जुलाई का महीना आ गया। यह जुलाई का महीना हमारे लिए अपनी पिछली कक्षा की पुस्तकों को आधी कीमत में बेचने तथा नई कक्षा के लिए आधी कीमत में पुस्तकें खरीदने का हुआ करता था। हमारे शहर रायपुर के सत्ती बाजार स्थित श्री राम स्टोर्स, जो कि उन दिनों पुरानी पुस्तकें खरीदने तथा बेचने का एकमात्र स्थान हुआ करता था, के सामने स्कूल के विद्यार्थियों की भीड़ जमा होती थी। बच्चे आते थे श्री राम स्टोर्स में अपनी किताबें बेचकर अगली कक्षा की किताबें खरीदने के उद्देश्य से किन्तु कुछ पैसे बचाने की लालच में स्वयं एक दूसरे से ही खरीदना और बेचना शुरू कर दिया करते थे। एक दूसरे से वार्तालाप शुरू हो जाया करता था - "ए तेरे को चौथी कक्षा का सामाजिक अध्ययन चाहिए क्या?" "नहीं मुझे तो सामान्य विज्ञान की पुस्तक चाहिए" "तेरे पास बाल भारती है क्या?" और दुकान संचालक डाँट-डाँट कर उन्हें भगाना शुरू कर देता था क्योंकि उससे उसका धंधा जो चौपट होने लगता था। थोड़ी देर के लिए तो बच्चे दूर भाग जाते थे पर कुछ ही देर बाद फिर से वहीं इकट्ठे होकर अपना वही काम शुरू कर देते थे।
पर आज के स्कूलों में तो हर साल ही पुस्तकों को बदल देने की परिपाटी चल पड़ी है। क्यों न चले आखिर? यदि बच्चे पुरानी पुस्तकों को आपस में एक-दूसरे को बेचने-खरीदने लगें तो स्कूलों से या स्कूल द्वारा नियत दुकानों से पुस्तकें कौन खरीदेगा? स्कूलों को मिलने वाले कमीशन का क्या होगा? आज तो स्कूलों में न केवल कापी-किताब बल्कि वस्त्र, टाई, जूते, मोजे सभी कुछ बिक रहे हैं। आज तो स्कूल में ही दुकान है पर लगता है कि आने वाले दिनों में दुकानों में स्कूल हुआ करेगा।
Friday, July 1, 2011
Thursday, June 30, 2011
रोपै बिरवा आक को आम कहाँ ते होइ
वृन्द के दोहे
करै बुराई सुख चहै कैसे पावै कोइ।
रोपै बिरवा आक को आम कहाँ ते होइ॥
भली करत लागति बिलम बिलम न बुरे विचार।
भवन बनावत दिन लगै ढाहत लगत न वार॥
जाही ते कछु पाइए करिए ताकी आस।
रीते सरवर पै गए कैसे बुझत पियास॥
अपनी पहुँच बिचार कै करतब करिए दौर।
तेते पाँव पसारिए जेती लांबी सौर॥
नीकी पै फीकी लगै बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में रस श्रृंगार न सुहात॥
विद्याधन उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन?
बिना डुलाये ना मिले ज्यों पंखा की पौन॥
कैसे निबहै निबल जन कर सबलन सों गैर।
जैसे बस सागर विषै करत मगर सों बैर॥
फेर न ह्वै हैं कपट सों जो कीजै व्यौपार।
जैसे हांडी काठ की चढ़ै न दूजी बार॥
बुरे लगत सिख के बचन हियै विचारौ आप।
करुवी भेषज बिन पियै मिटै न तन की ताप॥
करिए सुख की होत दुःख यह कहो कौन सयान।
वा सोने को जारिए जासों टूटे कान॥
भले बुरे सब एक सौं जौं लौं बोलत नाहि।
जानि परतु है काक पिक ऋतु वसंत के माहि॥
नयना देत बताय सब हिय की हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी भली बुरी कहि देत॥
रोष मिटै कैसे कहत रिस उपजावन बात।
ईंधन डारै आग मों कैसे आग बुझात॥
अति परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चंदन देति जराय॥
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै केतक सींचौ नीर॥
जिहि प्रसंग दूषण लगे तजिए ताको साथ।
मदिरा मानत है जगत दूध कलाली हाथ॥
उत्तम जन सो मिलत ही अवगुन सौ गुन होय।
घन संग खारौ उदधि मिलि बरसै मीठो तोय॥
कुल सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥
क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदी कुआँ कैसे निकसे तोय॥
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
करै बुराई सुख चहै कैसे पावै कोइ।
रोपै बिरवा आक को आम कहाँ ते होइ॥
भली करत लागति बिलम बिलम न बुरे विचार।
भवन बनावत दिन लगै ढाहत लगत न वार॥
जाही ते कछु पाइए करिए ताकी आस।
रीते सरवर पै गए कैसे बुझत पियास॥
अपनी पहुँच बिचार कै करतब करिए दौर।
तेते पाँव पसारिए जेती लांबी सौर॥
नीकी पै फीकी लगै बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में रस श्रृंगार न सुहात॥
विद्याधन उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन?
बिना डुलाये ना मिले ज्यों पंखा की पौन॥
कैसे निबहै निबल जन कर सबलन सों गैर।
जैसे बस सागर विषै करत मगर सों बैर॥
फेर न ह्वै हैं कपट सों जो कीजै व्यौपार।
जैसे हांडी काठ की चढ़ै न दूजी बार॥
बुरे लगत सिख के बचन हियै विचारौ आप।
करुवी भेषज बिन पियै मिटै न तन की ताप॥
करिए सुख की होत दुःख यह कहो कौन सयान।
वा सोने को जारिए जासों टूटे कान॥
भले बुरे सब एक सौं जौं लौं बोलत नाहि।
जानि परतु है काक पिक ऋतु वसंत के माहि॥
नयना देत बताय सब हिय की हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी भली बुरी कहि देत॥
रोष मिटै कैसे कहत रिस उपजावन बात।
ईंधन डारै आग मों कैसे आग बुझात॥
अति परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चंदन देति जराय॥
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फरै केतक सींचौ नीर॥
जिहि प्रसंग दूषण लगे तजिए ताको साथ।
मदिरा मानत है जगत दूध कलाली हाथ॥
उत्तम जन सो मिलत ही अवगुन सौ गुन होय।
घन संग खारौ उदधि मिलि बरसै मीठो तोय॥
कुल सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥
क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदी कुआँ कैसे निकसे तोय॥
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
Tuesday, June 28, 2011
जनता की याददाश्त और हिन्दी ब्लोग पोस्ट - दोनों ही की उम्र मात्र 24 घंटे
परसों डीजल, गैस और मिट्टीतेल का दाम बढ़ने पर कितना हंगामा हुआ। विभिन्न चैनलों पर दिन भर इस विषय पर बहस चलते रहे। मँहगाई बढ़ने की चर्चा चलती रही। रूलिंग पार्टी दाम बढ़ाने के अपने इस कृत्य को जायज ठहराती रही और विपक्ष नाजायज। मँहगाई के इस मुद्दे पर जनता के भीतर आक्रोश भरते रहा।
पर दूसरे ही दिन मीडिया को नए समाचार मिल गए दिखाने के लिए इसलिए दाम बढ़ने और मँहगाई बढ़ने का मुद्दा चैनलों से नदारद तथा इसके साथ ही जनता का आक्रोश गायब। सब कुछ सामान्य हो गया क्योंकि जनता की याददाश्त बेहद ही कमजोर होती है, मात्र चौबीस घंटों में ही वह सब कुछ भूल जाती है, यहाँ तक कि अपने ऊपर हुए अन्याय और अत्याचार तक को भी। और जनता याद भी रखे तो कैसे? उसे तो अपने परिवार पालने के लिए कोल्हू के बैल के माफिक जुटे रहना पड़ता है अपने काम में। यदि कोई एक बार काम में लग जाए तो दुनिया-जहान सब कुछ भूल ही जाता है।
जनता की कमजोर याददाश्त होने के साथ ही एक अन्य और कमजोरी है - वह है आसानी के साथ उसका ध्यान बँटा लिया जाना। काले धन के मुद्दे से उसका ध्यान बँटाना है तो उसके ध्यान को अनशनकर्ता के द्वारा महिलाओं के वस्त्र पहनने या उसके भगोड़ा होने की ओर खींच दो। बस जनता काले धन के मुद्दे को भूल कर व्यक्तिविशेष के क्रियाकलाप को मुद्दा बना लेती है।
जनता की इन दोनों कमजोरियों का सबसे अधिक नुकसान जनता को ही मिलता है और सबसे अधिक फायदा मिलता है तथाकथित राजनीतिक दलों और मीडिया को।
ईश्वर करे कि जनता की स्मरणशक्ति हमेशा कमजोर ही रहे नहीं तो उसके भीतर का आक्रोश ही उसे मार डालेगा। भलाई इसी में है कि जनता हमेशा पिसती ही रहे और उसे अपनी मुट्ठी में रखने वाले तिकड़मी हमेशा ऐश करते रहें, सो भी जनता के ही कमाए पैसों से!
जय जनता जनार्दन!
वैसे जनता की याददाश्त की उमर की तरह से ही हिन्दी ब्लोग पोस्टों की उमर भी चौबीस घंटे ही होती है। चौबीस घंटे बीते नहीं कि पोस्ट का महत्व समाप्त। कई बार तो ब्लोगर स्वयं भी भूल जाता है कि कुछ दिन पहले उसने क्या पोस्ट किया था।
फिर भी कहा जाता है (जनता की कमजोर याददाश्त के कारण) देश की भी तरक्की हो रही है और (हिन्दी ब्लोग पोस्टों के अल्पायु होने के कारण) हिन्दी की भी!
पर दूसरे ही दिन मीडिया को नए समाचार मिल गए दिखाने के लिए इसलिए दाम बढ़ने और मँहगाई बढ़ने का मुद्दा चैनलों से नदारद तथा इसके साथ ही जनता का आक्रोश गायब। सब कुछ सामान्य हो गया क्योंकि जनता की याददाश्त बेहद ही कमजोर होती है, मात्र चौबीस घंटों में ही वह सब कुछ भूल जाती है, यहाँ तक कि अपने ऊपर हुए अन्याय और अत्याचार तक को भी। और जनता याद भी रखे तो कैसे? उसे तो अपने परिवार पालने के लिए कोल्हू के बैल के माफिक जुटे रहना पड़ता है अपने काम में। यदि कोई एक बार काम में लग जाए तो दुनिया-जहान सब कुछ भूल ही जाता है।
जनता की कमजोर याददाश्त होने के साथ ही एक अन्य और कमजोरी है - वह है आसानी के साथ उसका ध्यान बँटा लिया जाना। काले धन के मुद्दे से उसका ध्यान बँटाना है तो उसके ध्यान को अनशनकर्ता के द्वारा महिलाओं के वस्त्र पहनने या उसके भगोड़ा होने की ओर खींच दो। बस जनता काले धन के मुद्दे को भूल कर व्यक्तिविशेष के क्रियाकलाप को मुद्दा बना लेती है।
जनता की इन दोनों कमजोरियों का सबसे अधिक नुकसान जनता को ही मिलता है और सबसे अधिक फायदा मिलता है तथाकथित राजनीतिक दलों और मीडिया को।
ईश्वर करे कि जनता की स्मरणशक्ति हमेशा कमजोर ही रहे नहीं तो उसके भीतर का आक्रोश ही उसे मार डालेगा। भलाई इसी में है कि जनता हमेशा पिसती ही रहे और उसे अपनी मुट्ठी में रखने वाले तिकड़मी हमेशा ऐश करते रहें, सो भी जनता के ही कमाए पैसों से!
जय जनता जनार्दन!
वैसे जनता की याददाश्त की उमर की तरह से ही हिन्दी ब्लोग पोस्टों की उमर भी चौबीस घंटे ही होती है। चौबीस घंटे बीते नहीं कि पोस्ट का महत्व समाप्त। कई बार तो ब्लोगर स्वयं भी भूल जाता है कि कुछ दिन पहले उसने क्या पोस्ट किया था।
फिर भी कहा जाता है (जनता की कमजोर याददाश्त के कारण) देश की भी तरक्की हो रही है और (हिन्दी ब्लोग पोस्टों के अल्पायु होने के कारण) हिन्दी की भी!
Monday, June 27, 2011
एक ही समय में मैं सुकृत्य भी करता हूँ साथ ही साथ कुकृत्य भी
मैं सुन्दरकाण्ड का पाठ शुरू करता हूँ पर पाठ शुरू करने के बाद पाठ करते करते ही मैं यह भी सोच रहा हूँ कि कॉलेज में जब मैं पढ़ता था तो वह मेरी सहपाठिनी....
क्या कर क्या रहा हूँ मैं?
सुन्दरकाण्ड का पाठ करके सकृत्य?
या विवाहित होते हुए भी किसी अन्य का, जिसका किसी अन्य के साथ विवाह हो चुका है, खयाल करके कुकृत्य?
वास्तव में हम हम ऐसे बहुत से काम काम करते हैं जिनके विषय में हमें पता ही नहीं होता कि हमने वे काम कैसे कर लिया। उदाहरण के लिए आप आफिस जाने के लिए अपने घर से बाइक स्टार्ट करते हैं। बाइक पर सवार होने के बाद चलना शुरू करते ही आपका मस्तिष्क आपके किसी घरेलू समस्या या आगे घूमने जाने की योजना या इसी प्रकार की किसी अन्य बात के विषय में सोचना शुरू कर देता है। घर से आफिस पहुँचने तक आपके सोचने का सिलसिला चलते ही रहता है। रास्ते में चौराहा आता है और आपकी बाइक मुड़ जाती है, सामने कोई आता है और आपका पैर ब्रेक लगा देता है, ट्रैफिक की लाल बत्ती सामने आने पर बाइक उसके हरे होते तक रुकी रहती है और बत्ती के हरा होते ही फिर चल पड़ती है, ये सारे काम होते रहते हैं पर आपका सोचने का सिलसिला अनवरत रूप से चलते रहता है, एक पल के लिए भी नहीं रुकता। जब आप आफिस पहुँचते हैं तो आपकी बाइक स्टैंड में जाकर रुक जाती है और तब आपके सोचने का सिलसिला टूटता है। अब आप यह सोचने लगते हैं कि अरे मैं तो आफिस पहुँच गया। आप यह तो समझ पाते हैं कि आप सोचने का काम कर रहे हैं किन्तु आप यह जरा भी नहीं समझ पाते कि आप आफिस कैसे पहुँच गए, कैसे बाइक कहीं मुड़ा, कहीं रुका, कहीं पर ब्रेक लगा और आफिस में आकर कैसे स्टैंड पर खड़ा हो गया।
अब आप बताइए कि रास्ते भर तो आप सोचने का ही काम करते रहे हैं तो फिर बाइक को चलाने का काम किसने किया?
वास्तव में सोचने का और बाइक चलाने का दोनों ही काम आपने ही किया है किन्तु आपको स्वयं नहीं पता होता कि आपने बाइक कैसे चला लिया। सही बात तो यह है कि हमारे मस्तिष्क को अलग भाग इन दोनों कामों को अलग-करता है, आपका चेतन (conscious) मस्तिष्क सोचने का कार्य करता है और अचेतन (semi conscious) मस्तिष्क बाइक चलाने का।
हमारा यह अचेतन (semi conscious) मस्तिष्क हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हर उस कार्य को पूरा करता है जिसे शुरू तो हमारा चेतन (conscious) मस्तिष्क करता है और शुरू करने के बाद दूसरी ओर भटक जाता है। ऊपर के उदाहरण में भी बाइक चलाने का काम शुरू करने के बाद हमारा चेतन (conscious) मस्तिष्क भटक गया और दूसरी बात सोचने का काम करने लगा किन्तु उसके द्वारा शुरू किए गए कार्य को अचेतन (semi conscious) मस्तिष्क ने पूरा कर दिया। अचेतन मस्तिष्क चेतन के भटक जाने पर उसके शुरू किए गए काम को पूरा तो करता ही है पर इसके अलावा और भी बहुत सारे कार्य करता है। अनायास ही अनमना हो जाना या खुशी महसूस होना आदि भी अचेतन की की क्रियाएँ हैं। चौबीस घंटों में एक क्षण भी यह अचेतन आराम नहीं करता। नींद में सो जाने पर यह हमें सपने दिखाता है, जागृत अवस्था में जब कोई अन्य हमारे पास न हो तो यह हमें स्वयं से बातें भी करवाता है। इसीलिए तो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा हैः
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
अस्तु, यह अचेतन कई बार हमें अपने विचारों में इतना तल्लीन करा देता है कि हम किसी स्थान पर होते हुए भी वहाँ पर नहीं होते।
चेतन अत्यन्त चंचल होता है इसीलिए हमेशा भटकता रहता है। मैं न तो चेतन को रोक पाता हूँ और न ही अचेतन को। मेरा जरा भी तो नियन्त्रण नहीं है इन दोनों पर। चेतन और अचेतन मुझे जैसा चलाना चाहते हैं वैसा ही मैं चलता हूँ। मैं इन्हें अपने अनुसार नहीं चला पाता। शायद हिन्दू दर्शन में इन्हें भी इन्द्रिय की ही संज्ञा दी गई है तथा इन पर नियन्त्रण करने का उपदेश दिया गया है। ध्यान, योग आदि वे विधियाँ हैं जिनके द्वारा इन्हें नियन्त्रित किया जा सकता है।
क्या कर क्या रहा हूँ मैं?
सुन्दरकाण्ड का पाठ करके सकृत्य?
या विवाहित होते हुए भी किसी अन्य का, जिसका किसी अन्य के साथ विवाह हो चुका है, खयाल करके कुकृत्य?
वास्तव में हम हम ऐसे बहुत से काम काम करते हैं जिनके विषय में हमें पता ही नहीं होता कि हमने वे काम कैसे कर लिया। उदाहरण के लिए आप आफिस जाने के लिए अपने घर से बाइक स्टार्ट करते हैं। बाइक पर सवार होने के बाद चलना शुरू करते ही आपका मस्तिष्क आपके किसी घरेलू समस्या या आगे घूमने जाने की योजना या इसी प्रकार की किसी अन्य बात के विषय में सोचना शुरू कर देता है। घर से आफिस पहुँचने तक आपके सोचने का सिलसिला चलते ही रहता है। रास्ते में चौराहा आता है और आपकी बाइक मुड़ जाती है, सामने कोई आता है और आपका पैर ब्रेक लगा देता है, ट्रैफिक की लाल बत्ती सामने आने पर बाइक उसके हरे होते तक रुकी रहती है और बत्ती के हरा होते ही फिर चल पड़ती है, ये सारे काम होते रहते हैं पर आपका सोचने का सिलसिला अनवरत रूप से चलते रहता है, एक पल के लिए भी नहीं रुकता। जब आप आफिस पहुँचते हैं तो आपकी बाइक स्टैंड में जाकर रुक जाती है और तब आपके सोचने का सिलसिला टूटता है। अब आप यह सोचने लगते हैं कि अरे मैं तो आफिस पहुँच गया। आप यह तो समझ पाते हैं कि आप सोचने का काम कर रहे हैं किन्तु आप यह जरा भी नहीं समझ पाते कि आप आफिस कैसे पहुँच गए, कैसे बाइक कहीं मुड़ा, कहीं रुका, कहीं पर ब्रेक लगा और आफिस में आकर कैसे स्टैंड पर खड़ा हो गया।
अब आप बताइए कि रास्ते भर तो आप सोचने का ही काम करते रहे हैं तो फिर बाइक को चलाने का काम किसने किया?
वास्तव में सोचने का और बाइक चलाने का दोनों ही काम आपने ही किया है किन्तु आपको स्वयं नहीं पता होता कि आपने बाइक कैसे चला लिया। सही बात तो यह है कि हमारे मस्तिष्क को अलग भाग इन दोनों कामों को अलग-करता है, आपका चेतन (conscious) मस्तिष्क सोचने का कार्य करता है और अचेतन (semi conscious) मस्तिष्क बाइक चलाने का।
हमारा यह अचेतन (semi conscious) मस्तिष्क हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हर उस कार्य को पूरा करता है जिसे शुरू तो हमारा चेतन (conscious) मस्तिष्क करता है और शुरू करने के बाद दूसरी ओर भटक जाता है। ऊपर के उदाहरण में भी बाइक चलाने का काम शुरू करने के बाद हमारा चेतन (conscious) मस्तिष्क भटक गया और दूसरी बात सोचने का काम करने लगा किन्तु उसके द्वारा शुरू किए गए कार्य को अचेतन (semi conscious) मस्तिष्क ने पूरा कर दिया। अचेतन मस्तिष्क चेतन के भटक जाने पर उसके शुरू किए गए काम को पूरा तो करता ही है पर इसके अलावा और भी बहुत सारे कार्य करता है। अनायास ही अनमना हो जाना या खुशी महसूस होना आदि भी अचेतन की की क्रियाएँ हैं। चौबीस घंटों में एक क्षण भी यह अचेतन आराम नहीं करता। नींद में सो जाने पर यह हमें सपने दिखाता है, जागृत अवस्था में जब कोई अन्य हमारे पास न हो तो यह हमें स्वयं से बातें भी करवाता है। इसीलिए तो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा हैः
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
अस्तु, यह अचेतन कई बार हमें अपने विचारों में इतना तल्लीन करा देता है कि हम किसी स्थान पर होते हुए भी वहाँ पर नहीं होते।
चेतन अत्यन्त चंचल होता है इसीलिए हमेशा भटकता रहता है। मैं न तो चेतन को रोक पाता हूँ और न ही अचेतन को। मेरा जरा भी तो नियन्त्रण नहीं है इन दोनों पर। चेतन और अचेतन मुझे जैसा चलाना चाहते हैं वैसा ही मैं चलता हूँ। मैं इन्हें अपने अनुसार नहीं चला पाता। शायद हिन्दू दर्शन में इन्हें भी इन्द्रिय की ही संज्ञा दी गई है तथा इन पर नियन्त्रण करने का उपदेश दिया गया है। ध्यान, योग आदि वे विधियाँ हैं जिनके द्वारा इन्हें नियन्त्रित किया जा सकता है।
Sunday, June 26, 2011
भगवान शिव के अन्य नाम
भगवान शिव के अन्य नाम हैं
- शंकर
- शम्भु
- रुद्र
- महादेव
- उमापति
- वामदेव
- त्रिलोचन
- त्रिपुरान्तक
- त्रिपुरारि
- गंगाधर
- हर
- स्मरहर
- ईश
- पशुपति
- महेश्वर
- चन्द्रशेखर
- गिरीश (गिरिश)
- मृत्युञ्जय
- त्र्यम्बक
- वृषध्वज
- व्योमकेश
- श्रीकण्ठ
- शितिकण्ठ
- नीललोहित
- विरूपाक्ष
- भूतेश
- ईश्वर
- ईशान
- शर्व (सर्व)
- शूली
- पिनाकी
- कृत्तिवासा
- खण्डपरशु
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