।
  • प्रतिवर्ष दस लाख भूकंप पृथ्वी को कँपाते हैं।
  • अब तक गिरे ओलों में सबसे बड़े ओले, जो कि बांग्लादेश में सन् 1986 में गिरा था, का वजन 1 किलो था।
  • गाज गिरने के कारण प्रतिवर्ष लगभग 1000 लोग मरते हैं।
  • वैज्ञानिक जानारी के अनुसार पृथ्वी का जन्म 4.56 अरब वर्ष पहले हुआ था।
  • DNA की खोज Swiss Friedrich Mieschler ने सन् 1869 में की थी।
  • वाट्सन (Watson) और क्रिक (Crick) ने सन् 1953 में DNA की आण्विक संरचना सुनिश्चित की थी।
  • थर्मामीटर की खोज सन् 1607 में गैलेलियो (Galileo) ने की थी।
  • आवर्धक लैंस (magnifying glass) की खोज इंग्लिशमैन रोगर बैकन  (Englishman Roger Bacon) ने सन् 1250 में की थी।
  • बारूद (dynamite) का आविष्कार अल्फ्रेड नोबल (Alfred Nobel) ने सन्  1866 में किया था।
  • भौतिक शास्त्र के लिए नोबल पुरस्कार प्रथम बार सन् 1895 में विल्थेलम रोन्टगन (Wilhelm Rontgen) को एक्स-रे की खोज के लिए मिला था।
  • क्रिश्चन बर्नाड (Christian Barnard) ने सन् 1967 में पहली बार हृदय प्रतिरोपण (heart transplant) किया था।
  • एक विद्युत पैदा करने वाली मछली  650 वोल्ट तक बिजली पैदा कर सकती है।
  • मनुष्य के पेट में पाया जाने वाला टेपवर्म (tapeworm) नामक कृमि  22.9 मीटर तक लंबा हो सकता है।
  • चिंपांजी  300 अलग अलग संकेतों को समझने की बुद्धि रखते हैं।
  • एबोला वायरस (Ebola virus) से इन्फेक्टेड प्रति 5 व्यक्तियों में स 4 की मृत्यु हो जाती है।
  • मनुष्य के शरीर में 60,000 मील लम्बी रक्त नलिकाएँ होती हैं।
  • एक रक्त कोशिका को सम्पूर्ण शरीर का एक चक्कर लगाने के लिए लगभग 60 सेकंड का समय लगता है।
  • टेलीफोन के आविष्कारक अलेक्जेंडर ग्राहम बेल (Alexander Graham Bell) की मृत्यु के पश्चात उनके पार्थिव शरीर को दफनाते समय उन्हे श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से सम्पूर्ण  US में  1 मिनट के लिए टेलीफोन सिस्टम को बंद रखा गया था।
  • ब्रह्माण्ड में 100 अरब आकाश गंगाएँ हैं।
  • चुम्बन लेने की अपेक्षा हाथ मिलाने में अधिक जर्म्स स्थानान्तरित होते हैं।
  • आकाश से गिरने वाली वर्षा की बूंदों की गति 18 मील प्रति घण्टे तक होती है।

Thursday, May 12, 2011

आम के आम गुठलियों के दाम

आम... अंबिया... कैरी....

एक समय था कि मेरे घर में कच्चे आमों के ढेर लगे रहते थे इन दिनों में और मेरी माँ तथा दादी उनका अचार बनाने की प्रक्रिया में व्यस्त रहती थीं। स्वयं के अठारह पेड़ों से तोड़ कर लाए जाते थे ये आम। चकरी (पत्थर की छोटी चक्की) में माँ सरसों दलती थीं और दादी दले हुए सरसों को सूप में डालकर उनका छिलटा अलग करती रहती थीं। फिर लाल मिर्च, नमक, करायत आदि मसाले कूटे जाते थे तथा तराजू में मसालों को निश्चित अनुपात में तौल कर मिलाया जाता था। सरौते के द्वारा कुछ कैरियों के टुकड़े कर दिए जाते थे पर अधिकतर आमों का भरवाँ अचार बनाने के लिए सिर्फ दो फाँकों मे ही विभक्त किया जाता था जो कि नीचे से जुड़े होते थे। सूजे के द्वारा भीतर की गुठली निकाल कर ठूँस-ठूँस कर अचार का मसाला भरा जाता था उनके भीतर। आज न माँ हैं, न दादी, न हमारे वो आम के पेड़ और न उस प्रकार से घर में अचार बनाने की प्रक्रिया। बहुएँ अब भरवाँ अचार बनाती ही नहीं।

अचार बनाने का कार्य तो मई जून में होता था किन्तु अप्रैल माह में रामनवमी के दिन आम के अपरिपक्व फलों का "गुराम" अवश्य ही बनाया जाता था, चाशनी में डुबोकर पकाए गए गुराम के बिना भगवान राम के जन्मोत्सव की खुशी अधूरी मानी जाती थी।

अप्रैल माह में गर्मी की शुरवात होते ही आम फलों का आवक शुरू हो जाता है,  बाजार में जहाँ देखो आम ही आम नजर आने लगते हैं, कच्चे और पक्के दोनों ही प्रकार के। अब भला किसका जी न ललचा जाएगा आमों को देखकर! शायद हर किसी के जी को ललचा देने के इस गुण के कारण ही आम को फलों का राजा माना गया है। जहाँ कच्चे आमों को देख कर मुँह में पानी भरने लगता है वहीं पक्के आमों को देखकर उनके लाजवाब और बेमिसाल स्वाद की कल्पना अनायास मन में घर करने लगती है।

भारत में आम कितने प्राचीन काल से लोकप्रिय है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वेदों में आम को विलास का प्रतीक बताया गया है, शतपथ ब्राह्मण में इस फल का उल्लेख मिलता है, आदिकाल से हवन में होम करने के लिए आम्रवृक्ष की लकड़ियों का ही प्रयोग किया जाता है, कालिदास ने अपने नाटकों में इसका गुण गाया है, सिकन्दर ने इसकी सराहना की है और मुगल बादशाह अकबर को तो आम इतने पसन्द थे कि उन्होंने दरभंगा में आम के एक लाख वृक्षारोपण किया था। आज भी अकबर का वह आम का बगीचा लाखी बाग के नाम से जाना जाता है।

आज भी भारत में मांगलिक कार्यों के लिए आम की लकड़ी, पत्ते और फलों को शुभ माना जाता है।

जहाँ कच्चे आम का अचार, मुरब्बा, चटनी आदि बना कर उसे लम्बे अरसे के लिए सुरक्षित किया जाता है वहीं पके आमों का अमरस या अमावट बनाकर।

आम की प्रजातियाँ भी अनेक प्रकार की होती हैं जिनमें से प्रमुख हैं - हापुस या अलफांजो, नीलम, सुन्दरी, तोतापरी, लंगड़ा, दसहरी, चौसा आदि। अलग-अलग प्रजातियों के आम की मँहक और स्वाद भी अलग-अलग होते हैं। प्रमुख प्रजातियों के अलावा देश के हरेक हिस्से में आम की अलग-अलग स्थानीय प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं।

आम न केवल भारत का राष्ट्रीय फल है और भारत में प्रतिवर्ष एक करोड़ टन से भी अधिक आम, जो कि संसार के कुल आम उत्पादन का लगभग 52% है, पैदा होता है बल्कि समस्त उष्ण कटिबंध के फलों में सर्वाधिक लोकप्रिय फल है। उल्लेखनीय है कि यदि आम के पेड़ को अनुकूल जलवायु मिले तो आम का वृक्ष पचास-साठ फुट तक ऊँचा हो जाता है।

बाजार में आम देखकर उसके विषय में कुछ अधिक जानकारी प्राप्त करने की इच्छा हुई तो थोड़ा गूगलिंग कर लिया जिससे जानकारी तो मिली ही और यह पोस्ट भी बन गई, तो इसे ही कहते हैं "आम के आम और गुठलियों के दाम"।

Wednesday, May 11, 2011

लोभिया ला लबरा ठगे

"लोभिया ला लबरा ठगे" छत्तीसगढ़ी का एक "हाना" अर्थात् लोकोक्ति है जिसका अर्थ है "लोभी व्यक्ति को झूठा आदमी ठग लेता है"।

देखा जाए तो यह लोभ या लालच संसार की सबसे बुरी बला है। चारे की लालच में मछली बंशी में फँस कर जान गवाँ देती है, दाने की लालच में पक्षी जाल में फँस जाते हैं, सहज में भोजन पाने के लालच में वन्य पशु भी मनुष्य की गिरफ्त में आ जाते हैं।

किन्तु यह भी ध्रुव सत्य है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति लोभी या लालची होता है, लालच या लोभ प्राणीमात्र की स्वाभाविक मानसिकता है। और प्राणीमात्र की इस कमजोरी का ही फायदा उठा कर मनुष्य मछली, पक्षी, वन्य पशुओं आदि को फाँस लेता है।

मनुष्य न केवल अन्य प्राणियों के बल्कि मनुष्यों के भी लालच की मानसिकता का फायदा उठाता है चारे के रूप में "फोकट" या "मुफ्त" शब्द का इस्तेमाल करके। वास्तव में "फ्री", "मुफ्त", "फोकट" जैसे शब्द अचूक हथियार हैं लोगों के भीतर की लालच को उभारने के लिए। ये शब्द लोगों को बरबस ही आकर्षित कर लेते हैं। मुफ्त में मिलने वाली चीज को छोड़ देना कोई भी पसंद नहीं करता। वो कहते हैं ना “माले मुफ्त दिले बेरहम”। किन्तु इस मुफ्त पाने के चक्कर में हम लोगों को कितना लूटा जाता है यह बहुत कम लोगों को ही पता होगा।

बाजार में आप "दो साबुन खरीदने पर एक साबुन बिल्कुल मुफ्त!" जैसी स्कीम रोज ही देखते होंगे। और इस स्कीम को जान कर हम खुश हो जाते हैं यह सोचकर कि एक साबुन हमें मुफ्त मिल रहा है, परिणामस्वरूप हम एक के बजाय तीन साबुन खरीद लेते हैं। तीन साबुन की फिलहाल हमें कतइ जरूरत नहीं है फिर भी हम तीन साबुन खरीद लेते हैं। क्यों? सिर्फ लालच में आकर। किन्तु हमें यह पता होना चाहिए कि जिसने हमें दो साबुन की कीमत में तीन साबुन दिए हैं उसने घाटा खाने के लिए दुकान नहीं खोला है, उसने हमसे कुछ न कुछ कमाया ही है। उसने अपनी कमाई के लिए हमारी लालच की मानसिकता का लाभ उठाते हुए हमें बेवकूफ बनाया है।

कैसे बेवकूफ बनाया है उसने?

मान लीजिये एक साबुन की कीमत पन्द्रह रुपये हैं तो दो साबुन के दाम अर्थात् तीस रुपये में आपको तीन साबुन मिलते हैं। जरा सोचिये, साबुन बनाने वाली कम्पनी बेवकूफ तो है नहीं जो कि बिना किसी लाभ के साबुन बेचेगी। तीस रुपये में तीन साबुन बेचने पर भी उसे लाभ ही हो रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि एक साबुन का मूल्य मात्र दस रुपये हैं। तो इस हिसाब से कम्पनी को साबुन का दाम पन्द्रह रुपये से कम करके दस रुपये कर देना चाहिये। पर कम्पनी दाम कम न कर के आपको एक मुफ्त साबुन का लालच देती है और आप लालच में आकर एक साबुन के बदले तीन साबुन खरीद लेते हैं जबकि दो अतिरिक्त खरीदे गये साबुनों की आपको फिलहाल बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। यदि कम्पनी ने दाम कम कर दिया होता तो आप दस रुपये में एक ही साबुन खरीदते और बाकी बीस रुपये का कहीं और सदुपयोग करते। इस तरह से दाम न घटाने का कम्पनी को एक और फायदा होता है वह यह कि यदि आप केवल एक साबुन खरीदेंगे तो आपको पन्द्रह रुपये देने पड़ेंगे। इस प्रकार से सिर्फ एक साबुन खरीदने पर मुनाफाखोर कम्पनी आपके पाँच रुपये जबरन लूट लेगी। बताइये यह व्यापार है या लूट?

भाई मेरे, यदि साबुन बिल्कुल मुफ्त है तो मुफ्त में दो ना, चाहे कोई दो साबुन खरीदे या ना खरीदे। ये दो साबुन खरीदने की शर्त क्यों रखते हो?

विडम्बना तो यह है कि अपनी गाढ़ी कमाई की रकम को लुटाने के लिये हम सभी मजबूर हैं क्योंकि सरकार ऐसे मामलों अनदेखा करती रहती है। इन कम्पनियों से सभी राजनीतिक दलों को मोटी रकम जो मिलती है चन्दे के रूप में।

सच बात तो यह है कि फ्री या मुफ्त में कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। किसी जमाने में पानी मुफ्त मिला करता था पर आज तो उसके भी दाम देने पड़ते हैं।

यदि कोई कुछ भी चीज मुफ्त में देता है तो अवश्य ही उसका स्वार्थ रहता है उसमें।

Tuesday, May 10, 2011

आवारा..... लोफर.....

आवारा..... लोफर.....  कहाँ गे रेहे अतेक घाम में? (कहाँ गए थे इतनी धूप में?)

ये शब्द होते थे मेरी दादी माँ के। बचपन के दिनों में स्कूल में गर्मी की छुट्टियों के दौरान दोपहर में जब मैं घर से चुपचाप दादी की आँख बचाकर निकल जाया करता था तो वापस घर आने पर दादी की ये डाँट मुझे सुननी पड़ती थी। आज न दादी है और न वो बचपन किन्तु दो शब्द अब भी हैं - आवारा..... लोफर.....

"आवारा" शब्द का अर्थ है बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर भटकना। आवारा का अर्थ प्रायः बदमाश के रूप में भी लिया जाता है। आवारा के लिए अंग्रेजी में लोफर (loafer) शब्द है जिसे हिन्दी भाषा में भी अपना लिया गया है।

आवारा शब्द की लोकप्रियता का अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि विष्णु प्रभाकर जी ने "आवारा मसीहा" उपन्यास लिख दिया, राज कपूर ने "आवारा" फिल्म बना दी, हमारे ब्लोगर बंधु संजीत त्रिपाठी जी ने "आवारा बंजारा" ब्लोग ही बना दिया।

फिल्मी गीतकारों ने भी आवारा शब्द का खूब इस्तेमाल किया है, यथा -

आवारा हूँ... या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ....
है अपना दिल तो आवारा....
इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा के मैं इक बादल आवारा...

आवारा से आवारगी शब्द बना है, लीजिए सुनिए "आवारगी" उनमान का गज़ल "आवारगी में हद से गुजर जाना चाहिये..."

Monday, May 9, 2011

हम भारतवासी इतने भी कृतघ्न नहीं हैं कि.....

अब साल में कम से कम एक दिन तो ऐसा आता है जिस दिन 'मदर' भी खुश रहती है और 'सन्स' एण्ड 'डाटर्स' भी। नहीं तो साल भर तो 'ममी' के खटर-पटर लगा ही रहता है। 'मदर' तो गिफ्ट मिलने से जितना खुश होती है उससे भी अधिक यह सोच कर खुश होती है कि चलो कम से कम एक दिन के लिए मुझे याद किया या याद करने का दिखावा तो किया जाता है।

पहले जब 'माताएँ' हुआ करती थीं तो मातृ ऋण भी हुआ करता था।  "मनुस्मृति" में तो कहा गया है "उपाध्याओं से दस गुना श्रेष्ठ आचार्य, आचार्य से सौ गुना श्रेष्ठ पिता और पिता से सहस्त्र गुना श्रेष्ठ माता का गौरव होता है। माता की कृतज्ञता से संतान सौ वर्षो में भी मुक्त नहीं हो सकती"। मातृ ऋण से उबरना किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता था। 'मदर' या 'ममी' का किसी प्रकार का उधार हम पर नहीं होता फिर भी हम मदर्स डे के दिन उन्हें गिफ्ट देकर खुश कर लेते हैं। कितने खराब थे पुराने संस्कार जिसमें हम माता, पिता, गुरु आदि के ऋणी हुआ करते थे और कितने अच्छे हैं आधुनिक संस्कार जिनमें हम उनके ऋणी होने के बजाय गिफ्ट आदि देकर उन्हें ही अपना ऋणी बना लेते हैं। इसी कारण से तो आज पुराने संस्कार खत्म होते जा रहे हैं और नये संस्कार हमारे भीतर घर करते जा रहे हैं।

वैसे भी हम भारतवासी वात्सल्य, स्नेह, प्रेम की अमृत धाराएँ प्रदान करने वाली माता के मातृ-ऋण को भले ही भूल जायें, पर हम इतने कृतघ्न भी नहीं है कि साल में एक दिन मदर्स डे मनाकर अपनी माँ को खुश भी ना कर सकें।

Sunday, May 8, 2011

पतित को पशु कहना कहाँ तक उचित?

पतित शब्द का मूल है "पतन" और इसका अर्थ है गिरा हुआ। एक भ्रष्ट व्यक्ति, चाहे वह नेता हो या अफसर, नैतिक रूप से गिरा हुआ ही होता है याने कि पतित होता है। प्रायः लोग इनकी तुलना कुत्ते से करते हैं। किन्तु यह तुलना क्या उचित है? क्या कुत्ते का आचरण भ्रष्ट व्यक्ति के आचरण जैसा होता है? वास्तव में देखा जाए तो भ्रष्ट व्यक्ति की तुलना कुत्ते से करना कुत्ते का अपमान है। क्या विचार है आपका? पतित को पशु कहना कहाँ तक उचित है?

मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में -

करते हैं हम पतित जनों में, बहुधा पशुता का आरोप;
करता है पशु वर्ग किन्तु क्या, निज निसर्ग नियमों का लोप?
मैं मनुष्यता को सुरत्व की, जननी भी कह सकता हूँ,
किन्तु पतित को पशु कहना भी, कभी नहीं सह सकता हूँ॥

(पंचवटी खण्डकाव्य से)