Saturday, October 22, 2011

रामलाल - एक भुला दिए गए फिल्म संगीत निर्देशक

मैं सुबह की चाय पी रहा था और मेरे कानों में गूँज रहे थे पड़ोस से आती हुई गीत के बोल 'तेरे खयालों में हम तेरी ही ख्वाबों में हम....'। सुनकर मन झूम उठा और मैं सन् 2011 से सन् 1964 में पहुँच गया जब फिल्म व्ही. शांताराम जी की 'फिल्म गीत गाया पत्थरों ने', जिस फिल्म का यह गाना है, रिलीज हुई थी। फिल्म के गाने खूब लोकप्रिय हुए थे। फिल्म के संगीत निर्देशक थे रामलाल।

उन दिनों फिल्म संगीत निर्देशक के रूप में रामलाल चौधरी, नौशाद, सचिनदेव बर्मन, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, रवि, ओ.पी. नैयर आदि जैसे, जाना-माना नाम नहीं था। बहुत कम लोग उन्हें उसके पहले शायद जानते रहे हों, विशेषकर शांताराम जी की ही फिल्म 'सेहरा' के गीत 'पंख होते तो उड़ आती रे...' और 'तकदीर का फसाना....' के लिए। हालाकि उन्होंने उसके पहले हुस्नबानो फिल्म में भी संगीत दिया था पर उससे उनकी पहचान नहीं बन पाई थी।

रामलाल चौधरी फिल्म संगीत जगत की एक भूली हुई प्रतिभा हैं जिन्होंने सन् 1944 में फिल्मी संसार में पदार्पण किया था। उन दिनों वे संगीतकार राम गांगुली के सहायक हुआ करते थे। 'जिंदा हूँ इस तरह के गमे जिंदगी नहीं....' और 'देख चाँद की ओर मुसाफिर....' गानों में उनका बाँसुरी वादन तथा शहनाई वादन इतना अधिक पसंद किया गया कि वे एक प्रकार से बाँसुरी वादक तथा शहनाई वादक के रूप में ही जाने जाने लगे। सी. रामचंद जी ने फिल्म  'नवरंग' के गीत 'तू छुपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ....' में उनके शहनाई वादन का बहुत सुन्दर प्रयोग किया है।

स्वतन्त्र संगीतकार के रूप में रामलाल चौधरी के पी.एल संतोषी ने सन् 1950 में फिल्म 'तांगावाला', जिसमें राज कपूर और और वैजयन्ती माला प्रमुख कलाकार थे, के लिए पहली बार मौका दिया था। उस फिल्म के लिए रामलाल ने 6 गानों की धुनें बना भी ली थीं किन्तु दुर्भाग्य से किसी कारणवश उस फिल्म का निर्माण ही रुक गया और वह फिल्म कभी बन ही नहीं सकी। दुर्भाग्य ने उनका साथ बाद में भी नहीं छोड़ा और सेहरा तथा गीत गाया पत्थरों ने फिल्मों में अत्यन्त लोकप्रिय संगीत देने के बावजूद भी उन्हें आगे फिल्में नहीं मिलीं। आज रामलाल एक भुला दिए गए संगीतकार बन कर रह गए हैं।

Thursday, October 20, 2011

भारत में अंग्रेजी शिक्षा

जब भारत को एक ब्रिटिश उपनिवेश बना लिया गया तो सुचारु रूप से शासन तथा व्यवस्था चलाने के लिए अंग्रेजों को बड़ी संख्या में अधिकारियों तथा कर्मचारियों, विशेषकर क्लर्कों, की आवश्यकता महसूस हुई। अधिकारी नियुक्त करने के लिए तो वे ब्रिटेन से अंग्रेजों को, अच्छी कमाई का प्रलोभन देकर, भारत ले आते थे किन्तु वहाँ से क्लर्कों को भी लाना उनके लिए बहुत कठिन और खर्चीला कार्य था। अतः उन्होंने भारतीय लोगों को क्लर्क के रूप में नियुक्त करने का निश्चय किया। चूँकि उनके समस्त कार्य अंग्रेजी में ही होते थे, भारतीय क्लर्कों को अंग्रेजी को ज्ञान होना अत्यावश्यक था। इस बात को ध्यान में रखते हुए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सन् 1813 में भारतीयों को अंग्रेजी सिखाने के लिए कुछ धन का प्रावधान रखा ताकि उन्हें भारत से ही क्लर्क तथा अनुवादक प्राप्त हो सकें। 1833 के चार्टर एक्ट के पश्चात् भारत में अंग्रेजी अधिकारिक रूप से कार्यालयीन भाषा बन गई। सन् 1844 में लॉर्ड हॉर्डिंग्ज ने घोषणा की कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाएगी। इस घोषणा के पीछे क्लर्क और अनुवादक प्राप्त करने के साथ ही निम्न उद्देश्य भी थे जैसे किः
  • वे समझते थे कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय ब्रिटिश उपनिवेश के प्रति अधिक निष्ठावान रहेंगे।
  • इस घोषणा से भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करने वाली मिशनरियों को फायदा मिलेगा क्योंकि उन्हें लगता था कि अंग्रेजी पढ़ा-लिखा व्यक्ति, चाहे वह प्रभावशाली भारतीय परिवार का ही क्यों न हो, आसानी के साथ अपना धर्म त्यागकर ईसाई धर्म अपना लेगा।
यहाँ पर यह बताना अनुपयुक्त नहीं होगा कि उन दिनों भारत की अपनी एक अलग शिक्षा-व्यवस्था हुआ करती थी। अध्यापन का कार्यभार ब्राह्मणों पर होता था और वे अपने घरों में विद्यार्थियों को शिक्षा दिया करते थे। शिक्षा के लिए किसी प्रकार की फीस नहीं होती थी, जहाँ धनी वर्ग के लोग अपनी सन्तानों की शिक्षा के एवज में ब्राह्मणों को पर्याप्त से भी अधिक धन-धान्य तथा जमीन-जायजाद तक दान में दे देते थे वहीं निर्धनों की सन्तान मुफ्त में शिक्षा पाते थे। गाँवों की ग्राम पंचायतों के नियन्त्रण में भी पाठशालाओं का संचालन हुआ करता था। उच्च संस्कृत-साहित्य की शिक्षा हेतु नगरों में विद्यापीठ हुआ करते थे। उर्दू-फारसी की शिक्षा के लिए बहुत सारे मक़तब और मदरसे भी कायम थे।

अंग्रेजों ने भारत में अपना उपनिवेश स्थापित तो कर लिया था पर उसे कायम रखने में भारत की यह शिक्षा व्यवस्था बहुत बड़ी बाधा थी। कुछ उदारवादी भारतीयों ने, यह सोचकर कि अंग्रेजी शिक्षा से पाश्चात्य संस्कृति, दर्शन तथा साहित्य का ज्ञान होगा, अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करना आरम्भ कर दिया किन्तु उनकी संख्या नगण्य थी। किन्तु अंग्रेज तो चाहते थे कि अधिक से अधिक संख्या में भारतीय अंग्रेजी के भक्त बन जाएँ इसलिए उन्होंने मक्कारी से काम लिया और सरकारी नौकरी का प्रलोभन देना शुरू किया। मध्यम वर्गीय भारतीयों के लिए, जिनकी स्थिति उन दिनों बहुत अच्छी नहीं थी, यह एक बहुत बड़ा प्रलोभन था क्योंकि सरकारी नौकरी में वेतन तो अच्छा था ही और 'ऊपर की कमाई' भी होती थी। 'ऊपर की कमाई' को भारत में एक प्रकार से अंग्रेजों की ही देन ही कहा जा सकता है क्योंकि अंग्रेजों ने ऐसे-ऐसे सरकारी नियम-कानून बना रखे थे जिससे कि भारतीयों को येन-केन-प्रकारेन लूटा जा सके। अब यदि अंग्रेज अधिकारियों को भारतीयों को लूटने का भरपूर अवसर प्राप्त था तो भला सरकारी नौकरी करने वाले स्थानीय लोगों को भला लूट का थोड़ा-बहुत हिस्सा 'ऊपर की कमाई' के रूप में कैसे न मिलता। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारतीयों को अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय सरकारी नौकर भी लूटने लगे। भारतीय शिक्षा जहाँ लोगों मे संतोष, त्याग और परमार्थ की भावना उत्पन्न करती थी वहीं अंग्रेजी शिक्षा उनमें लोभ और स्वार्थ की भावना ही पैदा करती थी, अंग्रेजी शिक्षा-व्यवस्था का आधार लूट-खसोट जो था। अंग्रेजों की लूट का आलम यह था कि तंग आकर किसानों ने किसानी छोड़ दी, पुराने खानदान गारत कर दिए गए, ग्राम पंचायतों को नष्ट कर डाला गया और उनके द्वारा संचालित पाठशालाओं को तोड़ डाला गया, न्याय प्रक्रिया को ऐसा जटिल बना दिया गया कि केवल आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग ही न्यायालय से कुछ उम्मीद रख पाते थे, गरीब जनता के लिए न तो कानून था और न ही इन्साफ। पुलिस के चक्कर में जो फँस जाता था उसका तो बेड़ा ही गर्क हो जाता था। भारत के अत्यन्त कुशल कारीगरों को अयोग्य और असहाय बना दिया गया ताकि हस्तनिर्मित वस्तुओं के स्थान पर अंग्रेजों के यंत्र निर्मित वस्तुएँ बेची जा सकें।

अस्तु, अंग्रेजी पढ़े लोगों की कमाई और रुतबा देखकर भारतीयों का अंग्रेजी के प्रति रुझान बढ़ता ही चला गया। अंग्रेज समझ रहे थे कि अंग्रेजी शिक्षा का असर भारतीयों पर वैसा ही पड़ रहा है जैसा वे चाहते थे। यह उनकी एक बहुत बड़ी सफलता थी। अपनी इस सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने समस्त भारतीयों को तन से भारतीय किन्तु मन से अंग्रेज बनाने की वृहत् योजना बना डाली जिसके तहत सन् 1835 में "मैकॉले के मिनट" का सूत्रपात किया गया। "मैकॉले का मिनट" अंग्रेजों की एक बहुत बड़ी मक्कारी थी किन्तु भारतीय उस मक्कारी को समझ नहीं पाए क्योंकि उसे भारत में शिक्षा के विकास तथा लोककल्याण का मुखौटा पहना दिया गया था। भारतीयों को इसके विषय में लच्छेदार भाषा में बताया गया कि इसका उद्देश्य "साहित्य का पुरुद्धार करना तथा साहित्य को बढ़ावा देना, भारत के शिक्षित निवासियों को प्रोत्साहन देना तथा विज्ञान का परिचय तथा बढ़ावा देना" है। ("For the revival and promotion of literature and the encouragement of the learned natives of India, and for the introduction and promotion of a knowledge of the sciences among the inhabitants of the British territories.")

उपरोक्त मिनट के पीछे छुपी हुई मक्कारी धूर्त मैकॉले के उस स्पष्टीकरण में स्पष्ट नजर आती है जिसमें उसने कहा था, "हमें एक ऐसा वर्ग बनाने की पुरजोर कोशिश करनी ही होगी जो हमारे और उन करोड़ों के बीच में, जिन पर हमें शासन करना है, दुभाषिए का काम करें; जिनके खून तो हिन्दुस्तानी हों, पर रुचि, खयाल और बोली अंग्रेजी हो।" ("We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern, a class of persons Indian in blood and color, but English in taste, in opinions, words and intellect.")

मक्कार मैकॉले भारतीयों के मनो-मस्तिष्क में अंग्रेजी भाषा को कूट-कूट कर भर देना चाहता था ताकि भारतीयों के दिलो-दिमाग से अंग्रेज और अग्रेजी विरोधी भावना ही खत्म हो जाए, और, हमारे दुर्भाग्य से, वह अपने इस उद्देश्य में न केवल सफल हुआ बल्कि बुरी तरह से सफल हुआ। हम शिक्षा में रमकर अपनी संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, रीति-रिवाज आदि सब को भूलते चले गए।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी दुर्भाग्य ने हमारा साथ नहीं छोड़ा क्योंकि सत्ता की बागडोर अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भारतीय अंग्रजों के हाथ में आ गया और उन्होंने भारत में विदेशियों के बनाए शिक्षा-नीति और व्यवस्था को जारी रहने दिया जिसका परिणाम आज यह देखने को मिलता है कि हमारे अपने बच्चे ही हमसे पूछते हैं कि 'चौंसठ याने सिक्सटी' फोर ही होता है ना? हिन्दी गिनती, हिन्दी माह, हिन्दी वर्णमाला क्या होते हैं, उन्हें मालूम ही नहीं है।

Tuesday, October 18, 2011

साँप जो घोसला बनाता है

किंग कोबरा ही एक मात्र साँप है जो कि घोसला बनाता है और उसकी रक्षा भी करता है। किन्तु नर किंग कोबरा घोसले नहीं बनाते, घोसला सिर्फ मादा किंग कोबरा बनाती है अपने अण्डों के लिए।


किंग कोबरा विषैले साँपों में सबसे लम्बे साँप होते हैं, प्रायः इनकी लम्बाई 18 फुट (5.5 मीटर) तक पाई जाती है। सामना करने की स्थिति में किंग कोबरा अपने शरीर के एक तिहाई भाग को जमीन से ऊपर उठा सकता है और वैसी ही स्थिति में आक्रमण करने के लिए आगे सरक भी सकता है। क्रोधित किंग कोबरा की फुँफकार बड़ी भयावनी होती है। किंग कोबरा का विष इतना अधिक खतरनाक होता है कि उसकी मात्र 7 मि.ली. मात्रा 20 आदमी या 1 हाथी तक की मृत्यु का कारण बन सकती है। वैसे किंग कोबरा साँप आदमियों से भरसक बचने के प्रयास में रहते हैं किन्तु विषम परिस्थितियों में फँस जाने पर प्रचण्ड रूप से आक्रामक हो जाते हैं।

किंग कोबरा साँप प्रायः भारत के अधिक वर्षा वाले जंगली तथा मैदानी क्षेत्र, दक्षिणी चीन तथा एशियाई के सुदूर दक्षिणी क्षेत्रों में पाए जाते हैं तथा अलग-अलग क्षेत्रों में इनका रंग भी अनेक प्रकार के होते हैं। वृक्षों पर, जमीन पर और पानी में ये सुविधापूर्वक रह सकते हैं। किंग कोबरा का मुख्य आहार अन्य जहरीले तथा गैर-जहरीले साँप ही होते हैं, वैसे ये छिपकिल्लियों, अण्डों तथा कुछ अन्य छोटे जन्तुओं को भी खा जाते हैं।