शुक्र है कि विज्ञापन देखकर कुछ तो कमाई होने लग गई है और मेरा पहला चेक मुझे मिल चुका है। विज्ञापनदेखकर कमाई से मुझे रु.471/-. नगद राशि का चेक मिला है और रु.900/- के गिफ्ट व्हाउचर्स मिले हैं। इन गिफ्ट व्हाउचर्स के बदले में घरेलू उपयोग की वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं।
ऐसा जरूर लग सकता है कि विज्ञापनदेखकर कमाई की यह रकम तो "ऊँट के मुँह में जीरा" है, किन्तु "बूँद-बूँद से ही तो घड़ा भरता है"।
विज्ञापनदेखकर कमाई का अधिक से अधिक फायदा तभी मिलता है जब आप अपने रेफरल से अधिक से अधिक लोगों को सदस्य बना पायें। इसके लिये अपने ब्लोग में अपने रेफरल वाला विज्ञापन लगाना एक बहुत अच्छा उपाय है। हमने तो अपने "हिन्दी वेबसाइट" और "इंटरनेट भारत" ब्लोग्स में बाकायदा इस बारे में पोस्ट लिखे और उसे पढ़कर बहुत से लोग हमारे नीचे सदस्य बन गये। हमें मिले ये चेक और गिफ्ट व्हाउचर उसी का नतीजा है। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि आपके ब्लोग के जितने अधिक पाठक होंगे उतनी ही अधिक कमाई आप की होगी।
आप लोगों में से अधिकतर लोग तो विज्ञापनदेखकर कमाई साइट के सदस्य बन ही गये होंगे, यदि नहीं बने हैं तो यहाँ क्लिक करके अब बन सकते हैं। अब देख लीजिये कि हम आपको भी अपने नीचे सदस्य बनने के लिये प्रेरित कर रहे हैं, इसी को तो इंटरनेट मार्केटिंग कहते हैं।
विज्ञापन देखकर कमाई साइट का सदस्य बनने के लिये आपको सिर्फ यह करना है -
1) यहाँ अर्थात् व्हियूबेस्टएड्स पर क्लिक करके साइट पर पहुँचें।
2) ई-मेल आईडी भरकर रजिस्टर करवायें।
3) आपके मेल बाक्स में एक मेल आयेगी, उस लिंक पर क्लिक करके कन्फ़रमेशन करें।
4) अपना सही-सही प्रोफ़ाइल पूरा भरें, ताकि यदि पैसा (चेक) मिले तो आप तक ठीक पहुँचे।
5) बस, विज्ञापन देखिये और खाते में अंक और पैसा जुड़ते देखिये (दिन में सिर्फ एक बार)
6) आप चाहें तो अपने मित्रों को अपनी लिंक फ़ारवर्ड करके उन्हें अपनी डाउनलिंक में सदस्य बनने के लिये प्रोत्साहित कर सकते हैं ताकि कुछ अंक आपके खाते में भी जुड़ें (हालांकि ऐसा कोई बन्धन नहीं है)…
Saturday, March 20, 2010
Friday, March 19, 2010
बेचारी हिन्दी ... ये वो थाली है जिसमें लोग खाते हैं और फिर उसी में छेद करते हैं
अंग्रेजी के 26 अक्षर तो रटे हुए हैं आपको, पूछने पर तत्काल बता देंगे। किन्तु यदि मैं पूछूँ कि हिन्दी के बावन अक्षर आते हैं आपको तो क्या जवाब होगा आपका? अधिकतर लोगों को यह भी नहीं पता कि अनुस्वार, चन्द्रबिंदु और विसर्ग क्या होते हैं। हिन्दी के पूर्णविराम के स्थान पर अंग्रेजी के फुलस्टॉप का अधिकांशतः प्रयोग होने लगा है। अल्पविराम का प्रयोग तो यदा-कदा देखने को मिल जाता है किन्तु अर्धविराम का प्रयोग तो लुप्तप्राय हो गया है।
परतन्त्रता में तो हिन्दी का विकास होता रहा किन्तु जब से देश स्वतन्त्र हुआ, हिन्दी का विकास तो रुक ही गया उल्टे उसकी दुर्गति होनी शुरू हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शासन की नीति तुष्टिकरण होने के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर "राजभाषा" बना दिया गया। विदेश से प्रभावित शिक्षानीति ने हिन्दी को गौण बना कर अग्रेजी के महत्व को ही बढ़ाया। हिन्दी की शिक्षा धीरे-धीरे मात्र औपचारिकता बनते चली गई। दिनों-दिन अंग्रेजी माध्यम वाले कान्वेंट स्कूलों के प्रति मोह बढ़ते चला गया और आज हालत यह है कि अधिकांशतः लोग हिन्दी की शिक्षा से ही वंचित हैं।
हिन्दी फिल्मों की भाषा हिन्दी न होकर हिन्दुस्तानी, जो कि हिन्दी और उर्दू की खिचड़ी है, रही और इसका प्रभाव यह हुआ कि लोग हिन्दुस्तानी को ही हिन्दी समझने लगे। टीव्ही के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे ढकेलना शुरू कर दिया और वहाँ प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिन्दी करने में "सोने में सुहागे" का काम किया।
रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होते चला गया।
हिन्दी के साथ जो कुछ भी हुआ या हो रहा है वह "जिस थाली में खाना उसी में छेद करना" नहीं है तो और क्या है?
अब ब्लोग एक सशक्त एवं प्रभावशाली माध्यम बन कर उभर रहा है किन्तु वहाँ पर भी हिन्दी की दुर्दशा ही देखने के लिये मिल रही है।
यदि हम अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी को सँवारने-निखारने का कार्य नहीं कर सकते तो क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि कम से कम उसके रूप को विकृत करने का प्रयास न करें।
चलिये बात हिन्दी के वर्णमाला से आरम्भ किया था तो उसे भी पढ़वा दें आपकोः
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ
क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
श ष स ह
क्ष त्र ज्ञ
वास्तव में यह देवनागरी लिपि है। संस्कृत में उपरोक्त सभी अर्थात् बावन वर्णों का प्रयोग होता है किन्तु हिन्दी में ॠ, ऌ, ॡ आदि का प्रयोग नहीं होता। ङ और ञ का प्रयोग भी नहीं के बराबर ही होता है या कहा जा सकता है कि आजकल होता ही नहीं। यहाँ पर यह बताना भी उचित रहेगा कि ड़ और ढ़ अक्षर नहीं बल्कि संयुक्ताक्षर हैं।
परतन्त्रता में तो हिन्दी का विकास होता रहा किन्तु जब से देश स्वतन्त्र हुआ, हिन्दी का विकास तो रुक ही गया उल्टे उसकी दुर्गति होनी शुरू हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शासन की नीति तुष्टिकरण होने के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर "राजभाषा" बना दिया गया। विदेश से प्रभावित शिक्षानीति ने हिन्दी को गौण बना कर अग्रेजी के महत्व को ही बढ़ाया। हिन्दी की शिक्षा धीरे-धीरे मात्र औपचारिकता बनते चली गई। दिनों-दिन अंग्रेजी माध्यम वाले कान्वेंट स्कूलों के प्रति मोह बढ़ते चला गया और आज हालत यह है कि अधिकांशतः लोग हिन्दी की शिक्षा से ही वंचित हैं।
हिन्दी फिल्मों की भाषा हिन्दी न होकर हिन्दुस्तानी, जो कि हिन्दी और उर्दू की खिचड़ी है, रही और इसका प्रभाव यह हुआ कि लोग हिन्दुस्तानी को ही हिन्दी समझने लगे। टीव्ही के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे ढकेलना शुरू कर दिया और वहाँ प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिन्दी करने में "सोने में सुहागे" का काम किया।
रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होते चला गया।
हिन्दी के साथ जो कुछ भी हुआ या हो रहा है वह "जिस थाली में खाना उसी में छेद करना" नहीं है तो और क्या है?
अब ब्लोग एक सशक्त एवं प्रभावशाली माध्यम बन कर उभर रहा है किन्तु वहाँ पर भी हिन्दी की दुर्दशा ही देखने के लिये मिल रही है।
यदि हम अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी को सँवारने-निखारने का कार्य नहीं कर सकते तो क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि कम से कम उसके रूप को विकृत करने का प्रयास न करें।
चलिये बात हिन्दी के वर्णमाला से आरम्भ किया था तो उसे भी पढ़वा दें आपकोः
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ
क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
श ष स ह
क्ष त्र ज्ञ
वास्तव में यह देवनागरी लिपि है। संस्कृत में उपरोक्त सभी अर्थात् बावन वर्णों का प्रयोग होता है किन्तु हिन्दी में ॠ, ऌ, ॡ आदि का प्रयोग नहीं होता। ङ और ञ का प्रयोग भी नहीं के बराबर ही होता है या कहा जा सकता है कि आजकल होता ही नहीं। यहाँ पर यह बताना भी उचित रहेगा कि ड़ और ढ़ अक्षर नहीं बल्कि संयुक्ताक्षर हैं।
Thursday, March 18, 2010
टॉप ब्लोगर रहस्य
"नमस्कार लिख्खाड़ानन्द जी!"
"नमस्काऽर! आइये आइये टिप्पण्यानन्द जी!"
"लिख्खाड़ानन्द जी! आप तो ब्लोगिंग के आसमान की ऊँचाइयों को छू रहे हैं! ब्लोगिस्तान में डंका बजता है आपका! ऐसा कोई भी ब्लोगर नहीं है जो आपके नाम से परिचित न हो। आज हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि आखिर आप इस मुकाम तक पहुँचे कैसे?"
"हे हे हे हे, आप तो बस हमें चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं।"
"नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मैंने जो कुछ भी कहा है वह सच है। अब बताइये ना जो हमने पूछा है।"
"वो क्या है टिप्पण्यानन्द जी, हमारी सफलता के पीछे कई बातें हैं। पहली बात तो यह है कि आपको पोस्ट निकालना आना चाहिये। पोस्ट किसी भी चीज से निकाला जा सकता है। जैसे नदी में तरबूज-खरबूज आदि की खेती हो रही है तो उस पर पोस्ट निकाल लो। आपके घर के पास कुतिया ने पिल्ले दिये हैं तो झटपट उन पिल्लों के फोटो ले लीजिये और एक पोस्ट निकाल कर चेप दीजिये उन फोटुओं को। यात्रा के दौरान आपका सूटकेस चोरी हो गया तो उससे भी पोस्ट निकाला जा सकता है। आपको रास्ते में कोई विक्षिप्त दिख गया तो उससे एक पोस्ट निकाल लीजिये। जब लोगों को किसी भी ग्राफिक्स में अल्लाह नजर आ जाता है, सिगरेट के धुएँ में चाँद-सितारे आदि दिख जाते हैं तो किसी भी चीज से पोस्ट क्यों नहीं निकाला जा सकता? हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि पोस्ट कहीं से भी निकल सकता है।
"दूसरी बात है पोस्ट का प्रभावशाली होना। पोस्ट में प्रभाव उत्पन्न होता है उसे दर्शन का रूप देने से! किसी एक बात से दूसरी किसी ऐसी बात को जोड़ने से जिसका कि पहली बात से दूर-दूर का कुछ भी सम्बन्ध न हो जैसे कि भैंसों के पगुराने को रेलगाड़ी की सीटी से जोड़ दो। पोस्ट में प्रभाव उत्पन्न होता है उसमें अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी आदि के शब्द डालने से! बल्कि इन भाषाओं और हिन्दी के शब्दों को तोड़-मरोड़ कर नये-नये शब्द बनाने से। जैसे कि हिन्दी के शब्द "निश्चित" में अंग्रेजी का प्रत्यय "ली" जोड़कर "निश्चितली" बना दीजिये या अंग्रेजी के शब्द "स्ट्रिक्ट" में हिन्दी का प्रत्यय "ता" जोड़कर "स्ट्रिक्टता" बना दीजिये। कहने का लब्बो-लुआब यह है कि जो कुछ भी आप लिखें उसे भले ही न समझ सके किन्तु उसमें प्रभाव अवश्य होना चाहिये।
"अगली बात है पढ़ने वालों का जुगाड़ करना! आप तो जानते ही हैं कि हमारे पाठक अन्य ब्लोगर्स ही होते हैं। तो सबसे जरूरी है उन्हें खुश रखना ताकि वे आपके पोस्ट में जरूर आयें और सिर्फ आये ही नहीं बल्कि टिप्पणी भी करें। दूसरे ब्लोगर्स खुश होते हैं टिप्पणी पाकर। याद रखिये कि टिप्पणी ही हिन्दी ब्लोगिंग का सार है! हम तो बस यही याद रखते हैं कि यारों टिप्पणी राखिये, बिन टिप्पणी सब सून!
"इन सब के अलावा यह याद रखना जरूरी है कि "विद्या विनयेन शोभते!" विद्या, योग्यता आदि की शोभा विनय से ही होती है अतः हमेशा विनम्र बने रहिये। आपकी विनयशीलता दूसरे ब्लोगर्स पर सबसे अधिक प्रभाव डालती है।
"अंत में हम आपको यह भी बता दें कि सफलता पाने के लिये थोड़ी बहुत राजनीति भी करनी पड़ती है, कुछ लोगों को अपने साथ मिला कर रखना पड़ता है जो आपकी और आपस में एक दूसरे की पब्लिसिटी करें। इस विषय में विस्तार से फिर कभी आपको बतायेंगे।"
"वाह! वाह!! आज तो आपने हमें बहुत अच्छी जानकारी दी है। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका! अच्छा अब यह तो बताइये कि आप टॉप लिस्ट में सबसे ऊपर कैसे रहते हैं। हमारा मतलब है कि आपका नाम टॉप फाइव्ह में ही कैसे रहता है? और ये पहले पाँच नाम ही क्यों हमेशा ऊपर नीचे होते रहते हैं?"
"आप भी अजीब हो! अरे भाई ये भला हम कैसे बता सकते हैं? ये तो टॉप लिस्ट बनाने वाले ही बता पायेंगे!"
"अब आप हमें बहलाइये मत लिख्खाड़ानन्द जी। आप अवश्य इस रहस्य को जानते हैं पर हमें बताना नहीं चाहते। भाई हम आपके इतने पुराने मित्र हैं, कम से कम हमें तो बता दीजिये।"
"अब हम क्या बतायें टिप्पण्यानन्द जी? टॉप लिस्ट को तो एक स्वचालित तंत्र बनाता है जो चिट्ठों की आवृति, बैकलिंक्स आदि के आधार पर टॉप चिट्ठों की लिस्टिंग करता है।"
"पर हमने तो देखा है कि कई ऐसे ब्लोगर हैं जो दिन में दो-दो पोस्ट लिखते हैं और टॉप लिस्ट से बाहर ही रहते हैं। इधर आप और आपके साथी हैं जो कि सप्ताह में सिर्फ दो पोस्ट लिखकर टॉप फाइव्ह में ही बने रहते हैं। हमने यह भी देखा है कि 88 बैकलिंक्स वाला 1 नंबर पर होता है और 184 बैकलिंक्स वाला 4 नंबर पर होता है। 33 बैकलिंक्स वाला टॉपलिस्ट के भीतर होता है 35 बैकलिंक्स वाला लिस्ट के बाहर। कई सालों से ब्लोगिंग करने वाले ब्लोगर का लिस्ट में नाम ही नहीं होता और जिन्हें ब्लोगिंग में आये जुम्मा-जुम्मा कुछ ही समय हुआ है ऐसे ब्लोगर लिस्ट में जगह पा जाते है। आखिर ये माजरा क्या है? कुछ हम भी तो जानें।"
"छोड़िये इन बातों को टिप्पण्यानन्द जी, आप तो बस इतना समझ लीजिये कि एक सीक्रेट फॉर्मूले के द्वारा हम उन्हीं ब्लोगर को लिस्ट में लेते हैं जिन्हें हमें लेना है। दूसरे चाहे लाख कोशिश कर लें पर हमारे चाहे बगैर लिस्ट में शामिल हो ही नहीं सकते। आखिर हम लोगों ने इतनी मेहनत की है फॉर्मूला बनाने में तो कम से कम उसका फायदा तो हमें ही मिलना चाहिये ना!"
"अच्छा तो ऐसी बात है! मान गये आप लोगों को लिख्खाड़ानन्द जी! जो जानने के लिये आये थे सो जान चुके। अब चलते हैं। नमस्कार!"
"नमस्कार!"
"नमस्काऽर! आइये आइये टिप्पण्यानन्द जी!"
"लिख्खाड़ानन्द जी! आप तो ब्लोगिंग के आसमान की ऊँचाइयों को छू रहे हैं! ब्लोगिस्तान में डंका बजता है आपका! ऐसा कोई भी ब्लोगर नहीं है जो आपके नाम से परिचित न हो। आज हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि आखिर आप इस मुकाम तक पहुँचे कैसे?"
"हे हे हे हे, आप तो बस हमें चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं।"
"नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मैंने जो कुछ भी कहा है वह सच है। अब बताइये ना जो हमने पूछा है।"
"वो क्या है टिप्पण्यानन्द जी, हमारी सफलता के पीछे कई बातें हैं। पहली बात तो यह है कि आपको पोस्ट निकालना आना चाहिये। पोस्ट किसी भी चीज से निकाला जा सकता है। जैसे नदी में तरबूज-खरबूज आदि की खेती हो रही है तो उस पर पोस्ट निकाल लो। आपके घर के पास कुतिया ने पिल्ले दिये हैं तो झटपट उन पिल्लों के फोटो ले लीजिये और एक पोस्ट निकाल कर चेप दीजिये उन फोटुओं को। यात्रा के दौरान आपका सूटकेस चोरी हो गया तो उससे भी पोस्ट निकाला जा सकता है। आपको रास्ते में कोई विक्षिप्त दिख गया तो उससे एक पोस्ट निकाल लीजिये। जब लोगों को किसी भी ग्राफिक्स में अल्लाह नजर आ जाता है, सिगरेट के धुएँ में चाँद-सितारे आदि दिख जाते हैं तो किसी भी चीज से पोस्ट क्यों नहीं निकाला जा सकता? हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि पोस्ट कहीं से भी निकल सकता है।
"दूसरी बात है पोस्ट का प्रभावशाली होना। पोस्ट में प्रभाव उत्पन्न होता है उसे दर्शन का रूप देने से! किसी एक बात से दूसरी किसी ऐसी बात को जोड़ने से जिसका कि पहली बात से दूर-दूर का कुछ भी सम्बन्ध न हो जैसे कि भैंसों के पगुराने को रेलगाड़ी की सीटी से जोड़ दो। पोस्ट में प्रभाव उत्पन्न होता है उसमें अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी आदि के शब्द डालने से! बल्कि इन भाषाओं और हिन्दी के शब्दों को तोड़-मरोड़ कर नये-नये शब्द बनाने से। जैसे कि हिन्दी के शब्द "निश्चित" में अंग्रेजी का प्रत्यय "ली" जोड़कर "निश्चितली" बना दीजिये या अंग्रेजी के शब्द "स्ट्रिक्ट" में हिन्दी का प्रत्यय "ता" जोड़कर "स्ट्रिक्टता" बना दीजिये। कहने का लब्बो-लुआब यह है कि जो कुछ भी आप लिखें उसे भले ही न समझ सके किन्तु उसमें प्रभाव अवश्य होना चाहिये।
"अगली बात है पढ़ने वालों का जुगाड़ करना! आप तो जानते ही हैं कि हमारे पाठक अन्य ब्लोगर्स ही होते हैं। तो सबसे जरूरी है उन्हें खुश रखना ताकि वे आपके पोस्ट में जरूर आयें और सिर्फ आये ही नहीं बल्कि टिप्पणी भी करें। दूसरे ब्लोगर्स खुश होते हैं टिप्पणी पाकर। याद रखिये कि टिप्पणी ही हिन्दी ब्लोगिंग का सार है! हम तो बस यही याद रखते हैं कि यारों टिप्पणी राखिये, बिन टिप्पणी सब सून!
"इन सब के अलावा यह याद रखना जरूरी है कि "विद्या विनयेन शोभते!" विद्या, योग्यता आदि की शोभा विनय से ही होती है अतः हमेशा विनम्र बने रहिये। आपकी विनयशीलता दूसरे ब्लोगर्स पर सबसे अधिक प्रभाव डालती है।
"अंत में हम आपको यह भी बता दें कि सफलता पाने के लिये थोड़ी बहुत राजनीति भी करनी पड़ती है, कुछ लोगों को अपने साथ मिला कर रखना पड़ता है जो आपकी और आपस में एक दूसरे की पब्लिसिटी करें। इस विषय में विस्तार से फिर कभी आपको बतायेंगे।"
"वाह! वाह!! आज तो आपने हमें बहुत अच्छी जानकारी दी है। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका! अच्छा अब यह तो बताइये कि आप टॉप लिस्ट में सबसे ऊपर कैसे रहते हैं। हमारा मतलब है कि आपका नाम टॉप फाइव्ह में ही कैसे रहता है? और ये पहले पाँच नाम ही क्यों हमेशा ऊपर नीचे होते रहते हैं?"
"आप भी अजीब हो! अरे भाई ये भला हम कैसे बता सकते हैं? ये तो टॉप लिस्ट बनाने वाले ही बता पायेंगे!"
"अब आप हमें बहलाइये मत लिख्खाड़ानन्द जी। आप अवश्य इस रहस्य को जानते हैं पर हमें बताना नहीं चाहते। भाई हम आपके इतने पुराने मित्र हैं, कम से कम हमें तो बता दीजिये।"
"अब हम क्या बतायें टिप्पण्यानन्द जी? टॉप लिस्ट को तो एक स्वचालित तंत्र बनाता है जो चिट्ठों की आवृति, बैकलिंक्स आदि के आधार पर टॉप चिट्ठों की लिस्टिंग करता है।"
"पर हमने तो देखा है कि कई ऐसे ब्लोगर हैं जो दिन में दो-दो पोस्ट लिखते हैं और टॉप लिस्ट से बाहर ही रहते हैं। इधर आप और आपके साथी हैं जो कि सप्ताह में सिर्फ दो पोस्ट लिखकर टॉप फाइव्ह में ही बने रहते हैं। हमने यह भी देखा है कि 88 बैकलिंक्स वाला 1 नंबर पर होता है और 184 बैकलिंक्स वाला 4 नंबर पर होता है। 33 बैकलिंक्स वाला टॉपलिस्ट के भीतर होता है 35 बैकलिंक्स वाला लिस्ट के बाहर। कई सालों से ब्लोगिंग करने वाले ब्लोगर का लिस्ट में नाम ही नहीं होता और जिन्हें ब्लोगिंग में आये जुम्मा-जुम्मा कुछ ही समय हुआ है ऐसे ब्लोगर लिस्ट में जगह पा जाते है। आखिर ये माजरा क्या है? कुछ हम भी तो जानें।"
"छोड़िये इन बातों को टिप्पण्यानन्द जी, आप तो बस इतना समझ लीजिये कि एक सीक्रेट फॉर्मूले के द्वारा हम उन्हीं ब्लोगर को लिस्ट में लेते हैं जिन्हें हमें लेना है। दूसरे चाहे लाख कोशिश कर लें पर हमारे चाहे बगैर लिस्ट में शामिल हो ही नहीं सकते। आखिर हम लोगों ने इतनी मेहनत की है फॉर्मूला बनाने में तो कम से कम उसका फायदा तो हमें ही मिलना चाहिये ना!"
"अच्छा तो ऐसी बात है! मान गये आप लोगों को लिख्खाड़ानन्द जी! जो जानने के लिये आये थे सो जान चुके। अब चलते हैं। नमस्कार!"
"नमस्कार!"
Wednesday, March 17, 2010
ब्लोगवाणी के द्वारा दुर्भाव का जहर उगलने वाले ब्लोग्स की सदस्यता बनाये रखने का क्या औचित्य है?
हिन्दी ब्लोग संकलकों में ब्लोगवाणी सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह प्रायः समस्त हिन्दी ब्लोग्स के अपडेट्स को एक ही स्थान पर दिखाता है और अधिकांश हिन्दी ब्लोगर्स नये पोस्ट की जानकारी के लिये ब्लोगवाणी का ही सहारा लेते हैं। हिन्दी ब्लोग जगत के लिये ब्लोगवाणी का कार्य अत्यन्त सराहनीय है।
सभी सोशल बुकमार्किंग साइट्स तथा संकलकों की अपनी नियम और शर्तें होती हैं। ये नियम और शर्तें ही तय करती हैं कि किसे सदस्यता दी जाये और किसे नहीं। एक बार सदस्य बन जाने के बाद यदि कोई नियम और शर्तों की अवहेलना करता है तो उसकी सदस्यता समाप्त कर देने का भी प्रावधान रहता है। नियम व शर्तें बनाये ही इसलिये जाते हैं ताकि सद्भावना बनी रहे, किसी की भावनाओं को ठेस न पहुँचे, किसी प्रकार की घृणा न फैलने पाये।
इस बात से तो आप सभी सहमत होंगे कि ब्लोग का महत्व दिनों दिन बढ़ते ही जा रहा है। एक ब्लोग को समस्त संसार में कोई भी पढ़ सकता है। जहाँ किसी ब्लोग में निहित विचार आपसी भाई-चारे का सन्देश देकर "वसुधैव कुटुम्बकम" बना सकता है तो वहीं किसी अन्य ब्लोग में प्रस्तुत किये गये विचार हमारे बीच आपसी कलह भी करवा सकता है। कहने का तात्पर्य है कि आज ब्लोग दुनिया भर में नई क्रान्ति ला सकता है।
आज यह जग जाहिर है कि कुछ हिन्दी ब्लोग्स दुर्भाव का जहर उगल-उगल कर सिर्फ दुर्भावना फैलाने का कार्य कर रहे हैं। ब्लोगवाणी में इनकी सदस्यता होने के कारण ही लोग इन ब्लोग्स में जाते हैं। यदि ब्लोगवाणी में इनकी सदस्यता न रहे तो कोई भी इन ब्लोग्स में नहीं जाने वाला है। तो क्या औचित्य है ऐसे ब्लोग्स की सदस्यता ब्लोगवाणी में बरकरार रखने की?
मैं ब्लोगवाणी के संचालकों से अनुरोध करता हूँ कि वे ऐसे ब्लोग्स, जो महज दुर्भाव फैला रहे हैं, की सदस्यता को तत्काल रद्द करें।
मुझे विश्वास है कि आप सभी मेरे इस विचार का अनुमोदन अवश्य ही करेंगे।
सभी सोशल बुकमार्किंग साइट्स तथा संकलकों की अपनी नियम और शर्तें होती हैं। ये नियम और शर्तें ही तय करती हैं कि किसे सदस्यता दी जाये और किसे नहीं। एक बार सदस्य बन जाने के बाद यदि कोई नियम और शर्तों की अवहेलना करता है तो उसकी सदस्यता समाप्त कर देने का भी प्रावधान रहता है। नियम व शर्तें बनाये ही इसलिये जाते हैं ताकि सद्भावना बनी रहे, किसी की भावनाओं को ठेस न पहुँचे, किसी प्रकार की घृणा न फैलने पाये।
इस बात से तो आप सभी सहमत होंगे कि ब्लोग का महत्व दिनों दिन बढ़ते ही जा रहा है। एक ब्लोग को समस्त संसार में कोई भी पढ़ सकता है। जहाँ किसी ब्लोग में निहित विचार आपसी भाई-चारे का सन्देश देकर "वसुधैव कुटुम्बकम" बना सकता है तो वहीं किसी अन्य ब्लोग में प्रस्तुत किये गये विचार हमारे बीच आपसी कलह भी करवा सकता है। कहने का तात्पर्य है कि आज ब्लोग दुनिया भर में नई क्रान्ति ला सकता है।
आज यह जग जाहिर है कि कुछ हिन्दी ब्लोग्स दुर्भाव का जहर उगल-उगल कर सिर्फ दुर्भावना फैलाने का कार्य कर रहे हैं। ब्लोगवाणी में इनकी सदस्यता होने के कारण ही लोग इन ब्लोग्स में जाते हैं। यदि ब्लोगवाणी में इनकी सदस्यता न रहे तो कोई भी इन ब्लोग्स में नहीं जाने वाला है। तो क्या औचित्य है ऐसे ब्लोग्स की सदस्यता ब्लोगवाणी में बरकरार रखने की?
मैं ब्लोगवाणी के संचालकों से अनुरोध करता हूँ कि वे ऐसे ब्लोग्स, जो महज दुर्भाव फैला रहे हैं, की सदस्यता को तत्काल रद्द करें।
मुझे विश्वास है कि आप सभी मेरे इस विचार का अनुमोदन अवश्य ही करेंगे।
जिसके अपने खुद के घर शीशे के होते हैं, वे दूसरों के घरों में पत्थर नहीं फेंका करते
शीशा याने कि काँच ...
बहुत नाजुक होता है शीशा! इसीलिये कहते हैं कि "जिसके अपने खुद के घर शीशे के होते हैं, वे दूसरों के घरों में पत्थर नहीं फेंका करते।"
हजारों साल से मनुष्य के जीवन में शीशा अर्थात् काँच के महत्वपूर्ण तथा विशिष्ट प्रयोग होते रहे हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होगा जिसने काँच से बनी वस्तु का इस्तेमाल न किया हो। काँच से बने दर्पन का प्रयोग तो हम सभी हर रोज करते ही हैं। रंग बिरंगी काँच की चूड़ियाँ नारी की सुन्दरता में चार चांद लगाती हैं। काँच के गिलास, काँच की कटोरी, काँच के बोतल, काँच की बरनी आदि हमारी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ हैं। कारों, बसों, रेलगाड़ियों आदि की खिड़कियों में शीशे का ही इस्तेमाल होता है। इत्र, सेंट रखने के लिये काँच की आकर्षक शीशियाँ भला किसने नही देखी होगी? मदिरा को तो काँच के खूबसूरत और आकर्षक बोतलों में ही रखा जाता है और मदिरापान के लिये काँच के ही सुन्दर सुन्दर प्यालियों का ही प्रयोग किया जाता है।
काँच सिलिका अर्थात् रेत का एक अवयव होता है। यह एक अकार्बनिक पारदर्शी ठोस पदार्थ होता है जो कि आम तौर पर रंगहीन या तथा अनेक रंगों में पाया जाता है। भौतिक रूप से यह कड़ा और ठोकर लगने पर टूट जाने वाला होता है तथा हवा, धूप, पानी आदि के प्रभाव से मुक्त होता है।
पृथ्वी में प्राकृतिक काँच का अस्तित्व आरम्भ से ही रहा है। समझा जाता है कि ज्वालामुखी फूटने अथवा उल्कापात होने आदि के कारण उत्पन्न उच्च ताप से विशेष प्रकार के चट्टान पिघल गये रहे होंगे और तापमान कम होने पर पुनः ठोस होने पर उनका रूप काँच में बदल गया रहा होगा। यह भी विश्वास किया जाता है कि पाषाणयुग के मानव ने भी कठोर वस्तुओं को काटने के लिये प्राकृतिक काँच से बने हथियारों तथा उपकरणों का ही प्रयोग करते रहे होंगे।
प्राचीन-रोमन इतिहासकार Pliny (ई. 23-79) के अनुसार 5000 ई.पू. के आसपास सीरिया के क्षेत्र में काँच की खोज हुई थी। एक अन्य जानकारी के अनुसार मनुष्य ने 3000 ई.पू. कांस्य युग के दौरान पहली बार काँच का निर्माण किया। मिस्र में मिले काँच में लगभग 2500 ई.पू. के मनके पाये गये हैं। काँच के बर्तन बनाने की शुरुवात लगभग 1500 ई.पू. में हुई। सीरिया में प्रथम शताब्दी के आसपास काँच को मनचाहे रूप में ढालने की कला विकसित हुई।
काँच बनाने के लिये रेत को कुछ अन्य सामग्री के साथ 1500 डिग्री सैल्सियस पर पिघलाया जाता है और इस प्रकार से प्राप्त पिघले द्रव को मनचाहा रूप देने के लिये खाँचों में बूंद-बूंद करके डाला जाता है। आजकल ये प्रक्रियाएँ स्वचालित मशीनों से की जाती हैं।
बहुत नाजुक होता है शीशा! इसीलिये कहते हैं कि "जिसके अपने खुद के घर शीशे के होते हैं, वे दूसरों के घरों में पत्थर नहीं फेंका करते।"
हजारों साल से मनुष्य के जीवन में शीशा अर्थात् काँच के महत्वपूर्ण तथा विशिष्ट प्रयोग होते रहे हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होगा जिसने काँच से बनी वस्तु का इस्तेमाल न किया हो। काँच से बने दर्पन का प्रयोग तो हम सभी हर रोज करते ही हैं। रंग बिरंगी काँच की चूड़ियाँ नारी की सुन्दरता में चार चांद लगाती हैं। काँच के गिलास, काँच की कटोरी, काँच के बोतल, काँच की बरनी आदि हमारी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ हैं। कारों, बसों, रेलगाड़ियों आदि की खिड़कियों में शीशे का ही इस्तेमाल होता है। इत्र, सेंट रखने के लिये काँच की आकर्षक शीशियाँ भला किसने नही देखी होगी? मदिरा को तो काँच के खूबसूरत और आकर्षक बोतलों में ही रखा जाता है और मदिरापान के लिये काँच के ही सुन्दर सुन्दर प्यालियों का ही प्रयोग किया जाता है।
काँच सिलिका अर्थात् रेत का एक अवयव होता है। यह एक अकार्बनिक पारदर्शी ठोस पदार्थ होता है जो कि आम तौर पर रंगहीन या तथा अनेक रंगों में पाया जाता है। भौतिक रूप से यह कड़ा और ठोकर लगने पर टूट जाने वाला होता है तथा हवा, धूप, पानी आदि के प्रभाव से मुक्त होता है।
पृथ्वी में प्राकृतिक काँच का अस्तित्व आरम्भ से ही रहा है। समझा जाता है कि ज्वालामुखी फूटने अथवा उल्कापात होने आदि के कारण उत्पन्न उच्च ताप से विशेष प्रकार के चट्टान पिघल गये रहे होंगे और तापमान कम होने पर पुनः ठोस होने पर उनका रूप काँच में बदल गया रहा होगा। यह भी विश्वास किया जाता है कि पाषाणयुग के मानव ने भी कठोर वस्तुओं को काटने के लिये प्राकृतिक काँच से बने हथियारों तथा उपकरणों का ही प्रयोग करते रहे होंगे।
प्राचीन-रोमन इतिहासकार Pliny (ई. 23-79) के अनुसार 5000 ई.पू. के आसपास सीरिया के क्षेत्र में काँच की खोज हुई थी। एक अन्य जानकारी के अनुसार मनुष्य ने 3000 ई.पू. कांस्य युग के दौरान पहली बार काँच का निर्माण किया। मिस्र में मिले काँच में लगभग 2500 ई.पू. के मनके पाये गये हैं। काँच के बर्तन बनाने की शुरुवात लगभग 1500 ई.पू. में हुई। सीरिया में प्रथम शताब्दी के आसपास काँच को मनचाहे रूप में ढालने की कला विकसित हुई।
काँच बनाने के लिये रेत को कुछ अन्य सामग्री के साथ 1500 डिग्री सैल्सियस पर पिघलाया जाता है और इस प्रकार से प्राप्त पिघले द्रव को मनचाहा रूप देने के लिये खाँचों में बूंद-बूंद करके डाला जाता है। आजकल ये प्रक्रियाएँ स्वचालित मशीनों से की जाती हैं।
Tuesday, March 16, 2010
हमारा पोस्ट ब्लोगवाणी में टॉप पर कैसे आता है?
आदमी तिकड़मी न हो तो किस काम का? हम भी बहुत बड़े तिकड़मी हैं और अपने पोस्ट को ब्लोगवाणी में टॉप में लाकर छोड़ते हैं। हमारे लिये तो चुटकी बजाने जैसा है यह काम तो। अब आप पूछेंगे कि कैसे?
वो ऐसे कि सबसे पहले तो हम अपने आकाओं के द्वारा तैयार किये गये मैटर को लेकर एक पोस्ट लिखते हैं। सही बात तो यह है कि हम जो कुछ भी लिखते हैं वो हमारे महान आकाओं का ही लिखा हुआ होता है। हमारे ये आका लोग भले ही अपने सम्प्रदाय के विषय में न जानें पर इनका काम है दूसरों की संस्कृति में टाँग घुसेड़ना और विकृत विचार प्रस्तुत करना। तो हम बता रहे थे कि अपने पोस्ट में हम एक सम्प्रदायविशेष के लोगों को बताते हैं आपके सम्प्रदाय के ग्रंथों और हमारे सम्प्रदाय के ग्रंथों में सभी बातें एक जैसी हैं। क्या हुआ जो आपके ग्रंथ किसी और भाषा में हैं और हमारे किसी और भाषा में, विचार तो दोनों में एक ही जैसे हैं। हम बताते हैं कि आपकी मान्यताओं को हम भी मानते हैं। अपनी बात को सिद्ध करने के लिये हम उनकी किसी आस्था पर तहे-दिल से अपनी भी आस्था बताते हैं। उनके ग्रंथों को महान बताते हैं। ऐसा करने के पीछे हमारा उद्देश्य मात्र चारा डालना होता है। भाई सीधी सी बात है कि, भले ही हमें उनकी आस्था-श्रद्धा से हमें कुछ कुछ लेना देना ना हो पर, यदि हम हम उनको दर्शायें कि हम उनकी बातों को मानते हैं तो वे भी हमारी बातों को मानने लगेंगे। और वो यदि हमारी बातों को मानेंगे तो मात्र दिखावे के लिये नहीं बल्कि सही-सही तौर पर मानेंगे। ये दिखावा-सिखावा तो वो लोग जानते ही नहीं हैं। एक बार यदि वे हमारी बातों को मानना शुरू कर देंगे, फिर तो हमारी ओर खिंचते ही चले आयेंगे। यह बात अलग है कि उनमें कुछ लोग एक नंबर के उजड्ड हैं और अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क कर के हमारे पोस्ट को महाबकवास साबित करने पर तुले रहते हैं। पर हम भी कम नहीं हैं, हम उनके इस व्यवहार से भीतर ही भीतर उबलते तो बहुत हैं, पर ऊपर से बड़ी विनम्रता दिखाते हुये अपनी बात पर अड़े रहते हैं कि आप आप नहीं हो बल्कि आप हममें से ही एक हो। जब हममें से ही हो तो आकर मिल जाओ हममें।
क्या कहा? विषयान्तर हो रहा है?
हाँ भाई, अपनी बात कहने के चक्कर में हम भूल गये थे कि हम अपने पोस्ट को ब्लोगवाणी में टॉप में लाने वाली बात बता रहे थे। तो चलिये उसी बात पर आगे बढ़ते हैं।
अपने पोस्ट को पब्लिश करते ही हम स्वयं उसमें टिप्पणी करते हैं।
उसके बाद हम बेनामी बन जाते हैं और अपने पोस्ट में टिप्पणी करते हैं।
फिर अपने मित्रों को फोन करके कहते हैं कि हमारा पोस्ट प्रकाशित हो गया है, आप उसमें टिप्पणी करो।
एक मित्र टिप्पणी करता है।
हम टिप्पणी करके उस मित्र को जवाब देते हैं।
उसके बाद हम फिर बेनामी बनकर टिप्पणी करते हैं।
फिर स्वयं बनकर बेनामी जी की टिप्पणी का जवाब देते हैं।
एक बार फिर से हम बेनामी बनकर टिप्पणी करते हैं।
अब बेनामी जी को धन्यवाद देना जरूरी है इस लिये फिर से हम स्वयं बनकर टिप्पणी करते हैं।
फिर हमारा दूसरा मित्र टिप्पणी करता है।
हम टिप्पणी करके अपने मित्र को धन्यवाद देते हैं।
फिर हम एक टिप्पणी करके लोगों से आग्रह करते हैं कि हमारा यह पोस्ट एक बहुत अच्छा पोस्ट है और आकर इसे पढ़िये।
इस बीच में दूसरे सम्प्रदाय वाले कुछ लो फँस जाते हैं हमारे झाँसे में और अपनी टिप्पणी करते हैं।
हम उन सभी टिप्पणी करने वालों को अलग-अलग टिप्पणी करके धन्यवाद देते हैं।
इस प्रकार से सिलसिला चलते चला जाता है, चालीस पचास टिप्पणियाँ हो जाती हैं और इन टिप्पणियों के दम पर हमारा पोस्ट ब्लोगवाणी के टॉप में पहुँच जाता है।
अब ब्लोगवाणी थोड़े ही समझता है कि हमने अपने पोस्ट में टिप्पणियों की संख्या कैसे बढ़ाई है! इस प्रकार से हम ब्लोगवाणी के इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते हैं और अपने पोस्ट को टॉप पर ले आते हैं।
हैं ना हम महातिकड़मी?
वो ऐसे कि सबसे पहले तो हम अपने आकाओं के द्वारा तैयार किये गये मैटर को लेकर एक पोस्ट लिखते हैं। सही बात तो यह है कि हम जो कुछ भी लिखते हैं वो हमारे महान आकाओं का ही लिखा हुआ होता है। हमारे ये आका लोग भले ही अपने सम्प्रदाय के विषय में न जानें पर इनका काम है दूसरों की संस्कृति में टाँग घुसेड़ना और विकृत विचार प्रस्तुत करना। तो हम बता रहे थे कि अपने पोस्ट में हम एक सम्प्रदायविशेष के लोगों को बताते हैं आपके सम्प्रदाय के ग्रंथों और हमारे सम्प्रदाय के ग्रंथों में सभी बातें एक जैसी हैं। क्या हुआ जो आपके ग्रंथ किसी और भाषा में हैं और हमारे किसी और भाषा में, विचार तो दोनों में एक ही जैसे हैं। हम बताते हैं कि आपकी मान्यताओं को हम भी मानते हैं। अपनी बात को सिद्ध करने के लिये हम उनकी किसी आस्था पर तहे-दिल से अपनी भी आस्था बताते हैं। उनके ग्रंथों को महान बताते हैं। ऐसा करने के पीछे हमारा उद्देश्य मात्र चारा डालना होता है। भाई सीधी सी बात है कि, भले ही हमें उनकी आस्था-श्रद्धा से हमें कुछ कुछ लेना देना ना हो पर, यदि हम हम उनको दर्शायें कि हम उनकी बातों को मानते हैं तो वे भी हमारी बातों को मानने लगेंगे। और वो यदि हमारी बातों को मानेंगे तो मात्र दिखावे के लिये नहीं बल्कि सही-सही तौर पर मानेंगे। ये दिखावा-सिखावा तो वो लोग जानते ही नहीं हैं। एक बार यदि वे हमारी बातों को मानना शुरू कर देंगे, फिर तो हमारी ओर खिंचते ही चले आयेंगे। यह बात अलग है कि उनमें कुछ लोग एक नंबर के उजड्ड हैं और अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क कर के हमारे पोस्ट को महाबकवास साबित करने पर तुले रहते हैं। पर हम भी कम नहीं हैं, हम उनके इस व्यवहार से भीतर ही भीतर उबलते तो बहुत हैं, पर ऊपर से बड़ी विनम्रता दिखाते हुये अपनी बात पर अड़े रहते हैं कि आप आप नहीं हो बल्कि आप हममें से ही एक हो। जब हममें से ही हो तो आकर मिल जाओ हममें।
क्या कहा? विषयान्तर हो रहा है?
हाँ भाई, अपनी बात कहने के चक्कर में हम भूल गये थे कि हम अपने पोस्ट को ब्लोगवाणी में टॉप में लाने वाली बात बता रहे थे। तो चलिये उसी बात पर आगे बढ़ते हैं।
अपने पोस्ट को पब्लिश करते ही हम स्वयं उसमें टिप्पणी करते हैं।
उसके बाद हम बेनामी बन जाते हैं और अपने पोस्ट में टिप्पणी करते हैं।
फिर अपने मित्रों को फोन करके कहते हैं कि हमारा पोस्ट प्रकाशित हो गया है, आप उसमें टिप्पणी करो।
एक मित्र टिप्पणी करता है।
हम टिप्पणी करके उस मित्र को जवाब देते हैं।
उसके बाद हम फिर बेनामी बनकर टिप्पणी करते हैं।
फिर स्वयं बनकर बेनामी जी की टिप्पणी का जवाब देते हैं।
एक बार फिर से हम बेनामी बनकर टिप्पणी करते हैं।
अब बेनामी जी को धन्यवाद देना जरूरी है इस लिये फिर से हम स्वयं बनकर टिप्पणी करते हैं।
फिर हमारा दूसरा मित्र टिप्पणी करता है।
हम टिप्पणी करके अपने मित्र को धन्यवाद देते हैं।
फिर हम एक टिप्पणी करके लोगों से आग्रह करते हैं कि हमारा यह पोस्ट एक बहुत अच्छा पोस्ट है और आकर इसे पढ़िये।
इस बीच में दूसरे सम्प्रदाय वाले कुछ लो फँस जाते हैं हमारे झाँसे में और अपनी टिप्पणी करते हैं।
हम उन सभी टिप्पणी करने वालों को अलग-अलग टिप्पणी करके धन्यवाद देते हैं।
इस प्रकार से सिलसिला चलते चला जाता है, चालीस पचास टिप्पणियाँ हो जाती हैं और इन टिप्पणियों के दम पर हमारा पोस्ट ब्लोगवाणी के टॉप में पहुँच जाता है।
अब ब्लोगवाणी थोड़े ही समझता है कि हमने अपने पोस्ट में टिप्पणियों की संख्या कैसे बढ़ाई है! इस प्रकार से हम ब्लोगवाणी के इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते हैं और अपने पोस्ट को टॉप पर ले आते हैं।
हैं ना हम महातिकड़मी?
Monday, March 15, 2010
आना लंगूर के हाथ में हूर का ... बाद में पछताना लंगूर का
आप जितने भी जोड़े देखते होंगे उनमें से पंचान्बे प्रतिशत बेमेल ही मिलेंगे। पता नहीं क्या जादू है कि हमेशा हूर लंगूर के हाथों ही आ फँसती है। हमारे हाथ में भी आखिरकार एक हूर लग ही गई थी आज से चौंतीस साल पहले।
जब शादी नहीं हुई थी हमारी तो बड़े मजे में थे हम। अपनी नींद सोते थे और अपनी नींद जागते थे। न ऊधो का लेना था न माधो का देना। हमारा तो सिद्धान्त ही था "आई मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूँक"। याने कि अपने बारे में हम इतना ही बता सकते हैं कि आगे नाथ न पीछे पगहा। किसी के तीन-पाँच में कभी रहते ही नहीं थे हम। आप काज महाकाज समझ कर बस अपने काम से काम रखते थे। हमारे लिये सभी लोग भले थे क्योंकि आप तो जानते ही हैं कि आप भला तो जग भला।
पर थे एक नंबर के लंगूर हम। पर पता नहीं क्या देखकर एक हूर हम पर फिदा हो गई। शायद उसने हमारी शक्ल पर ध्यान न देकर हमारी अक्ल को परखा रहा होगा और हमें अक्ल का अंधा पाकर हम पर फिदा हो गई रही होगी। या फिर शायद उसने हमें अंधों में काना राजा समझ लिया होगा। या सोच रखा होगा कि शादी उसी से करो जिसे जिन्दगी भर मुठ्ठी में रख सको।
बस फिर क्या था उस हूर ने झटपट हमारी बहन से दोस्ती गाँठ ली और रोज हमारे घर आने लगी। "अच्छी मति चाहो, बूढ़े पूछन जाओ" वाले अन्दाज में हमारी दादी माँ को रिझा लिया। हमारे माँ-बाबूजी की लाडली बन गई। इधर ये सब कुछ हो रहा था और हमें पता ही नहीं था कि अन्दर ही अन्दर क्या खिचड़ी पक रही है।
इतना होने पर भी जब उसे लगा कि दिल्ली अभी दूर है तो धीरे से हमारे पास आना शुरू कर दिया पढ़ाई के बहाने। किस्मत का फेर, हम भी चक्कर में फँसते चले गये। कुछ ही दिनों में आग और घी का मेल हो गया। आखिर एक हाथ से ताली तो बजती नहीं। हम भी "ओखली में सर दिया तो मूसलो से क्या डरना" के अन्दाज में आ गये। उस समय हमें क्या पता था कि अकल बड़ी या भैंस। गधा पचीसी के उस उम्र में तो हमें सावन के अंधे के जैसा हरा ही हरा सूझता था। अपनी किस्मत पर इतराते थे और सोचते थे कि बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले ना भीख।
अब अपने किये का क्या इलाज? दुर्घटना घटनी थी सो घट गई। उसके साथ शादी हो गई हमारी। आज तक बन्द हैं हम उसकी मुठ्ठी में और भुगत रहे हैं उसको। अपने पाप को तो भोगना ही पड़ता है। ये तो बाद में समझ में आया कि लंगूर के हाथ में हूर फँसती नहीं बल्कि हूर ही लंगूर को फाँस लेती हैं। कई बार पछतावा भी होता है पर अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
जब शादी नहीं हुई थी हमारी तो बड़े मजे में थे हम। अपनी नींद सोते थे और अपनी नींद जागते थे। न ऊधो का लेना था न माधो का देना। हमारा तो सिद्धान्त ही था "आई मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूँक"। याने कि अपने बारे में हम इतना ही बता सकते हैं कि आगे नाथ न पीछे पगहा। किसी के तीन-पाँच में कभी रहते ही नहीं थे हम। आप काज महाकाज समझ कर बस अपने काम से काम रखते थे। हमारे लिये सभी लोग भले थे क्योंकि आप तो जानते ही हैं कि आप भला तो जग भला।
पर थे एक नंबर के लंगूर हम। पर पता नहीं क्या देखकर एक हूर हम पर फिदा हो गई। शायद उसने हमारी शक्ल पर ध्यान न देकर हमारी अक्ल को परखा रहा होगा और हमें अक्ल का अंधा पाकर हम पर फिदा हो गई रही होगी। या फिर शायद उसने हमें अंधों में काना राजा समझ लिया होगा। या सोच रखा होगा कि शादी उसी से करो जिसे जिन्दगी भर मुठ्ठी में रख सको।
बस फिर क्या था उस हूर ने झटपट हमारी बहन से दोस्ती गाँठ ली और रोज हमारे घर आने लगी। "अच्छी मति चाहो, बूढ़े पूछन जाओ" वाले अन्दाज में हमारी दादी माँ को रिझा लिया। हमारे माँ-बाबूजी की लाडली बन गई। इधर ये सब कुछ हो रहा था और हमें पता ही नहीं था कि अन्दर ही अन्दर क्या खिचड़ी पक रही है।
इतना होने पर भी जब उसे लगा कि दिल्ली अभी दूर है तो धीरे से हमारे पास आना शुरू कर दिया पढ़ाई के बहाने। किस्मत का फेर, हम भी चक्कर में फँसते चले गये। कुछ ही दिनों में आग और घी का मेल हो गया। आखिर एक हाथ से ताली तो बजती नहीं। हम भी "ओखली में सर दिया तो मूसलो से क्या डरना" के अन्दाज में आ गये। उस समय हमें क्या पता था कि अकल बड़ी या भैंस। गधा पचीसी के उस उम्र में तो हमें सावन के अंधे के जैसा हरा ही हरा सूझता था। अपनी किस्मत पर इतराते थे और सोचते थे कि बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले ना भीख।
अब अपने किये का क्या इलाज? दुर्घटना घटनी थी सो घट गई। उसके साथ शादी हो गई हमारी। आज तक बन्द हैं हम उसकी मुठ्ठी में और भुगत रहे हैं उसको। अपने पाप को तो भोगना ही पड़ता है। ये तो बाद में समझ में आया कि लंगूर के हाथ में हूर फँसती नहीं बल्कि हूर ही लंगूर को फाँस लेती हैं। कई बार पछतावा भी होता है पर अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
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